जीएसटी दरें बढ़ाएं लेकिन सुधारों के बिना नहीं | ए के भट्टाचार्य / April 28, 2022 | | | | |
जुलाई 2017 में लागू वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी ) व्यवस्था का बीते पांच वर्षों में क्रियान्वयन कई नीतिगत दिक्कतों का शिकार रहा है। जाहिर है इसका नयी अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था पर बुरा असर पड़ा है। जुलाई 2022 में जीएसटी को शुरू हुए पांच वर्ष हो रहे हैं, ऐसे में इससे जुड़ी गड़बडिय़ों की समीक्षा उचित होगी।
पहली दिक्कत जीएसटी की शुरुआत के भी पहले सामने आई। नयी अप्रत्यक्ष कर प्रणाली के लिए सभी राज्यों का समर्थन हासिल करने के लिए तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने उन्हें आश्वस्त किया था कि जीएसटी से सालाना 14 फीसदी की राजस्व वृद्धि मिलेगी। कहा गया कि इससे कम राजस्व मिलने पर पांच साल तक केंद्र भरपायी करेगा।
इस वादे को शायद इस आधार पर उचित ठहराया जा सकता है कि बड़े कर सुधारों में अंशधारकों के लिए विशेष प्रोत्साहन की जरूरत होती है ताकि वे इसे अपनाएं। परंतु इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि 14 फीसदी की वांछित राजस्व दर बहुत ऊंची थी और जुलाई 2020 में क्षतिपूर्ति की व्यवस्था समाप्त होने के यह एक बड़ी समस्या होगी।
सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) देश के आधे से अधिक राज्यों में सत्तारूढ़ है। जीएसटी परिषद की मतदान प्रणाली में केंद्र को राज्यों के किसी भी प्रस्ताव के विरुद्ध वीटो का अधिकार होने के बावजूद गैर भाजपा शासित राज्यों के कारण जीएसटी परिषद का अहम निर्णयों पर पहुंचना कठिन रहा है।
यदि क्षतिपूर्ति समाप्त करने की व्यवस्था टाली जाती है तो इसका दोष राज्यों से राजस्व वृद्धि के अस्वाभाविक वादे को दिया जान चाहिए। ऐसे में पहला सबक यही है कि गैर जरूरी वादे नहीं किए जाने चाहिए।
दूसरी दुर्घटना दो बार में घटी। पहले नवंबर 2017 में और उसके बाद दिसंबर 2018 में यानी 2019 के आम चुनाव से कुछ माह पहले। राजस्व की आवक को एक लाख करोड़ रुपये मासिक के स्तर पर पहुंचने के पहले ही जीएसटी परिषद ने दरें कम करने का निर्णय कर लिया। जीएसटी परिषद ने 10 नवंबर, 2017 को 23वीं बैठक में वस्तुओं की 94 श्रेणियों में दरें कम कर दीं। इसकी वजह से दरों में कमी आई। दरों के समग्र तार्किकीकरण में एक भी वस्तु पर शुल्क दर बढ़ायी नहीं गई।
करीब 13 महीने बाद 22 दिसंबर, 2018 को जीएसटी परिषद की 31वीं बैठक में एक बार फिर दरों में कटौती की गई। इस दौरान कई राज्यों के वित्त मंत्रियों ने राजस्व पर असर पडऩे की चिंता जाहिर की जिसकी अनदेखी कर दी गई। इस बैठक में परिषद ने 17 श्रेणियों की वस्तुओं की दरें कम कीं। सोने आदि के लिए 3 फीसदी की दर को छोड़ दिया जाए तो भी शुल्क दरों के स्लैब को 5 से कम करने और 3 स्लैब में लाना तो भूल जाइए, कुछ वस्तुओं की दरें बढ़ाकर उन्हें तार्किक करने का प्रयास भी नहीं किया गया। केंद्र के निर्देशन में दो बार दरें कम की गईं और जीएसटी संग्रह पर उनके असर की अनदेखी कर दी गई।
जीएसटी शुरू होने के बाद आरंभिक चार महीनों में औसत मासिक संग्रह 0.93 लाख करोड़ रुपये से 0.95 लाख करोड़ रुपये रहा। परंतु नवंबर 2017 में भारी कटौती के बाद 2017-18 के बाकी महीनों में यह घटकर 0.9 लाख करोड़ रुपये पर आ गया। 2018-19 के शुरुआती आठ महीनों में यह लगभग 0.97 लाख करोड़ रुपये रहा। इस दौरान इसने केवल दो बार एक लाख करोड़ रुपये का आंकड़ा छुआ। इसके बावजूद दिसंबर 2018 में दरों में पुन: कमी की गई। इसका असर 2019-20 में दिखा जब मासिक संग्रह थोड़ा बढ़कर एक लाख करोड़ रुपये हो गया। 2020-21 में मासिक जीएसटी संग्रह गिरकर 0.94 लाख करोड़ रुपये रह गया जो कोविड महामारी तथा लॉकडाउन के असर को देखते हुए समझा जा सकता है। परंतु दरों में कमी से हुआ नुकसान कोविड के असर से कहीं अधिक था।
दूसरी घटना से सीधा सबक यह निकला कि जीएसटी परिषद को नयी कर व्यवस्था लागू होने के बाद इतनी जल्दी इतनी वस्तुओं के लिए दरों में इस कदर कटौती नहीं करनी चाहिए थी। अगर उसने दरों में कटौती करने का निर्णय कर भी लिया था तो उसे इसके साथ स्लैब में कमी करनी चाहिए थी जिससे कुछ दरें ऊपर भी जातीं। जाहिर है यह अदूरदर्शी कदम था जिसे जीएसटी सुधार के बजाय चुनावों को ध्यान में रखकर अंजाम दिया गया था।
यकीनन भारत की जीएसटी व्यवस्था को कुछ कदमों से फायदा भी हुआ। परिषद ने अप्रैल 2018 से वस्तुओं के अंतरराज्यीय आवागमन के लिए ई-वे बिलिंग की व्यवस्था की। अक्टूबर 2020 में ई-इनवॉइसिंग की अधिक कड़ी व्यवस्था लागू की गई ताकि एक तय मूल्य से अधिक के लेनदेन को दर्ज किया जा सके। समय के साथ इसका दायरा बढ़ता गया।
आर्थिक स्थितियों में सुधार, वस्तुओं के आवागमन पर नजर रखने की तकनीकी क्षमता विकसित होने तथा ई-इनवॉइसिंग के जरिये लेनदेन तथा प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष कर के आंकड़ों पर बेहतर नजर की बदौलत 2021-22 में जीएसटी संग्रह में सुधार हुआ। इस दौरान औसत मासिक संग्रह बढ़कर 1.23 लाख करोड़ रुपये हो गया। 2021-22 में सकल घरेलू उत्पाद में जीएसटी संग्रह की हिस्सेदारी में 6.28 फीसदी का मामूली इजाफा हुआ लेकिन कुल संग्रह में सुधार से केंद्र एवं राज्यों को जरूरी बचाव मिला।
परंतु अब खतरा यह है कि आर्थिक सुधार के लाभ सामने आने तथा संग्रह के सक्षम ढंग से स्थिर होने के पहले ही जीएसटी परिषद एक बार फिर दरों में बदलाव का प्रयास कर रही है। अगर इस बदलाव को प्रस्तावित ढंग से लागू किया गया तो यह पुन: एक गलती होगी। दो विचार चर्चा में हैं। एक कहता है कि 5 फीसदी के न्यूनतम शुल्क दायरे को 3 फीसदी और 8 फीसदी की दो दरों में बांट दिया जाए। दूसरा विचार कहता है कि 140 वस्तुओं, जिनमें से ज्यादातर टिकाऊ उपभाक्ता वस्तुएं हैं, उनके लिए दरें मौजूदा 18 फीसदी से बढ़ाकर 28 फीसदी कर दी जाएं।
दोनों विचार दिक्कतदेह हैं। ऐसे समय में जबकि मुद्रास्फीति बढ़ी हुई है, दरों में इजाफा करना समझदारी नहीं होगी। ये विचार इसलिए भी गलत हैं क्योंकि ये मानते हैं कि दरों को बढ़ाने से जीएसटी परिषद को अपनी चुनौतियों से पार पाने में मदद मिलेगी। समय की मांग तो यह है कि जीएसटी दरों के ढांचे में सुधार किया जाए, न कि केवल दरें बढ़ायी जाएं। स्लैब को कम करके 3 तक सीमित किया जा सकता है। ऐसे में कुछ दरों में इजाफा करने तथा कई अन्य में कटौती करने की जरूरत पड़ेगी। बीते पांच वर्ष से मिले सबक को भूलना नहीं चाहिए। परिषद 2017 और 2018 में दरें कम करते समय स्लैब कम करने अवसर गंवा चुकी है। यदि अब उसने दरें बढ़ाईं तो उसे साथ में स्लैब की तादाद कम करनी चाहिए।
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