उभरती वृहद अस्थिरता | संपादकीय / March 28, 2022 | | | | |
वैश्विक अर्थव्यवस्था ने कोविड-19 महामारी से ग्रस्त दो वर्षों के दौरान लगे विविध झटकों से उबरना शुरू ही किया था कि उसके सामने तीन नई चुनौतियां आ गईं। पहली चुनौती है यूक्रेन पर रूसी आक्रमण का असर। रूस तेल एवं गैस का एक प्रमुख आपूर्तिकर्ता तथा ओपेक प्लस का सदस्य है। दोनों देश गेहूं के अहम उत्पादक भी हैं। गेहूं कई देशों की खाद्य सुरक्षा के लिए अत्यधिक आवश्यक है। दूसरी चुनौती है रूस पर इस आक्रमण के चलते लगाए गए प्रतिबंध। इन प्रतिबंधों की बदौलत रूस वैश्वीकरण की कई भौतिक और वित्तीय शृंखलाओं से दूर हो जाएगा। तीसरी चुनौती है महामारी का चीन पर देर से नजर आ रहा प्रभाव। चीन में वायरस के अत्यधिक संक्रामक स्वरूप ओमीक्रोन का प्रकोप नजर आ रहा है और वैश्विक उत्पादन के अहम केंद्र तथा तटीय शहर शांघाई में चरणबद्ध तरीके से कड़ा लॉकडाउन लागू किया जा रहा है ताकि वायरस के इस प्रकार के प्रसार को रोका जा सके। वैश्विक आपूर्ति शृंखला में यह उथलपुथल उस समय आई है जब उत्पादन और व्यापार पहले ही दबाव में था। इसके चलते दुनिया भर के देशों में मुद्रास्फीति संबंधी दबाव बन रहा था और सरकार के वित्तीय संसाधन पहले ही महामारी के दौरान उत्पादन के संरक्षण और जन कल्याण में खप चुके थे।
इन घटनाओं का असर काफी गहरा रहा है और इनकी तुलना 2008 के वित्तीय संकट से की जा सकती है। निश्चित तौर पर बॉन्ड बाजार में ऐसी गिरावट दिख रही है जिसका दूसरा उदाहरण आधुनिक युग में नहीं मिलता। ब्लूमबर्ग के अनुसार वैश्विक और कॉर्पोरेट कर्ज पर कुल प्रतिफल से संबंधित उसका वैश्विक एकीकृत बेंचमार्क 2021 के आरंभ के अपने उच्चतम स्तर से 11 फीसदी गिर चुका है। यह गिरावट वित्तीय संकट के दौर की 10.8 फीसदी की गिरावट से अधिक है। बॉन्ड बाजार में इस हलचल से 2.6 लाख करोड़ डॉलर मूल्य की परिसंपत्ति का नुकसान हुआ है। निश्चित तौर पर भविष्य की वृद्धि और मुद्रास्फीति से जुड़ी चिंताओं और पश्चिमी सरकारों की अपने केंद्रीय बैंकों को अमेरिकी ट्रेजरी में उनके भंडारों से अलग करने की मंशा के साथ ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिका में किए गए निवेश को भी इस समय पर्याप्त बेहतर और सुरक्षित नहीं माना जा रहा। निवेशक भी इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि बड़े केंद्रीय बैंक ब्याज दरों में अनुमान से कहीं अधिक तेजी से और ज्यादा इजाफा करेंगे। कई देशों मेंं जीवन जीने की लागत एक अहम राजनीतिक मसला है और एक केंद्रीय बैंकर के नजरिये से मुद्रास्फीतिक दबावों को लेकर सहज प्रतिक्रिया देना अहम है।
गहन प्रश्न यह है कि क्या दुनिया मुद्रास्फीतिजनित मंदी की ओर बढ़ रही है, या मंदी की ओर या शायद दोनों में से किसी ओर नहीं। निश्चित तौर पर आपूर्ति के अहम झटके को लेकर सामान्य प्रतिक्रिया मुद्रास्फीतिजनित मंदी की ही होगी। अभी यह पता नहीं है कि सेमीकंडक्टर जैसे कच्चे माल पर महामारी का प्रभाव खाद्य एवं ईंधन कीमतों में नयी तेजी के साथ मिश्रित होगा या नहीं। साथ ही क्या चीन में लॉकडाउन के कारण आपूर्ति में आने वाली बाधा आपूर्ति को इतना झटका देगी कि मुद्रास्फीतिजनित मंदी की स्थिति बने? कहा जा सकता है कि केंद्रीय बैंक 1970 के दशक की तुलना में आज मुद्रास्फीतिजनित मंदी को बेहतर समझते हैं। उन्हें यह भी लग सकता है कि उनके पास अब उतने उपाय नहीं हैं। ऐसे में यह समझना आसान है कि निवेशक सतर्क क्यों हैं? भारत के लिए दोहरे घाटे की विस्तारित चिंता और बाह्य संवेदनशीलता सामने आ सकती है। रिजर्व बैंक को यह सुनिश्चित करना होगा कि नयी वृहद आर्थिक अस्थिरता से निपटने में वह अन्य बड़े केंद्रीय बैंकों के साथ तालमेल से आगे बढ़े।
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