बंटी हुई दुनिया में | साप्ताहिक मंथन | | टी. एन. नाइनन / April 01, 2022 | | | | |
इतिहासकार अर्नोल्ड टॉयनबी को यंू ही पढ़ते हुए दो उद्धरण ऐसे मिले जो मौजूदा घटनाक्रम पर एकदम सटीक बैठते हैं। पहला यह है कि सभ्यताओं का अंत आत्महत्या से होता है, हत्या से नहीं। क्या रूस इस समय ऐसा ही कुछ कर रहा है? उसने यूक्रेन पर हमला किया और अब पश्चिमी देशों का गठजोड़ उसे हाशिये पर धकेल रहा है। उसके विरुद्ध असाधारण भू आर्थिक कदम उठाए जा रहे हैं। दोनों मसले संबद्ध हैं लेकिन उन्हें अलग-अलग देखना होगा: सैन्य दृष्टि से रूसी सेनाएं अब एक चौथाई यूक्रेन पर काबिज हैं और रूस यूक्रेन को निष्क्रिय करने तथा उसके कुछ भूभाग को हथियाने की दृष्टि से अच्छी स्थिति में है। सही या गलत लेकिन रूस के राष्ट्रपति व्लादीमिर पुतिन इस विषय में अब तक गंभीर नहीं दिख रहे। इससे संकेत मिलता है कि सैन्य हालात को लेकर उनका सोच पश्चिमी विश्लेषकों जैसा नहीं है।
रूस के लिए ज्यादा गंभीर है भू-आर्थिक दृष्टि से अलग-थलग पडऩा। पश्चिमी प्रतिबंधों के कारण ऐसी स्थिति बनी है और शायद यूक्रेन के साथ समझौता हो जाने पर भी हालात बदलें नहीं। दूसरे शब्दों में पश्चिम का इरादा रूस की सामरिक चुनौती को हमेशा के लिए कमजोर करने का हो सकता है। ऐसा उसके तेल एवं गैस के यूरोपीय बाजारों को छीनकर किया जा सकता है। ध्यान रहे एक दफा एक अमेरिकी सीनेटर ने रूस को खारिज करते हुए कहा था, 'वह एक गैस स्टेशन है जो देश होने का स्वांग रच रहा है!' रूस को चीन और भारत जैसे अन्य ग्राहक मिल सकते हैं जो रियायती दर पर तेल खरीदें लेकिन उसको कीमत तो चुकानी होगी। पुतिन विरोध कर रहे हैं और उनका कहना है कि ये प्रतिबंध युद्ध की घोषणा हैं लेकिन उन्होंने भी काकेशस क्षेत्र (कालासागर और कैस्पियन सागर के बीच का इलाका) में छोटे देशों के खिलाफ यही रणनीति लागू की। रॉबर्ट ब्लैकविल और जेनिफर हैरिस ने 2016 की अपनी पुस्तक 'वॉर बाई अदर मीन्स: जियोइकनॉमिक्स ऐंड स्टेट्सक्राफ्ट 'में इसका ब्योरा दिया है। इन लेखकों का यह भी कहना है कि वित्तीय प्रतिबंध, व्यापारिक प्रतिबंधों की तुलना में अधिक कारगर होते हैं। यह सही है कि रूबल ने वापसी कर ली है लेकिन ऐसा 20 फीसदी की ब्याज दर पर हुआ जो निहायत अधिक है। रूस के इस संकट से उबरने का एक ही तरीका है: एक छोटी अर्थव्यवस्था और एक कमजोर ताकत के रूप में।
यहां टॉयनबी का दूसरा उद्धरण सामने आता है। सन 1952 के रीथ व्याख्यान में उन्होंने कहा था कि पश्चिम ने गैर यूरोपीय देशों के खिलाफ 'अक्षम्य आक्रामकता' दिखाई है। पश्चिमी देशों की स्मृति बहुत सुविधाजनक है लेकिन आक्रामकता के शिकार देशों के साथ ऐसा नहीं है। यही कारण है कि उनमें से कई देशों ने पश्चिम की उच्च नैतिकता की अपेक्षा प्रतिरोध किया। भारत भी उनमें शामिल है। खासतौर पर इसलिए कि भारत द्वारा रूस से आयात किए जाने वाले तेल और यूरोपीय देशों द्वारा आयात किए जाने वाले ऐसे ही तेल में अंतर करने को लेकर। अमेरिका को यह समझने में दिक्कत हो रही है कि दुनिया को देखने का भारत का नजरिया अमेरिका से अलग है। वैसे ही जैसे जर्मनी का एक अलग नजरिया है। एक अन्य ब्रिटिश इतिहासकार इयान मॉरिस ने एक दशक पहले 'व्हाय द वेस्ट रूल्स-फॉर नाऊ' में लिखा था कि पश्चिमी देश सन 1900 की तुलना में 2000 में कम प्रभावी थे। शक्ति में यह कमी जारी रहेगी क्योंकि चीन का उभार हो रहा है। दुनिया के बहुध्रुवीय होने की बहुत अधिक संभावना है। भू आर्थिक मामलों को बतौर हथियार इस्तेमाल करने से केवल पश्चिम आधारित संस्थानों मसलन स्विफ्ट (सोसाइटी फॉर वल्र्डवाइड इंटरबैंक फाइनैंशियल टेलीकम्युनिकेशन) के विकल्प तैयार करने की गति बढ़ेगी। इसके साथ ही जैसा कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रथम उप प्रबंध निदेशक ने कहा भी डॉलर की सर्वोच्चता को भी चुनौती मिलेगी।
आज पश्चिम को यह लग रहा होगा कि उदार लोकतांत्रिक देशों ने अपनी सामूहिक शक्ति का प्रदर्शन किया है। यह सही है लेकिन मार्टिन वोल्फ द्वारा मार्च के मध्य में फाइनैंशियल टाइम्स में लिखी बात को याद रखें। उन्होंने कहा था कि मुद्रास्फीतिजनित मंदी अवश्यंभावी लग रही है। दीर्घावधि में बहुत संभव है कि भारी विभाजन वाले दो ब्लॉक नजर आएं। मसलन वैश्वीकरण के अंत में तेजी और भूराजनीतिक के लिए कारोबारी हितों का त्याग। इसमें उत्साहित होने वाली कोई बात नहीं है। चंूकि भारत ऊर्जा और सैन्य हथियारों/उपकरणों के लिए बाहरी देशों पर निर्भर है इसलिए उसके सामने सवाल यह होगा कि कैसे पुरानी दोस्तियों को, नयी दोस्तियों के आड़े न आने दिया जाए।
|