लैंगिक समानता के संबंध में भारत द्वारा निरंतर अपना प्रदर्शन कायम रखने के बावजूद इस क्षेत्र में वैधानिक लिहाज से इसका स्थान वर्ष 2022 में 190 देशों के बीच फिसलकर 124वें पायदान पर आ गया है, जबकि एक साल पहले यह 123वें पायदान पर था और वर्ष 2020 में 117वें स्थान पर। विश्व बैंक के एक अध्ययन में संकलित किए गए सूचकांक से यह जानकारी मिली है। वर्ष 2022 के अध्ययन- 'महिलाएं, व्यवसाय और कानून' में 2 अक्टूबर, 2020 से लेकर 1 अक्टूबर, 2021 तक की अवधि में कानूनी सुधारों को ध्यान में रखा गया है। इन तीन वर्षों में 100 में से 74.4 अंक रहने के बावजूद भारत का स्थान नीचे फिसल गया है। इसका मतलब यह है कि इस लैंगिक अंतर को पाटने में भारत के मुकाबले अन्य देशों ने ज्यादा तेजी से सुधार किया है। यह रैंकिंग आठ विषयों-आवागमन, कार्यस्थल, वेतन, विवाह, मातृत्व, उद्यमिता, परिसंपत्ति और पेंशन के संबंध में कानूनी सुधारों पर आधारित है। इन तीन साल में से हर साल भारत को 'वेतन' में सबसे कम 25 प्रतिशत अंक हासिल हुए, जिसके बाद 'मातृत्व' में 40 प्रतिशत स्तर रहा। इन तीनों साल में से हर साल 'उद्यमिता' और 'पेंशन' में इसके अंक 75 प्रतिशत रहे, जबकि 'परिसंपत्ति' में 80 प्रतिशत अंक थे। 'आवागमन', 'कार्यस्थल' और 'विवाह' में इसे 100 प्रतिशत अंक मिले। यह पूछने पर कि भारत की रैंकिंग में गिरावट क्यों आई, जबकि इन तीनों साल में इसके अंक समान रहे, इस अध्ययन में शामिल एक विशेषज्ञ ने कहा कि जहां एक ओर भारत ने इन सुधारों की शुरुआत किए जाने के बाद इनका अनुसरण नहीं किया, वहीं दूसरी ओर अन्य देशों ने, खास तौर पर पड़ोसी देशों ने सुधार किया है, जो उनके प्रदर्शन में नजर आता है। वर्ष 2020 में नेपाल भारत से पीछे था, लेकिन वर्ष 2021 और वर्ष 2022 में आगे निकल गया। इसने वर्ष 2022 की रिपोर्ट में अपनी स्थान एक पायदान सुधार कर 88वां कर लिया, जो वर्ष 2021 में 89वां था। इन तीनों वर्षों में भूटान, श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश भारत से पीछे थे। पिछले वर्ष की तुलना में वर्ष 2022 की रिपोर्ट में भूटान, श्रीलंका और पाकिस्तान भी अपनी स्थिति में एक-एक पायदान का सुधार करके क्रमश: 131वें, 147वें और 167वें स्थान पर आ गए। पिछले दो वर्षों में बांग्लादेश की रैंकिंग 174वें स्थान पर रही। यह पूछे जाने पर कि क्या भारत में स्त्री-पुरुष के लिहाज से समान वेतन लागू करने के लिए पर्याप्त कानून नहीं थे, एक अन्य विशेषज्ञ ने कहा कि स्त्री-पुरुषों केबीच वेतन में अंतर का कारण सामाजिक-आर्थिक से लेकर संरचनात्मक तक व्याप्त है। उन्होंने कहा 'यहां तक कि शिक्षित महिलाओं को भी उनके परिवारों द्वारा काम करने की अनुमति नहीं दी जाती है। जो महिलाएं कार्यबल में शामिल होती हैं, उन्हें अक्सर ही मातृत्व और बच्चे की देखभाल के लिए लंबा अवकाश लेने की जरूरत पड़ती है। इन सभी बातों की वजह से महिलाएं अपनी कमाई के मामले में पुरुषों से पिछड़ जाती हैं।' उन्होंने मॉन्स्टर इंडिया की उस रिपोर्ट का हवाला दिया, जिसमें कहा गया है कि भारत में पुरुषों ने औसत सकल प्रति घंटा 288.68 रुपये का वेतन पाया, जबकि महिलाओं को 207.85 रुपये मिला। उन्होंने कहा कि हमारे पास समान पारिश्रमिक अधिनियम होने के बावजूद ऐसा है। एसोसिएशन ऑफ बिजनेस वुमन इन कॉमर्स ऐंड इंडस्ट्री (एबीडब्ल्यूसीआई) के संस्थापक और महासचिव पारुल सोनी ने कहा कि भारत को उद्यमिता संकेतक के संबंध में और अधिक काम करने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि दुनिया भर में महिलाओं को उद्यमी बनने के लिए व्यावहारिक और विनियामकीय बाधाओं का सामना करना पड़ता है। वित्त तक पहुंच में बड़ी बाधा होती है, जिससे महिलाओं की अनुमानित रूप से 1.7 लाख करोड़ डॉलर की ऋण मांग अपूर्ण रह जाती है। उदाहरण के लिए ऋणदाताओं के स्त्री-पुरुष पूर्वग्रह की वजह से वियतनाम में पुरुषों के नेतृत्व वाली फर्मों के मुकाबले महिलाओं के नेतृत्व वाले उद्यमों में इस बात की आशंका 34 प्रतिशत ज्यादा होती है कि उन्हें ऋण देने से इनकार कर दिया जाएगा। सोनी ने कहा कि भारत को भी इसी तरह की दिक्कत का सामना करना पड़ता है। अलबत्ता कौशल प्रशिक्षण के साथ बैंक खातों तक पहुंच को जोड़कर वित्त पर महिलाओं का नियंत्रण बढऩे से रूढि़वादी सामाजिक मानदंडों को बदल सकता है और महिलाओं के कार्य में इजाफा कर सकता है। हमारे पास अब भी ऐसे कानूनी प्रावधान का अभाव है, जो ऋण तक पहुंच में लिंग-आधारित भेदभाव को साफ तौर पर प्रतिबंधित करता हो। 'मातृत्व' संकेतक गर्भावस्था के दौरान और इसके बाद महिलाओं के काम को प्रभावित करने वाले कानूनों को परखता है, जिसमें वेतन के साथ अवकाश और वे कानून शामिल हैं, जो फर्मों को इस वजह से श्रमिकों को बर्खास्त करने से रोकते हैं, क्योंकि वे गर्भवती हैं।
