प्रगतिशील कदम | संपादकीय / April 18, 2022 | | | | |
स्नातक और स्नातकोत्तर छात्रों को एक साथ दो डिग्रियां हासिल करने की अनुमति देने का विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) का प्रस्ताव उच्च शिक्षा जगत में एक प्रगतिशील कदम है। व्यापक प्रस्ताव यह है कि छात्रों को अपनी पसंद के दो विषयों में विशेषज्ञता हासिल करने की इजाजत दी जाए। उदाहरण के लिए गणित और इतिहास जैसे विषय। वे चाहें तो भौतिक रूप से कक्षा में उपस्थित होकर पढ़ाई कर सकते हैं, चाहें तो ऑनलाइन और भौतिक कक्षाओं की मिश्रित व्यवस्था अपना सकते हैं या फिर चाहें तो पूरी तरह ऑनलाइन पढ़ाई कर सकते हैं। यह प्रस्ताव दो वजहों से व्यावहारिक है। पहली वजह, इस नीति की बदौलत हाई स्कूल के छात्र जो अक्सर यह तय नहीं कर पाते कि उन्हें उच्चतर शिक्षा में विज्ञान की पढ़ाई करनी चाहिए या मानविकी विषय की। निश्चित तौर पर भारतीय समाज और संस्कृति में विज्ञान एवं गणित विषयों पर कुछ ज्यादा ही जोर दिया जाता है जिससे शिक्षा को देखने का नजरिया बहुत संकीर्ण हो जाता है और वह रोजगार तक सीमित हो जाता है। कई बार इसकी वजह से छात्र-छात्राओं को ऐसे विषयों का चयन करना पड़ता है जो शायद उनकी बौद्धिक क्षमताओं से मेल नहीं खाते हों।
दूसरी बात, एक से अधिक विषयों में पढ़ाई करके दो डिग्रियां हासिल करने के प्रस्ताव से नियोक्ताओं की एक ऐसी दुनिया में नूतन एवं रचनात्मक सोच की बढ़ती जरूरतें पूरी हो सकती हैं जहां स्थानीय और वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा लगातार बढ़ रही है और जो निरंतर परिवर्तनशील है। उदाहरण के लिए आज शीर्ष वैश्विक आईटी कंपनियों ने भी बढ़ती मांग के चलते अपनी भर्ती का दायरा पारंपरिक विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग और गणित के स्नातकों से उन युवाओं की ओर बढ़ा दिया है जिनके पास विभिन्न विषयों का ज्ञान है। उदाहरण के लिए दुनिया की सबसे बड़ी और सफल कंपनियों में उन स्नातकों की मांग अधिक है जिनके पास उपरोक्त विषयों के अलावा कला विषय का भी ज्ञान हो। केवल डॉक्टोरल डिग्रीधारियों को नहीं बल्कि विषय विशेषज्ञों को भी पढ़ाने की अनुमति देने का प्रस्ताव भी समझदारी भरा कदम है क्योंकि शायद ऐसा करने से फैकल्टी की वह संभावित कमी दूर होगी जो दोहरे पाठ्यक्रम शुरू होने के बाद हो सकती है।
बहरहाल, इस निर्णय से दो मसले उठते हैं। पहला है उच्च शिक्षा पाठ्यक्रमों की गुणवत्ता और डिप्लोमा कार्यक्रम। चूंकि इस नीति के आगमन के बाद ऑनलाइन पाठ्यक्रमों का बाजार तेजी से बढ़ सकता है, मसलन विज्ञान और कला केंद्रित विश्वविद्यालय एक दूसरे के अनुशासन में अध्यापन शुरू कर सकते हैं। ऐसे में यूजीसी को मंजूरी देने और निगरानी प्रक्रिया में सावधानी बरतनी होगी। अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद जिसे अतीत में भारी मांग वाले प्रबंधन पाठ्यक्रमों में रातोरात गायब हो जाने वाले सेवा प्रदाताओं की समस्या से जूझना पड़ा, वह इस बात का अच्छा उदाहरण पेश करती है कि इसमें क्या खतरे हो सकते हैं। यकीनन आईटी कंपनियों द्वारा आईटी और विज्ञान स्नातकों को दोबारा प्रशिक्षण देने की बातें भी हमारे सामने हैं।
दूसरी दिक्कत ज्यादा लंबी है। भारत में स्नातक एवं स्नातकोत्तर डिग्रीधारियों के लिए रोजगार के अवसर सीमित होते हैं। विश्वविद्यालयों की तादाद बढऩे और सरकारी नौकरियां घटने के साथ यह समस्या बढ़ती गई क्योंकि निजी क्षेत्र में ऐसे छात्रों के लिए सीमित अवसर हैं। यह भी एक कारण है जिसके चलते भारत के लोग उच्च शिक्षा में अधिक समय बिताते हैं ताकि वे ज्यादा पढ़ाई कर सकें और उन्हें रोजगार मिलने के अवसर बढ़ सकें। दो डिग्री या डिप्लोमा से यह समस्या कुछ हद तक दूर होगी। लेकिन बिना तेज आर्थिक विस्तार के भारत की समस्या और बढ़ेगी क्योंकि बड़ी तादाद में दो डिग्री और डिप्लोमा वाले युवा होंगे जबकि उनके पास रोजगार के उचित अवसर नहीं होंगे। यूजीसी इस मसले को हल नहीं कर सकती लेकिन सरकार को यह समझना होगा इसे मंजूरी देने के साथ उसे रोजगार के अवसरों में भी इजाफा करना होगा।
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