आईएफबी एग्रो ने 1 अप्रैल को शेयर बाजारों को सूचना दी कि उसके निदेशक मंडल ने 2022-23 में 40 करोड़ रुपये तक की राशि चुनावी बॉन्ड के रूप में योगदान करने की मंजूरी प्रदान की है। ऐसा तब है जब 2020-21 में कंपनी का घोषित सालाना लाभ 47 करोड़ रुपये था। कंपनी इतनी धनराशि क्यों दे रही थी? आईएफबी एग्रो आधिकारिक रूप से चुनावी बॉन्ड के रूप में जबरन वसूली की रकम दे रही है। यह एकदम स्पष्ट है क्योंकि स्पष्टीकरण में कहा गया है कि 'कंपनी को उत्पाद शुल्क संबंधी मसलों का सामना करना पड़ा' और राजनीतिक योगदान का उसका निर्णय 'ऐसे ही मामलों' के संदर्भ में था। सीधी सपाट भाषा में सरकार के उत्पाद शुल्क विभाग की जबरन वसूली और प्रताडऩा से बचने के लिए उसने बॉन्ड के जरिये भुगतान करने का तय किया। इससे पहले के खुलासों से पता चलता है कि यह समस्या कई वर्षों से चली आ रही है। 26 जून, 2020 को और फिर 22 दिसंबर, 2020 को आईएफबी एग्रो ने कहा कि दक्षिण 24 परगना (पश्चिम बंगाल) में उसकी डिस्टिलरी पर हथियारबंद गुंडों ने हमला किया और कर्मचारियों की पिटाई की, उन्हें बंधक बनाया तथा डिस्टिलरी को बंद करा दिया। इस पर किसी को दंडित नहीं किया गया और मुख्यमंत्री को शिकायत करने का भी कोई असर नहीं हुआ। अक्टूबर 2021 में आईएफबी एग्रो ने बोर्ड के माध्यम से निर्णय लिया कि वह 25 करोड़ रुपये मूल्य के चुनावी बॉन्ड खरीदेगी। उसकी सालाना रिपोर्ट में इस बात का जिक्र है कि कैसे राज्य के उत्पाद शुल्क विभाग की अवैध मांग के चलते उसे मुश्किलों का सामना करना पड़ा और कारखानों को कई दिनों के लिए बंद करना पड़ा। ऐसा लग सकता है कि सरकार और विभाग दोनों तालमेल के साथ काम कर रहे हैं। सत्ताधारी दल के गुंडों द्वारा जबरन वसूली देश के कई हिस्सों में आम है। पश्चिम बंगाल तो इसके लिए दशकों से बदनाम है। वहां इसकी शुरुआत माक्र्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के शासन काल में हुई थी। वहां सब कुछ स्थानीय पार्टी कार्यालय के नियंत्रण में होता है। उदाहरण के लिए बालू, ईंट, स्टील और सीमेंट जैसी भवन निर्माण सामग्री को उन आपूर्तिकर्ताओं से खरीदना होता है जिनकी सूची पार्टी कार्यालय के पास होती है। यदि आप कहीं और से सामग्री खरीदते हैं तो आपकी परियोजना बंद कर दी जाएगी। यदि आप पुलिस से शिकायत करते हैं तो पुलिस बल तत्काल पार्टी कार्यालय को सूचना देकर आपसे कहेगी कि मामले को 'निपटा' लें। देश के सबसे समृद्ध राज्यों में से एक रहे पश्चिम बंगाल का निरंतर और तेज पराभव इस वजह से भी हुआ क्योंकि संगठित श्रमिकों ने अतार्किक मांगें रखीं और राजनीतिक दलों ने जमकर वसूली की। आईएफबी एग्रो के आरोपों से सोशल मीडिया को गहरा झटका लगा और प्रमुख मीडिया संस्थानों ने भी इस पर खबरें प्रकाशित कीं। परंतु सरकार, नियामक, जांच एजेंसियां और यहां तक कि कारोबारी तबका भी मोटे तौर पर खामोश रहा और उसने इस मामले की अनदेखी कर दी। ऐसा शायद इसलिए हुआ कि बेंगलूरु, गुडग़ांव, नोएडा, मुंबई, पुणे और गुजरात जैसे राज्यों में कारोबारियों को ऐसी अतार्किक मांगों और हिंसा का सामना नहीं करना पड़ता। देश के कई हिस्सों में कारोबार नियमित रूप से राजनेताओं को धन देते हैं लेकिन ऐसा 'जियो और जीने दो' की नीति के तहत किया जाता है। पश्चिम बंगाल में मामला तुरंत शत्रुता और हिंसा में बदल जाता है। पश्चिम बंगाल में कारोबारी जगत के साथ जो होता है उसे अतिरंजित माना जा सकता है लेकिन ऐसे कई तरीके हैं जिनकी मदद से राज्य दशकों से कारोबारियों से वसूली करता रहा है। सन 1950 के दशक से 1980 के दशक के मध्य तक सरकार सीधे तौर पर उद्योग संचालित करती थी और उत्पादक रोजगार तैयार करने वाले गंभीर उपक्रमों को किनारे कर दिया जाता था। होटल, विमानन और यहां तक कि ब्रेड बनाने तक में सरकारी क्षेत्र का विस्तार होता रहा और इसके पीछे दलील यह दी जाती रही कि भारतीय उद्योग जगत बड़े उपक्रम चलाने के लिए परिपक्व नहीं है। अच्छी तरह संचालित उपक्रमों का राष्ट्रीयकरण करना तो जबरन वसूली से भी बुरा था। यह विशुद्ध चोरी का मामला था। बीते वर्षों के दौरान हमने राजनेताओं को यह कहते सुना कि सरकार को कारोबार नहीं करना चाहिए। परंतु इस दिशा में बहुत धीमी प्रगति हुई है। इस बीच सरकार ने कारोबारियों से नकदी छीनने का एक और तरीका निकाल लिया। यह तरीका था अनिवार्य कारोबारी सामाजिक दायित्व (सीएसआर) पर अपने कर पश्चात लाभ का दो फीसदी व्यय करना। यह विधान सन 1970 के दशक की किसी 'समाजवादी' सरकार ने नहीं लागू किया था बल्कि इसे सन 2013 में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के दूसरे कार्यकाल की सरकार ने पेश किया था और नरेंद्र मोदी की तथाकथित दक्षिणपंथी सरकार ने इसे जारी रखा। कारोबारियों से वसूली का तीसरा तरीका है लालफीताशाही। राजीव बजाज ने कहा था कि अतिशय नियमन उद्योग जगत पर बहुत भारी पड़ रहा था। टाटा संस के चेयरमैन एन चंद्रशेखरन कह चुके हैं कि देश सूक्ष्म प्रबंधन और शंकाओं से भयग्रस्त है। आश्चर्य नहीं कि 'सांस्कृतिक संसाधन और कारोबारी यात्रा' के मामले में 140 देशों में आठवें स्थान पर होने के बावजूद विश्व आर्थिक मंच के एक अध्ययन में भारत पर्यटन सेवा बुनियादी ढांचे के मामले में 109वें स्थान पर रहा। भारत में एक रेस्तरां शुरू करने के लिए 15 लाइसेंस की आवश्यकता होती है जबकि सिंगापुर में चार और तुर्की में दो लाइसेंस से बात बन जाती है। सरकारी बाबुओं के लिए हर लाइसेंस पैसे कमाने का एक अवसर है। आखिर में, कर चुकाते समय या कोई बड़ी कानूनी लड़ाई हार जाने पर सरकार की वसूली की ताकत पर नजर डालिए। एक के बाद एक हमारी सरकारों ने अनुचित कर मांग की हैं, उन्हें अदालतों में हार का सामना करना पड़ा और फिर उन्होंने तत्काल कानून बदल दिया। कारोबारियों और नागरिकों को हमेशा हार का सामना करना पड़ा। बुनियादी परियोजनाओं में सब्सिडी और मध्यस्थता नतीजों को अक्सर रोक लिया जाता है जिससे नकदी का संकट होता है जो बाद में फंसे हुए कर्ज में बदल जाता है लेकिन किसी को जवाबदेह नहीं ठहराया जाता। जब नरेंद्र मोदी ने चुनावी रैली में एकत्रित हजारों युवाओं से पूछा था, 'आपको नौकरी चाहिए कि नहीं चाहिए', तब वह यकीनन उनसे सरकारी नौकरी का वादा नहीं कर रहे थे। छोटे रेस्तरां से लेकर बड़ी आईटी कंपनियों तक सरकार नहीं बल्कि कारोबारी नौकरियां देते हैं। फिर भी यह एक क्रूर विडंबना है कि उन्हें हर कदम पर सरकार की जबरन वसूली और क्रूरता का सामना करना पड़ता है। इसके बावजूद वे खामोश क्यों हैं? (लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक हैं)
