भ्रष्टाचार रोकने के लिए चौकीदार नहीं थानेदार | देवाशिष बसु / April 01, 2022 | | | | |
डीएचएफएल में भारी नुकसान उठाने वाले निवेशकों ने सोचा था कि इस दिवालिया वित्तीय कंपनी के प्रवर्तक कपिल और धीरज वधावन तलोजा जेल में बंद होंगे। लेकिन अब खुलासा हुआ है कि वे नींद में दिक्कत जैसी मामूली अस्वस्थता को लेकर पिछले 15 महीनों से कोकिलाबेन धीरूभाई अंबानी अस्पताल में आराम से जमे हुए हैं। वधावन धन शोधन रोकथाम अधिनियम (पीएमएलए) के तहत हिरासत में थे। उन पर हजारों फर्जी खाते खोलने और फर्जी ऋण देने (कुख्यात बांद्रा खाते) और 40,000 करोड़ रुपये के घाटे जैसे आपराधिक कार्य करने का आरोप है।
उन्होंने ऐसा पहली बार नहीं किया है। दो साल पहले अप्रैल 2020 में महामारी के दौरान सख्त लॉकडाउन के दौरान वधावन परिवार के 23 सदस्यों को प्रतिबंधों के उल्लंघन और मौज-मस्ती के लिए मुंबई से महाबलेश्वर जाने की मंजूरी दी गई थी। उस समय सीबीआई ने कहा था कि वे 'भाग गए' हैं। जब पूरा महाराष्ट्र बंद था तो वे कैसे अपनी गाडिय़ां लेकर महाबलेश्वर पहुंच गए? गृह विभाग के प्रधान सचिव (विशेष) अमिताभ गुप्ता ने उन्हें मंजूरी के लिए अपने लेटरहेड पर एक पत्र जारी किया था। जब यह खबर बाहर आ गई तो राज्य के तत्कालीन गृह मंत्री अनिल देशमुख ने जांच के आदेश दिए और गुप्ता के खिलाफ कड़ी कार्रवाई का वादा किया। गुप्ता ने 'मानवीय आधार' पर मंजूरी देने का दावा किया था। यह 'सख्त' कार्रवाई क्या थी? उन्हें जांच में बरी कर दिया गया और पांच महीने बाद पदोन्नत कर पुणे का पुलिस प्रमुख बना दिया गया। शायद वधावन मामले को देख रहे हर व्यक्ति को भी इनाम मिलना बाकी है, जिन्होंने उन्हें 15 महीने अस्पताल में रहने (एक निजी अस्पताल में नौ महीने) की मंजूरी दी है।
एक अन्य और ज्यादा बड़े इन्फ्रास्ट्रक्चर लीजिंग ऐंड फाइनैंशियल सर्विसेज (आईएलऐंडएफएस) के मामले में पूर्व चयरमैन रवि पार्थसारथि खुले घूम रहे हैं। आईएलऐंडएफएस करीब एक लाख करोड़ रुपये के कर्ज के साथ दिवालिया हो गई थी। पार्थसारथि को गिरफ्तार किया गया लेकिन केवल इसलिए क्योंकि तमिलनाडु पुलिस ने एक निजी कंपनी की शिकायत पर कार्रवाई की थी। हालांकि उन्हें जमानत मिल गई। लेकिन उनके कार्याधिकारियों के उस समूह के सदस्यों को नहीं मिली, जिन्होंने पार्थसारथि को आईएलऐंडएफएस को चलाने में 25 साल मदद दी थी। उनके सहयोगी कई साल से जेल में हैं, लेकिन वह खुले घूम रहे हैं। शायद इसलिए कि भारतीय प्रशासनिक सेवा के जिन अधिकारियों ने आईएलऐंडएफएस के साथ जुड़ाव का लाभ उठाया था, वे अब उसके बदले में मदद दे रहे हैं।
कुछ सप्ताह पहले ही केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) ने नैशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) की पूर्व प्रबंध निदेशक और उनके सहकर्मी-पूर्व समूह परिचालन अधिकारी आनंद सुब्रमण्यन को गिरफ्तार किया है। अगर सीबीआई वास्तव में एनएसई में एल्गो घोटाले की जांच करना चाहती है तो वास्तविक लाभार्थियों, घोटाले में मदद देने वाले लोगों और एक उचित जांच को पटरी से उतारने वाले व्यक्तियों को जवाबदेह बनाया जाए। क्या डीएचएफएल और आईएलऐंडएफएस की तरह एनएसई घोटाले की बड़ी मछलियों को लेकर भी नरमी दिखाई जाएगी? लगातार अकुशलता और भ्रष्टाचार का चौथा उदाहरण सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक (पीएसबी) हैं। दिवालिया समाधान प्रक्रिया से प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि पीएसबी को कितने खराब ढंग से चलाया जा रहा है। समाधान के लिए स्वीकृत मामलों में से करीब एक तिहाई का परिसमापन हुआ है और इनमें वसूली की दर महज 5 फीसदी है। अगर शीर्ष 15 मामलों (समाधान मूल्य के लिहाज से) को छोड़ दें तो वसूली की दर महज 18 फीसदी है। पीएसबी को 90 फीसदी से ज्यादा बकाया छोडऩा पड़ा है। यह इस मुद्दे की तरफ संकेत है कि कोई भी सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में भ्रष्टाचार के खिलाफ काम नहीं करना चाहता है, जिसे बड़े सहज तरीके से 'जांच-पड़ताल में खामी' करार दे दिया जाता है।
एक आम आदमी बैंक के हित पूरे हुए बिना एक रुपया उधार नहीं ले सकता है। ऐसे में हजारों कंपनियां ऐसा करने में कैसे कामयाब रहीं? बैंक अधिकारियों को उधार देते समय नहीं पता होता कि कोई उद्यम सफल होगा या असफल और कर्ज लेने वाला ईमानदार है या जालसाज। इसलिए वे अपने ऋण को सुरक्षित करने के लिए पर्याप्त संपत्ति गिरवी और व्यक्तिगत गारंटी की मांग करते हैं। जब ब्याज और मूलधन को लौटाने में देरी होती है तो वे निर्धारित प्रक्रिया को अपना सकते हैं और गिरवी संपत्ति को बेच सकते हैं। वे कर्जदारों से भी व्यक्तिगत गारंटी के मुताबिक भुगतान करने की मांग कर सकते हैं। ऐसा छोटे कर्जदारों के साथ नियमित रूप से होता है। ऐसे में इतने अधिक मामलों में वसूली केवल 5 फीसदी और कुछ कुख्यात मामलों में महज 1-2 फीसदी ही क्यों हैं? फंसे ऋणों का एक सबसे बड़ा कारण-भ्रष्ट बैंक अधिकारियों और कारोबारियों का गठजोड़ है और कुछ मामलों में उनकी नकेल राजनेताओं के पास है। लेकिन मुश्किल से ही किसी बैंक अधिकारी को जेल में डाला गया है।
भाजपा के सत्ता में आने से पहले 2014 में हर भाषण में नरेंद्र मोदी पिछली सरकार को भ्रष्ट बताते थे। उन्होंने भ्रष्टाचार कम करने और 'सुशासन' लाने के लिए चौकीदार के रूप में काम करने का वादा किया था। क्या यह नारा काम कर रहा है? बहुत ज्यादा नहीं। शायद इसकी वजह यह है कि उन्होंने गलत रूपक चुना। चौकीदार के रूप में भ्रष्टाचार को रोकना केवल काबिलियत आधारित व्यवस्था लागू करने पर ही संभव है, जिसमें कुशलता एवं ईमानदारी को पुरस्कृत किया जाता है। यह अत्यधिक मुश्किल और लंबी अवधि की प्रक्रिया है। मुझे यकीन नहीं है कि अगर मोदी चाहें भी तो एक चौकीदार के रूप में काम कर सकते हैं। लेकिन वह भ्रष्टाचार के मामलों का खुलासा होने के बाद उनका त्वरित समाधान सुनिश्चित करके निश्चित रूप से थानेदार के रूप में काम कर सकते हैं। यह काबिलेतारीफ काम आसान है और इससे उनकी भ्रष्टाचार विरोधी छवि की चमक बढ़ेगी।
घोटाले, कदाचार आदि नियमित रूप से इसलिए घटित होते हैं क्योंकि पकड़े जाने की कीमत बहुत मामूली है। इसके बावजूद हम दंड, जुर्मानों, नौकरी से निकालने, मिसाल कायम करने वाले नुकसान और व्यक्तिगत जिम्मेदारी जैसे उपायों पर ध्यान नहीं देते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि पूरी दुनिया में यही स्थिति है। हालांकि आम तौर पर कहा जाता है कि 'अपराध से कुछ नहीं मिलता है और 'उनकी कीमत चुकानी पड़ती है।' एक दार्शनिक नसी तालेब कहते हैं कि हालांकि आर्थिक साहित्य बढ़ावे के रूप में प्रोत्साहन पर ध्यान देता है, लेकिन यह उन हतोत्साह या जुर्मानों पर ध्यान नहीं देता है, जिनसे व्यवस्था को नुकसान पहुंचाने वाले अयोग्य और कुटिल खत्म होंगे। इस हतोत्साह को अब फैशन में 'संलिप्तता' कहा जाता है। आप जितने चाहो, उतने चौकीदार रख सकते हैं। लेकिन अगर आपके पास एक थानेदार (हालांकि तलोजा जेल जैसे नहीं) है, जो घोटालेबाजों और उनके सहयोगियों को दंडित कर सकता है तो वास्तविक अंतर नजर आएगा। क्या मोदी ऐसे लोगों के द्वारा कीमत चुकाए की व्यवस्था लागू करने की दिशा में कदम बढ़ाएंगे? इससे हमें पता चलेगा कि वह भ्रष्टाचार के मुद्दे के समाधान को लेकर गंभीर हैं या नहीं।
(लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक हैं )
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