कानून की भावना और हमारे समय की चेतना | सम सामयिक | | टीसीए श्रीनिवास-राघवन / March 28, 2022 | | | | |
उन्नीसवीं शताब्दी के जर्मन दार्शनिक अपने दौर के उल्लेखनीय विचारक थे। उन्होंने दुनिया को कई अवधारणाएं दीं जिनमें से एक है युग चेतना यानी 'उस समय की प्रचलित भावना।' यह अवधारणा किसी खास समय की नैतिक, सांस्कृतिक और बौद्धिक दिशा को रेखांकित करती है।
मैं इन अवधारणाओं का जिक्र इसलिए कर रहा हूं कि मुझे सन 1970 में दिल्ली स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स में सुने एक भाषण की याद आ रही है। मुझे याद नहीं है कि वक्ता कौन थीं लेकिन मुझे यह अवश्य याद है कि वह उत्पादक परिसंपत्तियों पर सामाजिक नियंत्रण का बचाव कर रही थीं। इस विषय पर चर्चा का तात्कालिक कारण था एक वर्ष पहले इंदिरा गांधी द्वारा बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया जाना।
प्रोफेसर ने अपने भाषण में इस बात पर जोर दिया कि समाजवाद उस समय की प्रमुख भावना है और उसे लगभग सार्वभौमिक स्वीकृति हासिल है। उनकी यह बात सही साबित हुई क्योंकि सन 1971 में इंदिरा गांधी को आम चुनावों में जीत मिली और 1972 में सभी विधानसभा चुनावों में भी उन्हें जीत हासिल हुई।
भारत में समाजवाद का विचार सन 1930 के आखिरी वर्षों से ही मौजूद है जब कांग्रेस ने इन्हें अपनाया था। ये विचार सन 1990 तक कायम रहे जब एक समान लेकिन विपरीत विचार ने निजी उपक्रमों के पक्ष में पकड़ मजबूत कर दी। इसे वॉशिंगटन सहमति का लोकप्रिय नाम दिया गया। भारत इसका शुरुआती अनुयायी रहा लेकिन उसने इसे अपनाने में आलस बरता।
दूसरी भावना
इस आलेख का लक्ष्य पाठकों को केवल युगचेतना की अवधारणा याद दिलाना नहीं है। बल्कि इसके जरिये पहला प्रश्न तो यह होना चाहिए कि क्या 2014 तक भारत की युग चेतना सही मायनों में धर्मनिरपेक्ष थी और दूसरा क्या अब वह सन 1970 में आर्थिक भावना में आये बदलाव की तरह पूरी तरह बदल चुकी है।
उस समय धर्मनिरपेक्षता से हमारा क्या तात्पर्य था और अब हम उससे क्या समझते हैं? निश्चित तौर पर यदि दोनों संस्करणों में अंतर है तो बेहतर कौन सा है?
चूंकि इस विषय पर कई अलग-अलग विचार हो सकते हैं और हैं भी इसलिए एक सामान्य परीक्षण करना अधिक बेहतर होगा: क्या हमारे कानून कुछ समुदायों के खिलाफ वैसा ही भेदभाव करते हैं जैसा व्यवस्थित भेदभाव हमने सन 1956 से अब के बीच में निजी क्षेत्र को लेकर देखा है? याद रहे: ऐसा भेदभाव उस समय की युगचेतना के अनुरूप ही था।
दूसरे शब्दों में कहें तो मैं जिस परीक्षण का प्रस्ताव रख रहा हूं वह एक कानून है: क्या राष्ट्रीय कानून भेदभावकारी हैं? ज्यादा स्पष्ट होकर बात करते हैं: कोई यह नहीं कह सकता है कि भेदभाव के लिए उसका समर्थन उचित है क्योंकि वह समय की भावना के अनुरूप है। बात यह है कि युगचेतना महत्त्वपूर्ण नहीं है। बल्कि महत्त्वपूर्ण यह तथ्य है कि यह भेदभाव को प्रेरित करती है।
ऐसे में अगर समाजवाद ने निजी उपक्रमों के विरुद्ध भेदभाव की स्थापना की तो यह चाहे जिस भी परिस्थिति में हुआ हो लेकिन यह भेदभावकारी था। यानी जिन लोगों ने भेदभाव का समर्थन किया और अभी भी कर रहे हैं वे अन्य प्रकार के भेदभावकारी कानून के खिलाफ शिकायत नहीं कर सकते।
केवल भेदभाव की आशंका होने पर भी शिकायत नहीं की जा सकती। संसद को भी भेदभाव को लेकर कानून पारित करना चाहिए यानी जहां सामाजिक युगचेतना सरकार पर दबाव बनाए कि वह भी भेदभाव करे। ऐसा होने पर ही शिकायत को गंभीरता से लिया जा सकता है।
भावना बनाम कानून
यहां एक जटिल समस्या उत्पन्न होती है। क्या कानून और विधान युग चेतना की अनदेखी कर सकते हैं?
इस समस्या को हल करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय लगातार भेदभाव से बचाव के लिए हस्तक्षेप करता रहा और यहां तक कि उसने संविधान के 'मूलभूत ढांचे' की अवधारणा भी तैयार की। यह अवधारणा सरकारों से कहती है कि वे तब तक अपनी पसंद का कोई भी कानून पारित कर सकती हैं जब तक कि बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं किया जाता है और साथ ही यह तय करने का काम अदालत करेगी कि कोई कानून उल्लंघन करने वाला है या नहीं।
ऐसे में कह सकते हैं कि सरकारें एकदम आजाद नहीं हैं। यह परीक्षण इतना व्यापक है कि सरकारें भी इसकी बहुत इच्छुक नहीं रही हैं। उन्हें पता है कि वे भेदभाव करके नहीं बच सकतीं। यही कारण है कि यदि आप याद करें तो अक्सर 'समर्पित न्यायपालिका' की बात होती है। इंदिरा गांधी ने सबसे पहले सन 1974 में इसका जिक्र किया था।
चाहे जो भी हो आज दुनिया भर में तमाम अच्छी और बुरी वजहों से युग चेतना मोटे तौर पर मुस्लिम विरोधी है। जिन राजनीतिक दलों ने इसका इस्तेमाल किया वे अच्छी स्थिति में रहीं। भारत भी इसका अपवाद नहीं है। यदि कोई राजनीतिक दल समय की भावना पर पकड़ रखने के वादे के साथ जनादेश हासिल करता है तो क्या तब वह ऐसा कानून नहीं पारित कर सकता है जो उस भावना को प्रभावी बनाए? आम आदमी पार्टी के बारे में विचार कीजिए। भारत ने कोई भेदभावकारी कानून पारित नहीं किया है। यहां तक कि तीन तलाक को प्रतिबंधित करने का कानून भी कोई नकारात्मक रूप से भेदभावकारी नहीं है।
लेकिन हिजाब पर प्रतिबंध की मांग को भेदभावकारी कहा जा सकता है क्योंकि कोई महिला क्या पहनती है यह पूरी तरह उसकी पसंद का मामला है किसी और का नहीं। यहां तक कि मुस्लिम धर्मगुरुओं तक का नहीं। यदि यह सवाल इस्लामिक जरूरत के बजाय व्यक्तिगत पसंद के रूप में सामने रखा जाता तो इतनी दिक्कत नहीं होती।
युग चेतना से प्रेरित भेदभाव का प्रतिकार सामूहिक कदम से नहीं हो सकता। यह व्यक्तिगत चयन की स्वतंत्रता का मामला है क्योंकि ऐसी युग चेतना कभी नहीं होगी जो इसकी सीमा तय कर सके।
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