जलवायु परिवर्तन की चिंता | संपादकीय / April 20, 2022 | | | | |
जलवायु में तेजी से आ रहे बदलाव तथा उनसे निपटने के लिए उचित रणनीतियों को अपनाने में अक्षमता के बीच ऐसे संस्थाान बनाना आवश्यक लग रहा है, जो भारत में इसके असर पर नजर रखें, इससे होने वाली जटिलताओं के बारे में चेतावनी दें तथा समुचित हल सुझाने का काम करें। इस समय देश इन कामों के लिए काफी हद तक जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) तथा अन्य विदेशी एजेंसियों पर निर्भर है। हालांकि आईपीसीसी की रिपोर्ट अक्सर शोधपरक होती हैं और उनमें क्षेत्रवार तथा देश आधारित अवलोकन भी रहता है लेकिन वे भारत जैसे देश की जरूरतें पूरी नहीं कर पातीं, जहां के पर्यावास में अत्यधिक विविधता है। देश में ऐसी संस्थागत व्यवस्था बनाने में समस्या नहीं आनी चाहिए क्योंकि हमारे पास पहले ही कुशल लोग हैं और कुछ हद तक इसके लिए आवश्यक बुनियादी ढांचा भी हमारे पास है। आईपीसीसी के लिए काम कर रहे कई वैज्ञानिक जो डेटा संग्रहीत करते हैं, उसका विश्लेषण करते हैं तथा सबसे महत्त्वपूर्ण बात जो इन सूचनाओं के आधार पर रिपोर्ट लिखते हैं, वे सभी भारतीय हैं। एक स्थानीय संस्था जो भारत केंद्रित जलवायु परिवर्तन संबंधी काम करे, वह यकीनन अधिक उपयोगी साबित होगी।
भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) ने बीते कई दशकों में मॉनसून के प्रदर्शन में आने वाले बदलाव को जिस प्रकार दर्ज किया है उससे भी भरोसा बनता है कि ऐसा किया जा सकता है। गत 14 अप्रैल को जारी अपनी ताजा रिपोर्ट में उसने कहा कि 1901 से 2020 के बीच दक्षिण-पश्चिम मॉनसून से होने वाली बारिश 1921 तक अपेक्षाकृत शुष्क रही और इसके बाद सन 1971 तक बारिश अपेक्षाकृत अच्छी हुई। उसके पश्चात एक बार फिर कम बारिश का दौर शुरू हुआ जो आज तक जारी है। इसके कारण सामान्य बारिश का मानक भी कम करना पड़ा। पुणे स्थित भारतीय उष्णदेशीय मौसम विज्ञान संस्थान द्वारा तैयार एक अन्य हालिया रिपोर्ट ने भारतीय उपमहाद्वीप के मौसम तथा जलवायु पर मानवीय गतिविधियों के प्रभाव का अध्ययन प्रस्तुत किया है। इस अध्ययन में हिंद महासागर तथा हिमालय के बीच के क्षेत्र पर खास ध्यान दिया गया है। उक्त घटनाएं तथा पेड़ों से बेमौसम पत्ते झडऩा, जंगलों में आग लगने की घटनाएं बढऩा, फसलें समय से पहले पकना आदि ऐसी घटनाएं हैं, जिन्हें स्थानीय संस्थान बेहतर ढंग से दर्ज कर सकेंगे।
ऐसा नहीं है कि भारत जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए समुचित नीतियां नहीं बना पाता है बल्कि असल समस्या उनका प्रभावी क्रियान्वयन करने तथा वांछित नतीजे हासिल करने में है। हमने वर्ष 2008 में जलवायु परिवर्तन पर जो राष्ट्रीय कार्य योजना बनायी थी, उसमें भी इस बात को महसूस किया जा सकता है। उस विस्तारित कार्य योजना में अर्थव्यवस्था के कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए आठ उप लक्ष्य तय किए गए थे। 30 से अधिक राज्यों तथा केंद्र शासित प्रदेशों ने भी जलवायु कार्य योजना पेश की हैं। परंतु इस दिशा में ज्यादा प्रगति नहीं हो सकी क्योंकि संस्थान किफायती और समन्वित क्रियान्वयन नहीं कर सके। दिलचस्प है कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर देश के प्रतिनिधित्व तथा नीतियों और कदमों में समन्वय सुनिश्चित करने के लिए जलवायु परिवर्तन पर प्रधानमंत्री के विशेष दूत का पद स्थापित किया गया लेकिन उसे अज्ञात कारणों से समाप्त कर दिया गया। जलवायु परिवर्तन के कारण बनने वाली आपात स्थितियों को लेकर हमें जिस प्रकार अचानक प्रतिक्रिया देनी पड़ी हैं उससे भी ऐसे संस्थानों की जरूरत स्पष्ट रूप से सामने आती है। अचानक दी जाने वाली प्रतिक्रियाएं अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरतीं। यह आवश्यक है कि हम टिकाऊ स्वदेशी संस्थान बनाकर जलवायु परिवर्तन संबंधी चिंताओं को क्षेत्रवार तथा संपूर्ण अर्थव्यवस्था के लिए समग्रता में भी हल कर सकें। ऐसा नहीं किया गया तो तमाम अच्छी नीतियों के बावजूद जलवायु परिवर्तन के खिलाफ भारत की लड़ाई कमजोर बनी रहेगी।
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