नोएडा में रहने वाले 37 साल के शन्नी विक्रम 2021 में उच्च रक्तचाप से पीडि़त थे। महामारी की दूसरी लहर शुरू होने के साथ ही इसके प्रसार को नियंत्रित करने के लिए लॉकडाउन लगाया गया था, ऐसे में विक्रम डॉक्टर से नियमित परामर्श लेने में असमर्थ थे। उन्हें कोविड होने का डर भी था क्योंकि उनकी पत्नी गर्भवती थीं। लगभग एक साल, दो लॉकडाउन गुजरने और अनगिनत प्रयासों के बाद वह अपोलो में अपने डॉक्टर से मिल पाए। विक्रम ने कहा, 'महामारी की दूसरी लहर से पहले, मुझे अहसास हुआ कि मेरा रक्तचाप बढ़ गया है। मैंने डॉक्टर से मुलाकात की। उच्च रक्तचाप की आशंका जताते हुए उन्होंने मुझे तीन महीने के लिए अपने बीपी रीडिंग का एक चार्ट बनाने और फिर उनसे मिलने के लिए कहा। तभी कोरोनावायरस की दूसरी लहर शुरू हो गई। कोरोनावायरस लहर की तमाम अव्यवस्थाओं के बीच एक रिश्तेदार बीमार पड़ गए। पत्नी भी गर्भवती थीं। मैंने चार्ट देखना बंद कर दिया। मैंने आखिरकार चार्ट बनाया और इस मार्च में डॉक्टर से मुलाकात की। लेकिन मेरे इलाज में एक साल की देरी हो गई।' विक्रम अकेले ऐसे व्यक्ति नहीं हैं जिन्हें इस तरह की त्रासदी से गुजरना पड़ा है। दुनिया कोरोनोवायरस से लड़ रही थी और इसने अपने अधिकांश संसाधनों को इसमें लगा दिया है। महामारी के लिए विशेष बजट बनाया गया और इसकी फंडिंग की गई। इसके बाद नीतियों को प्रभावी बनाने की कोशिश की गई। हालांकि इसकी सफलता संदिग्ध है, ऐसे में कोविड प्राथमिकता की दौड़ में अन्य बीमारियों को पीछे छोडऩे में कामयाब रहा। विक्रम का इलाज कर रहे अपोलो अस्पताल में इंटरनल मेडिसन के वरिष्ठ डॉक्टर डॉ सुरनजीत चटर्जी ने कहा, 'कोविड के डर के कारण, लोगों ने अस्पताल आना बंद कर दिया जब तक कि कोई गंभीर रूप से बीमार नहीं हो गया। यहां तक कि अन्य बीमारियों के लिए आपातकालीन सेवाएं भी बंद कर दी गई थीं।' उन्होंने कहा, 'जीवन शैली से जुड़ी बीमारियों वाले लोग सबसे (उच्च बीपी, कॉलेस्ट्रॉल, मधुमेह, अस्थमा) अधिक प्रभावित हुए। इन बीमारियों से ग्रस्त लोग महामारी से पहले की दवा ही चलाते रहे या फिर उन्होंने उन दवाओं को बंद कर दिया।' मिसाल के तौर पर इस नमूने को देखें। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत तपेदिक के लिए डीओटी कार्यक्रम के तहत लोगों के घर तक पहुंचने की कोशिश की जाती है और वॉलंटियर यह सुनिश्चित करने की कोशिश करता है कि मरीज समय पर दवा लें। काउंसलिंग भी इसी योजना का एक हिस्सा है। स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय केंद्र की एक अप्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, झारखंड में 62 फीसदी, कर्नाटक में 42.9 फीसदी और मध्य प्रदेश में केवल 18.6 फीसदी परामर्श सेवा ली गई। इसके अलावा, टीबी रोगियों को इस कार्यक्रम के तहत मौद्रिक आवंटन होता है जहां उन्हें अतिरिक्त पौष्टिक खुराक के लिए मासिक आधार पर 500 रुपये मिलते हैं। झारखंड में केवल 32.4 फीसदी, मध्य प्रदेश में 14 फीसदी और कर्नाटक में 7 फीसदी लोगों को मासिक भत्ता मिला। पुरानी बीमारी के इलाज का एक और महत्त्वपूर्ण पहलू दवा का सेवन है। रिपोर्ट के मुताबिक, स्वास्थ्य केंद्रों से दवाएं खरीदते समय लोगों को दिक्कतों का सामना करना पड़ा। जिसकी पहली वजह यह थी कि इन केंद्रों पर स्वास्थ्यकर्मियों को कोविड के कारण अतिरिक्त काम दे दिया गया और दूसरी कि उनमें से अधिकांश लॉकडाउन के कारण स्वास्थ्य केंद्रों तक नहीं पहुंच पाए। स्वास्थ्य और सामाजिक न्याय केंद्र की कार्यक्रम निदेशक संध्या गौतम ने कहा, 'टीबी कार्यक्रम की सफलता को समुदाय आधारित हस्तक्षेप के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है जहां स्वास्थ्य कार्यकर्ता यह सुनिश्चित करते हैं कि रोगी अपनी दवाएं ले रहे हैं। कोविड और आगामी आपूर्ति के मुद्दों के कारण, जो दवाएं आसपास के केंद्रों पर उपलब्ध होनी चाहिए थीं वे नहीं थीं। कुछ स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने यह भी कहा कि वे मरीजों के साथ अपना संपर्क बरकरार नहीं रख पाए क्योंकि कोविड के कारण उन पर ज्यादा बोझ था।' ऊपर जिक्र किए गए तीन राज्यों में, उच्च रक्तचाप वाले लगभग 21 फीसदी मरीज, मधुमेह वाले 25 फीसदी और टीबी वाले करीब 16 फीसदी मरीज अपनी नियमित स्वास्थ्य दवाएं लेने में असमर्थ थे। सभी पुरानी बीमारियों में लगभग 10 फीसदी लोग स्वास्थ्य प्रदाता से संपर्क नहीं कर सकते थे और उच्च रक्तचाप वाले 20 फीसदी, मधुमेह के 14 फीसदी मरीज और 13.8 फीसदी टीबी मरीज स्वास्थ्य केंद्रों में नहीं गए थे। गर्भनिरोधक, परिवार नियोजन और एचआईवी इलाज भी इन्हीं परिस्थितियों की वजह से संभव नहीं हुआ। जवाब देने वाले लगभग 23 फीसदी लोगों ने बताया कि उन्हें दवाएं नहीं मिल पा रही हैं। ऐसे में उनमें से काफी लोगों ने निजी क्षेत्र की ओर रुख किया। करीब 34 फीसदी लोगों ने निजी क्षेत्र से गर्भनिरोधक खरीदे। महामारी के दौरान एचआईवी का पता लगाने की प्रक्रिया भी रुक सी गई। दिल्ली राज्य एड्स नियंत्रण सोसाइटी के आंकड़ों के अनुसारए पिछले दो वर्षों में राष्ट्रीय राजधानी में एचआईवी के कुछ मामले सामने आए और यह 2020 में 3,629 और 2021 में लगभग 4,500 मामले थे। यह अधिकारियों के लिए चिंता का विषय था क्योंकि महामारी से पहले हर साल लगभग 6,000 नए मामलों का पता चलता था। मातृत्व और बच्चों के देखभाल से जुड़े लाभ, देश में स्वास्थ्य सेवा बुनियादी ढांचे का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा हैं। एनएचएम के तहत, प्रत्येक गांव में हर महीने ग्राम स्वास्थ्य स्वच्छता दिवस (वीएचएसएनडी) नाम का एक विशेष स्वास्थ्य दिवस मनाया जाता है। वीएचएसएनडी, व्यापक स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान कराने वाली, ग्रामीण स्तर पर एक निश्चित दिन की सेवा है। इसके तहत यह सुनिश्चित कराया जाता है कि लोगों को एनएचएम के तहत मातृत्व और बाल स्वास्थ्य से जुड़ी अनिवार्य सेवाएं मिलें। सेंटर फॉर हेल्थ ऐंड सोशल जस्टिस की रिपोर्ट के अनुसार, वीएचएसएनडी को पूरी तरह से बंद कर दिया गया था। आशाकर्मियों को लॉकडाउन के दौरान 2-3 महीने के लिए सेवाएं बंद करने के लिए कहा गया था। झारखंड में 45 फीसदी, मध्य प्रदेश में 62.4 फीसदी और कर्नाटक में 8 फीसदी लोगों ने बताया कि लॉकडाउन के दौरान बच्चों का टीकाकरण पूरी तरह बंद हो गया था। लॉकडाउन खत्म होने के बाद भी कार्यक्रम ने रफ्तार नहीं पकड़ी। झारखंड में एक आशा कार्यकर्ता ने बताया, 'इसे फिर से शुरू किया जा सकता था लेकिन उप-केंद्र स्तर पर ऐसा जुलाई में ही संभव हो पाया था। उपकेंद्र गांवों से बहुत दूर हैं ऐसे में लोग शायद ही जा पाए। इसके अलावा, गर्भवती महिलाएं वायरस के संक्रमण से भी डरती थीं। यह स्थिति ग्रामीण क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं थी।' एक डॉक्टर ने बताया, 'दूसरी लहर के बाद कई बच्चे खांसी की समस्या के साथ मेरे पास आए। ऐसा लगा किटीबी का फिर से उभार शुरू हो गया और हमें लगता है कि अगर वे पहले आ गए होते और इसका पता पहले ही लगता तो इलाज शुरू किया जा सकता था। महामारी के दौरान कैंसर के इलाज में भी देरी हुई। महामारी ने गैर-जवाबदेही की समस्या बढ़ा दी है जो अभी बनी रहेगी। दैनिक स्वास्थ्य सेवाओं में समस्याएं उनमें से एक हैं और हम इससे ग्रस्त हैं। वित्त वर्ष 2023 के बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र पर सरकार का कम ध्यान होने की वजह से भी हमारे मकसद को मदद नहीं मिलती है ।' उन्होंने कहा, 'मुझे लॉकडाउन के दौरान सांस लेने में तकलीफ का अनुभव हुआ। मैं सरकारी अस्पताल गया जहां किसी ने मेरी हालत नहीं देखी। मैं पास के एक डॉक्टर के पास गया जिसने मुझे एक इंजेक्शन दिया और मुझे ड्रिप भी दिया गया। मुझे हर बार जाने पर 500 रुपये खर्च करने पड़े। मैं उसके पास 10 बार गया और इसकी लागत 5,000 रुपये पड़ी। मैं जितना दे सकता था यह रकम उससे कहीं अधिक है। लेकिन मेरे पास कोई विकल्प नहीं था।'
