महंगाई का मुद्दा जनता तक पहुंचाने में चूक गई कांग्रेस | सम सामयिक | | टीसीए श्रीनिवास-राघवन / April 22, 2022 | | | | |
भारत में राजनीतिक दल अपने हित साधने का कोई मौका कभी हाथ से निकलने नहीं देते हैं। किसी छोटे विषय को भी राजनीतिक दल बढ़ा-चढ़ा कर उसे जनता के सामने परोसते हैं और उनकी नजरों में अपना रसूख बढ़ाने का प्रयास करते हैं। मगर देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस इसका अपवाद लग रही है। कांग्रेस के हाथ कई ऐसे मौके लगे हैं जिन्हें भुना कर जनता की नजरों में, खासकर चुनावी समर में अपनी स्थिति मजबूत कर सकती थी मगर पार्टी ऐसा नहीं कर पाई। यूं कहें तो कांग्रेस अवसर का लाभ उठाने से अधिक अवसर गंवाने में अधिक 'निपुण' होती जा रही है। क्रिकेट की भाषा में कहें तो कांग्रेस को 'नो बॉल' पर 'फ्री हिट' मारने का मौका जरूर मिलता है मगर यह गेंद सीमा रेखा से पार पहुंचाने के बजाय बस मूकदर्शक बनकर रह जाती है। देश में आसमान छूती महंगाई एक ऐसा ही मौका है जिसे कांग्रेस ने गंवा दिया है। लगातार तीसरे महीने खुदरा महंगाई भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) के सहज स्तर से अधिक रही है। अगर महंगाई 6 प्रतिशत तक रहती है तो केंद्रीय बैंक इसे सहजता से लेता है मगर यह सीमा पार होते ही उसके माथे पर शिकन दिखनी लगती है। आरबीआई ने मौद्रिक नीति समीक्षा में आशंका जताई है कि अप्रैल-जून तिमाही में महंगाई ऊंचे स्तरों पर बनी रह सकती है।
एक तरफ महंगाई पूरी रफ्तार से आगे बढ़ रही है मगर दूसरी तरफ लोगों की आय थम गई है। कोविड-19 महामारी की वजह से लोगों की आय में वृद्धि लगभग शून्य हो गई है। इस वजह से लोगों को रोजमर्रा के जीवन में काफी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है। देश की वर्तमान परिस्थिति में देश की सबसे पुरानी और सबसे अधिक दिनों तक शासन करने वाली कांग्रेस आखिर क्या कर रही है? पार्टी ने अपनी भूमिका ट्विटर मुद्दे उछालने और संसद में नारेबाजी करने तक सीमित कर दी है। कांग्रेस इस हद तक निष्प्रभावी हो सकती है किसी ने कदाचित कल्पना भी नहीं की होगी। अगर पार्टी को लगता कि देश की जनता ट्विटर पर और संसद में उछल रहे विषयों पर ही गौर करती है तो पार्टी को दोबारा सोचने की जरूरत है। कांग्रेस ने महंगाई पर संवाददाता सम्मेलन करने का प्रयास किया था। मगर वह कुछ ऐसे बिंदुओं की चर्चा कर रही है जो आम आदमी के बहुत मतलब के नहीं हैं। कुछ दिनों पहले पार्टी के प्रवक्ताओं ने एक समाचार पत्र में प्रकाशित आलेख का हवाला देते हुए कुछ संवाददाता सम्मेलन आयोजित किए थे। इस आलेख में दावा किया गया था कि क्रय शक्ति समानता के आधार पर भारत में ईंधन के दाम दुनिया के किसी भी देश की तुलना में सर्वाधिक स्तर पर हैं। यह बात बिल्कुल सही है मगर देश में कितने लोग क्रय शक्ति समानता (पर्चेजिंग पावर पैरिटी) का सिद्धांत समझते हैं? जो लोग यह संकल्पना समझते हैं वे इसके मूलभूत सिद्धांतों पर सवाल भी उठा सकते हैं। अगर पीपीपी आधार पर आय के सिद्धांत पर विचार किए बिना पीपीपी को केंद्र में रखते हुए कीमतों पर विचार किया जाए और विभिन्न देशों में प्रति व्यक्ति ईंधन खरीदारी की तुलना की जाए तो यह पूरा विश्लेषण अपूर्ण रहता है जिससे किसी निष्कर्ष पर पहुंचना संभव नहीं है। जो पीपीपी नहीं समझते हैं या इससे वास्ता नहीं रखते हैं उनके लिए ये सारे सिद्धांत कोरे कागज की तरह हैं।
सारांश यह है कि कांग्रेस ने लोगों को बढ़ती महंगाई का डर दिखाने के लिए इसकी व्याख्या पीपीपी आधार पर करने की कोशिश की थी मगर इसमें वह पूरी तरफ विफल रही। महंगाई पर कांग्रेस के तर्कों को कोई समझने या सुनने वाला नहीं था। महंगाई का मुद्दा उछालने के लिए कांग्रेस ने प्रयास जरूर किया मगर उसके हाथ कुछ नहीं लगा। कांग्रेस यह समझने का प्रयास नहीं कर रही है कि भारत में कीमतें दुनिया के हिसाब से उच्चतम या निम्नतम स्तर पर हैं इसकी परवाह करने वाला कोई नहीं है। लोग केवल इस बात की परवाह करते हैं कि वे कल की तुलना में आज अधिक खर्च कर पा रहे हैं या नहीं और कर पा रहे हैं तो कितना अधिक । लोग इस बात की भी परवाह करते हैं कि दाम बढऩे की स्थिति में वह संबंधित वस्तु का उपभोग कम कर सकते हैं या नहीं। शायद यह एक वजह हो सकती है कि सरकार नीबू के दाम 300-350 रुपये प्रति किलोग्राम तक पहुंचने से चिंतित नहीं लग रही है। नीबू की मांग में उतार-चढ़ाव आते रहते हैं। लोग इतनी ऊंची कीमत पर नीबू नहीं खरीदेंगे।
हालांकि पेट्रोल-डीजल एवं रसोई गैस के दाम एक अलग मुद्दा है। इनकी मांग कभी कम नहीं होती और हमेशा बढ़ती जाती है। ईंधन लोगों के व्यय एवं उनकी आय से सीधे जुड़ा है। एक औसत आदमी ईंधन पर अपनी निर्भरता अचानक कम नहीं कर सकता है और इसलिए उसे विवश होकर अपनी आय का एक बड़ा हिस्सा पेट्रोल-डीजल, रसोई गैस आदि पर फूंकना पड़ता है। उदाहरण के लिए किसान सिंचाई उपकरणों में केरोसीन का इस्तेमाल बंद नहीं कर सकते हैं और न ही शहरों में रहने वाले लोग घर से कार्यालय और कार्यालय से घर आने पर होने वाले खर्च में कोई कटौती कर सकते हैं। इन दोनों समूहों में कोई भी अपनी पहले से ही कम आय को लेकर कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहता है और जैसे-तैसे समय काट रहा है।
पेट्रोल एवं डीजल के दाम एक वर्ष पहले की तुलना में लगभग 40 रुपये प्रति लीटर तक बढ़ गया है। कांग्रेस को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तुलना करने के बजाय इस बात पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए कि पिछले एक वर्ष के दौरान पेट्रोल-डीजल कितने महंगे हो गए हैं। ईंधन के दाम में बेतहाशा वृद्धि गैर-जरूरी व्यय पर सीधा असर डालती है और इसका असर निजी उपभोग पर पड़ता है।
क्या महंगाई एक राजनीतिक मुद्दा रह गई है। वर्ष 2009 और 2014 के आम चुनावों से पहले महंगाई काफी ऊंचे स्तर पर थी मगर चुनाव में यह कोई मुद्दा नहीं बन पाई। वर्ष 2019 में महंगाई निचले स्तर पर थी मगर 2022 में इसने लोगों की नाक में दम कर दिया है मगर ताज्जुब की बात है कि हाल में संपन्न विधानसभा चुनावों में यह कोई मुद्दा नहीं रही। तो क्या कांग्रेस भी यह बात समझ चुकी है इसलिए यह केवल खाना पूर्ति के लिए महंगाई का मुद्दा उठा रही है?
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