सार्वजनिक-निजी भागीदारी में नई ऊर्जा फूंकने की जरूरत | बुनियादी ढांचा | | विनायक चटर्जी / April 08, 2022 | | | | |
सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी) एक बार फिर चर्चा में आ गई है। छोटी से लेकर कई बड़ी परियोजनाएं अब इस प्रारूप में क्रियान्वित हो रही हैं। अगले पांच वर्षों में सार्वजनिक-निजी भागीदारी प्रारूप के तहत 50 लाख करोड़ रुपये से अधिक मूल्य की परियोजनाएं क्रियान्वित होने की उम्मीद है। हाल के समय में ढांचागत क्षेत्र में निजी निवेश सालाना 2.5 लाख करोड़ रुपये के इर्द-गिर्द स्थिर रहा है। क्या ये नए लक्ष्य इस साझेदारी प्रारूप में महत्त्वपूर्ण सुधार किए बिना पूरे किए जा सकते हैं? निश्चित रूप से यह एक चुनौती होगी। अधिकांश भारतीय कंपनियां और वाणिज्यिक उधारी संस्थान नई सार्वजनिक-निजी परियोजनाओं में निवेश को लेकर चिंतित नजर आ रहे हैं जबकि विदेशी निवेशक पुरानी परिसंपत्तियों के परिचालन पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। सार्वजनिक-निजी भागीदारी के तहत परियोजनाओं को मिली बोलियां भी बहुत विश्वास नहीं जगा पा रही हैं।
रेलवे ने हाल में ही यात्री गाड़ी परिचालनों के लिए बोलियां आमंत्रित की थीं। शुरू में तो 103 पक्षों ने रुचि दिखाई थी मगर जब उन्हें बोली शर्तों की जानकारी मिली तो वे पीछे हट गए। अंत में अगस्त 2021 में केवल दो कंपनियां आगे आईं। फीकी प्रतिक्रिया को देखते हुए यह निविदा रद्द कर दी गई। फरवरी 2022 में सरकार नियंत्रित भारत ब्रॉडबैंड निगम लिमिटेड ने 19,000 करोड़ रुपये की निविदा जारी करने के बाद योग्य बोलीदाताओं की कमी की वजह से इसे रद्द कर दिया। देश के 16 राज्यों में गांवों को तीव्र गति वाले फाइबर आधारित ब्रॉडबैंड नेटवर्क से जोडऩे के लिए यह निविदा जारी की गई थी। निर्माण-परिचालन-हस्तांतरण (बीओटी) की हिस्सेदारी सड़क निवेश में 2013 के 85 प्रतिशत से कम होकर 2020 में लगभग शून्य रह गई।
पीपीपी प्रारूप को पूरी तरह दुरुस्त कर पाना कभी आसान नहीं रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी यही अनुभव है। पीपीपी संस्थानों में नई जान फूंकने की आवश्यकता सभी ने मानी है मगर इस दिशा में अब तक कोई गंभीर कदम नहीं उठाया गया है। मगर भारत के संदर्भ में हमें यह बात स्वीकार करनी होगी कि दूरसंचार, बंदरगाह, हवाईअड्डा, बिजली पारेषण और अक्षय ऊर्जा क्षेत्रों में पीपीपी ढांचे ने शानदार प्रदर्शन किया है। इस सरकार ने सबसे पहले जुलाई 2014 के बजट में पीपीपी प्रारूप दुरुस्त करने पर जोर दिया था। तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने '3पी इंडिया' के नाम से एक संस्थान स्थापित करने का प्रस्ताव दिया था और इसके लिए 500 करोड़ रुपये आवंटित भी किए। इसके बाद 26 मई, 2015 को राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) ने पूर्व वित्त सचिव विजय केलकर के नेतृत्व में एक नौ सदस्यीय समिति का गठन किया था। इस समिति ने 19 नवंबर, 2015 को 'रिविजिटिंग ऐंड रिवाइटलाइजिंग पीपीपी मॉडल ऑफ इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट' रिपोर्ट सौंप दी। समिति ने '3पी' इंडिया स्थापित करने की पुरजोर सिफारिश की थी। समिति ने कहा कि '3पी इंडिया' एक श्रेष्ठता केंद्र के रूप में काम करने के अलावा क्षमता निर्माण के लिए शोध, समीक्षा एवं गतिविधियों को बढ़ावा देगा। पीपीपी के लिए प्रशासनिक क्षमता विकसित करने की जरूरत को ध्यान में रखते दुनिया के विभिन्न देशों में कई इकाइयां सृजित की गई हैं।
उदाहरण के लिए नाइजीरिया में कन्सेशंस रेग्युलेटरी कमीशन, घाना में पीपीपी एडवाइजरी यूनिट, फिलिपींस में पीपीपी सेंटर और दक्षिण अफ्रीका में पीपीपी यूनिट का गठन हुआ है। अक्टूबर 2015 में ब्रिटेन में नैशनल इन्फ्रास्ट्रक्चर कमीशन से भारत कुछ सीख ले सकता है। ब्रिटेन में वित्त मंत्रालय के तहत आने वाली यह इकाई दीर्घ अवधि की ढांचागत प्राथमिकताओं पर केंद्रित है और ढांचागत क्षेत्र की चुनौतियों एवं रणनीति पर सरकार को सलाह देती है। इसका एक सचिवालय भी है जिसमें करीब 50 कर्मचारी एक मुख्य कार्याधिकारी के तहत काम करते हैं। पीपीपी संरचनाओं में दो नई पहल तो बिल्कुल की जा सकती है। इनमें पहला 'प्लग ऐंड प्ले' (परियोजना शुरू करने से पहले आवश्यक ढांचा दुरुस्त रखना)।
इस पहल के तहत 100 प्रतिशत सरकार नियंत्रित विशेष इकाई की स्थापना कर विकास से जुड़े जोखिम कम किए जा सकते हैं। इससे पीपीपी परियोजना शुरू करना आसान हो जाता है। यह विशेष उद्देश्य इकाई अधिग्रहण और सभी प्रकार की मंजूरी प्राप्त करने और संयोजन करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। बाद में एसपीवी की हिस्सेदारी सबसे अधिक ऊंची बोली लगाने वाले निजी बोलीदाता को बेच दी जाती है। परियोजना जोखिम मुक्त हो जाने से सरकार को लाभ होता है। दूसरी पहल है 'लीस्ट प्रजेंट वैल्यू मेथड' (एलपीवीएम)। एलपीवीएम से आशय है कि कन्सेशन के लिए समय अवधि खुली एवं लचीली रखी जाती है। इस विधि में राजस्व में हिस्सेदारी के लिए सबसे कम बोली लगाने वाले कन्सेशनायर को वर्तमान मूल्य के आधार पर अपना लक्ष्य हासिल करने में मदद मिलती है।
यह एक ही झटके में दीर्घ अवधि के पीपीपी अनुबंधों से राजस्व संबंधी जोखिम को दूर कर देता है। इनके अलावा ढांचागत क्षेत्र के विकासकर्ता लंबे समय से क्रेडिट रेटिंग सिस्टम की मांग करते आ रहे हैं। इसके लिए स्थापित 'चूक की आशंका' से 'अनुमानित घाटा' दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है। यद्यपि 'अनुमानित घाटा' दृष्टिकोण की शुरुआत चार वर्ष पहले शुरू हुई थी मगर काफी कम परियोजनाओं को इस आधार पर रेटिंग दी गई है। ऌफरवरी में अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने क्षमता निर्माण उपायों पर जोर दिया था।
ऐसा समझा जाता है कि वित्त मंत्रालय में आर्थिक मामलों का विभाग पीपीपी के लिए क्षमता निर्माण के लिए एक नए दृष्टिकोण को अंतिम रूप दे रहा है। यह एक पेचीदा लक्ष्य है और यह उम्मीद की जा सकती है कि कुछ अन्य चुनौतीपूर्ण पहलुओं पर भी ध्यान दिया जाएगा। जब तक पीपीपी माध्यम को सफल नहीं बनाया जाएगा तब तक ढांचागत निवेश और इसके परिणामस्वरूप आर्थिक वृद्धि की राह अनिश्चित रहेगी।
(लेखक ढांचागत क्षेत्र के जानकार हैं।)
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