वैश्विक नकारात्मक घटनाओं ने भारतीय कंपनियों की संभावनाओं को भी प्रभावित किया है। यूक्रेन युद्ध के कारण ईंधन कीमतों में इजाफा हुआ है। इसके अलावा धातुओं, कागज, उर्वरक तथा गेहूं के दाम भी बढ़े हैं क्योंकि रूस और यूक्रेन इन जिंंसों के प्रमुख उत्पादक हैं। इसका अर्थ यह भी है कि नियॉन के अभाव के कारण नये सिरे से सेमीकंडक्टर की कमी का सामना करना पड़ सकता है। बढ़ता ईंधन बिल तथा आपूर्ति क्षेत्र की दिक्कतों के कारण पहले से चले आ रहे मुद्रास्फीतिक दबाव में और इजाफा होगा। दिसंबर तिमाही के कारोबारी नतीजों से संकेत मिलता है कि मुद्रास्फीति मुनाफा मार्जिन पर असर डाल रही है और मार्जिन पर और अधिक दबाव पड़ सकता है। ऊर्जा आयात बिल के कारण चालू खाते का घाटा बढ़ेगा और विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों की बिकवाली के कारण रुपये पर दबाव बढ़ सकता है। वित्त वर्ष 2021-22 में इन निवेशकों ने 1.4 लाख करोड़ रुपये मूल्य के शेयर बेचे जबकि जनवरी 2022 से अब तक वे 1.1 लाख करोड़ रुपये की हिस्सेदारी बेच चुके हैं। कह सकते हैं कि विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक उभरते बाजारों में अपना जोखिम और कम कर रहे हैं। ऐसा इसलिए कि अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व ने संकेत दिया है कि वह मुद्रास्फीति का मुकाबला करने के लिए दरों में इजाफा कर सकता है। हर बड़ा केंद्रीय बैंक उसका अनुसरण कर सकता है और भारतीय रिजर्व बैंक को भी जल्दी समायोजन करना पड़ सकता है। इस बीच भारतीय शेयर बाजारों का मूल्यांकन काफी ऊंचा है। इसकी वजह यह है कि घरेलू खरीदारी मजबूत बनी रही। यह मजबूती इसलिए आई कि माना जा रहा था कि आर्थिक हालात सामान्य हो रहे हैं और वास्तविक ब्याज दरें भी नकारात्मक हैं। कई क्षेत्रों में गतिविधियां 2019-20 के कोविड पूर्व के स्तर पर आ चुकी हैं या उनमें सुधार हुआ है। लेकिन जिंस क्षेत्रों (ईंधन, धातु तथा कृषि कारोबार) के अलावा बड़े पैमाने पर भारतीय निगमों ने चेतावनी भी जारी की है जिसमें उच्च व्यय और कमजोर मांग की आशंका जतायी गई है। बैंक ऋण में भी इतना इजाफा नहीं हुआ है जिससे खपत में सुधार का भरोसा पैदा हो या निजी क्षेत्र का निवेश सुधरता दिखे। बैंकों ने तीसरी तिमाही में प्रॉविजनिंग में भी इजाफा किया है। इससे यह संकेत निकल सकता है कि फंसे हुए कर्ज पुन: बढ़ सकते हैं। कमजोर निजी खपत की वजह शायद उच्च मुद्रास्फीति और उच्च बेरोजगारी है। इसका अर्थ यह हुआ कि कंपनियों की बिक्री में वृद्धि प्रभावित होगी। सरकारी व्यय बढ़ाकर इस कमजोरी से आसानी से निजात नहीं पायी जा सकती है क्योंकि सरकार का राजकोषीय घाटा पहले ही अधिक है। बीती कुछ तिमाहियों में आधार प्रभाव के कारण मुनाफे में वृद्धि मजबूत हुई थी लेकिन अब ऐसा नहीं हो रहा है। ऐतिहासिक रूप से जब भी ऊर्जा की लागत बढ़ती है, भारतीय अर्थव्यवस्था को समस्या होती है। इसके अलावा उच्च ब्याज दरों के कारण मुनाफे में भी कमी आ सकती है और ऋण की मांग भी घट सकती है। इससे वित्तीय क्षेत्र प्रभावित होगा। आर्थिक गतिविधियों का निरंतर सामान्यीकरण कुछ हद तक इसे संतुलित कर सकता है। परंतु इस बात पर सहमति है कि 2022-23 में मुनाफे में वृद्धि और प्रभावित होगी। आपूर्ति शृंखला की दिक्कतें विनिर्माण को प्रभावित कर सकती हैं। थोक मूल्य तथा खुदरा मुद्रास्फीति के बीच का अंतर यह संकेत देता है कि उद्योगों की क्रय शक्ति कमजोर पड़ी है और वे बढ़ी हुई लागत को आगे बढ़ाने में असमर्थ हैं। मसलन वाहन क्षेत्र सेमीकंडक्टर की कमी के कारण पूरी क्षमता से काम नहीं कर पा रहा। उच्च ब्याज दरों के कारण अक्सर शेयरों का मूल्यांकन कम होता है। ऐसी स्थिति भी बन सकती है। इसके अलावा मौजूदा माहौल में रूस में सॉवरिन डिफॉल्ट या चीन में अचल संपत्ति के डिफॉल्ट जैसे झटके घबराहट पैदा कर सकते हैं। निवेशकों को सलाह होगी कि वे सावधानी बरतें।
