अखिल भारतीय सेवाएं और प्रांतीयता पर जोर | |
के पी कृष्णन / 04 22, 2022 | | | | |
देश की संवैधानिक बुनियादों में और सरकार के वास्तविक कामकाज में अखिल भारतीय सेवाओं की अहम भूमिका है और उन्हें सही मायनों में अखिल भारतीय चरित्र दिखाना और निबाहना होता है। परंतु हाल के दशकों में उनके अखिल भारतीय चरित्र में गिरावट आई है। इसका सरकार की मानव संसाधन से संबद्ध विचार तथा विकेंद्रीकरण की प्रक्रिया पर विपरीत असर होना तय है।
आधुनिक भारत की स्थापना करने वाले सरदार पटेल जैसे नेताओं के मन में सिविल सेवा के काम की बहुत व्यापक परिकल्पना रही है।
सामान्य तौर पर हम संविधान के बारे में यही सोचते हैं कि वह नागरिकता के अधिकारों से संबंधित है और विधायिका की ओर से स्वीकृत कानूनी शक्तियों की सीमा तय करता है। यह भी कि वह राज्य में शासन की तीनों शाखाओं की स्थापना और उन्हें गति प्रदान करता है लेकिन सिविल सेवा के बारे में विस्तार से जानकारी देने के मामले में भारत का संविधान गैरमामूली प्रतीत होता है, विस्तार से जानकारी नहीं देता।
भारत में उच्च अफसरशाही के तीन प्रकार हैं। अखिल भारतीय सेवाएं वे हैं जिनके सदस्य केंद्र और राज्य सरकार दोनों में सेवा देते हैं। केंद्रीय सेवाएं वे हैं जिनके सदस्य केवल केंद्र सरकार के अधीन काम करते हैं। राज्य सिविल सेवा राज्य सरकारों की उच्च सेवा होती है। तीन तरह की अखिल भारतीय सेवाएं होती हैं: भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस), भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) और भारतीय वन सेवा यानी आईएफएस।
इन सेवाओं के अधिकारियों की नियुक्ति संघ लोक सेवा आयोग करता है तथा उन्हें राज्यों के कैडर आवंटित किए जाते हैं। उन पर राज्य और केंद्र सरकारों का दोहरा नियंत्रण होता है। अखिल भारतीय सेवाओं और उनके सदस्यों का रवैया और उनकी विचार प्रक्रिया को भी अखिल भारतीय होना था ताकि स्थानीय दावों के बजाय साझा राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखा जा सके। यही कारण है कि इन सेवाओं को राष्ट्रीय और राज्य दोनों स्तरों पर अहम जगह मिली तथा इन्हें भाषा, धर्म और जाति तथा क्षेत्रीय और स्थानीय दबावों से अलग बनाने का विचार था। इन सेवाओं के अधिकारियों से आशा थी कि वे केंद्र और राज्य सरकारों के बीच सेतु बनेंगे और केंद्र को ऐसी नीतियां बनाने में मदद मिलेगी जो वास्तविक अनुभवों पर आधारित और व्यावहारिक होगी। इन बातों के बीच राज्य सरकार का नीति निर्माण और क्रियान्वयन व्यापक राष्ट्रीय दृष्टिकोण से संचालित होता था। कैडर के आवंटन तथा केंद्रीय कर्मचारियों की व्यवस्था कुछ इस प्रकार की जाती थी ताकि उक्त लक्ष्य पूरा किया जा सके। यह सुनिश्चित किया जाता कि हर प्रदेश में दूसरे प्रदेश के अधिकारी नियुक्त हों तथा वे केंद्र तथा राज्यों के बीच आवाजाही करते रहें। मिसाल के तौर पर सेंट्रल डेप्युटेशन रिजर्व (सीडीआर) उन पदों का प्रतिनिधित्व करता है जिन पर ऐसे आईएएस नियुक्त होने चाहिए जो केंद्र सरकार में कार्यरत हों। अन्य अखिल भारतीय सेवा अधिकारियों के लिए भी ऐसी ही व्यवस्था है।
आइए नजर डालते हैं कुछ ऐसे प्रमाणों पर जिनसे अंदाजा मिलता है कि अखिल भारतीय सेवाओं के अधिकारियों की भूमिका इन लक्ष्यों के अनुरूप नहीं रही। पहली समस्या है कि सीडीआर की उपयोगिता। अधिकांश राज्य अपने कुशल अधिकारियों को केंद्र नहीं भेजना चाहते। कई अधिकारी राज्यों में काम करके खुश हैं और वे दिल्ली नहीं जाना चाहते। कुल मिलाकर केंद्र में जितने आईएएस अधिकारी होने चाहिए उसका केवल 30 प्रतिशत हैं।
समग्र औसत पर नजर डालें तो सभी आईएएस अधिकारियों में से केवल 10 फीसदी केंद्र सरकार के लिए काम करते हैं। कई बड़े राज्यों में यह औसत और भी कम है। उत्तर प्रदेश में 6 फीसदी, तमिलनाडु में 7.1 फीसदी, राजस्थान में 5.9 फीसदी, मध्य प्रदेश में 7.2 फीसदी, महाराष्ट्र में 7.3 फीसदी अधिकारी नियुक्त हैं। छोटे राज्यों और पूर्वोत्तर के राज्यों में यह औसत अधिक है। इससे नीतिगत प्रक्रिया प्रभावित होती है क्योंकि बड़े राज्यों को ज्ञान और नजरिये के दोतरफा प्रवाह के साथ केंद्र की विचार प्रक्रिया में अधिक गहराई से संबद्ध होने की आवश्यकता है।
अखिल भारतीय सेवाओं को लेकर जो बुनियादी नजरिया बनाया गया था उसमें हर अधिकारी से यह आशा थी कि वह कुछ समय केंद्र तथा कुछ समय राज्य में देगा। व्यवहार में अखिल भारतीय सेवाएं दोहरी व्यवस्था बनकर रह गई हैं जहां कुछ अधिकारी नियमित रूप से प्रतिनियुक्ति पर केंद्र में जाते हैं (लेखक समेत) जबकि ज्यादातर कभी नहीं जाते। इससे भी केंद्र और राज्य सरकारों के बीच संपर्क कमजोर पड़ता है।
इन घटनाओं ने भारतीय संघवाद के बारे में हमारे सोच को भी प्रभावित किया है। भारतीय संविधान का चरित्र संघीय है। भारत राज्यों का संघ है और सरकार के सभी काम न्यूनतम संभव स्तर पर संचालित हैं। मसलन एक गांव या एक शहर या एक राज्य, न कि केंद्र के स्तर पर। जवाहरलाल नेहरू के बाद से ही भारतीय राज्य में केंद्र ने बहुत अधिक शक्ति हासिल की।
सबसे अच्छे समय में भी केंद्र भारत की विविधता से कोसों दूर रहा। किसी समस्या को लेकर भी उसका नजरिया केवल एक ही हल तक केंद्रित रहता है जबकि भारत में भारी विविधता है और उसे विभिन्न स्थानीय परिस्थितियों के अनुसार विविध हलों की आवश्यकता होती है। अखिल भारतीय सेवाओं की प्रकृति अखिल भारतीय नहीं रह गई है और इस बात ने केंद्र की अपनी क्षमता इस्तेमाल करने की संभावनाओं को तो सीमित किया ही, उसकी नीति निर्माण क्षमता भी प्रभावित हुई है।
इसका हल दो बातों में निहित है। एक ओर अधिक से अधिक विकेंद्रीकरण से मदद मिलेगी। यदि ज्ञान राज्यों और शहरों में है तो बेहतर है कि उन्हें विकसित कर नीतिगत ढांचा चलाया जाए, बजाय कि केंद्रीय मंत्रालयों में नीतियां बनाने के। दूसरी ओर बेहतर होगा कि अखिल भारतीय सेवाओं का चरित्र सुधारा जाए। अत्यधिक विकेंद्रीकरण को हमेशा एक गलत व्यवस्था माना गया है। ऐसे में पूर्ववर्ती व्यवस्था को मानक माना जाता है। वहीं बाद वाली बात का संबंध सिविल सेवा सुधारों से है। हमें जड़ों में जाकर समस्या को पहचानना होगा। कुछ अफसरशाह केंद्र में काम करना क्यों पसंद नहीं करते? हर दशक में कुछ वर्ष का समय केंद्र में बिताने से करियर संबंधी रणनीति किस प्रकार प्रभावित होती है? कुछ मुख्यमंत्रियों को अपने सर्वश्रेष्ठ अधिकारियों को केंद्र में न भेजना ही समझदारी भरा क्यों लगता है?
(लेखक सीपीआर में मानद प्राध्यापक और पूर्व अफसरशाह हैं)
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