कृषि कानूनों पर लगी मतदाताओं की मुहर! | ए के भट्टाचार्य / March 23, 2022 | | | | |
हाल ही में संपन्न पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को चार में जीत मिलने के उत्साह और जश्न के बीच दो अहम घटनाओं पर उस कदर बात नहीं हुई जितनी कि होनी चाहिए थी। ये घटनाएं सरकार द्वारा कोविड महामारी के प्रबंधन और कृषि क्षेत्र के सुधारों को लेकर केंद्र सरकार की पहल से संबंधित हैं। चुनाव प्रचार अभियान के दौरान माना जा रहा था कि ये मुद्दे सत्ताधारी दल और उसे चुनौती देने वालों पर निर्णायक प्रभाव डालेंगे।
यही वजह थी कि उत्तर प्रदेश और पंजाब के विधानसभा चुनावों को खासतौर पर कुछ अलग माना जा रहा था। हमारे देश में विधानसभा चुनाव प्राय: स्थानीय मुद्दों पर लड़े जाते हैं। मतदाताओं का निर्णायक विकल्प अक्सर इस बात पर निर्भर करता है कि राज्य की सरकार ने स्थानीय विकास या शासन के मसलों को किस प्रकार हल किया है और उसे चुनौती देने वाला दल कितने आकर्षक वादे करता है। ऐसे में इन चुनावों में पानी और बिजली का शुल्क, शिक्षा और स्वास्थ्य आपूर्ति व्यवस्था और कानून प्रवर्तन आदि काफी अहम हो जाते हैं।
परंतु प्रमुख राजनीतिक दलों ने हाल में जिस तरह प्रचार किया उससे यह स्पष्ट हो गया कि उत्तर प्रदेश और पंजाब के चुनावों से यह अपेक्षा भी थी कि मतदाता सरकार के कोविड प्रबंधन और सितंबर 2020 में पारित और किसान समूहों के भारी विरोध के बाद दिसंबर 2021 में वापस लिए गए तीन कृषि कानूनों के विपरीत प्रभाव को रोकने में उसकी सफलता या असफलता को ध्यान में रखकर भी मतदान करेंगे।
याद रहे कि दोनों मुद्दों ने भाजपा को विधानसभा चुनावों के पहले रक्षात्मक रुख अपनाने पर विवश कर दिया था। केंद्रीय नेतृत्व ने जनवरी-फरवरी 2021 में कहा था कि कोविड महामारी से निपटने में हमें सफलता मिल गई है। परंतु अप्रैल-मई 2021 में महामारी की दूसरी लहर भीषण तबाही लाई और केंद्र सरकार की बात गलत साबित हुई। इतना ही नहीं कोविड टीकाकरण का पहला दौर देरी और बाधाओं से भरा रहा। 2021 की दूसरी छमाही में हालात में सुधार हुआ लेकिन भाजपा सरकार की प्रतिष्ठा को क्षति पहुंच चुकी थी।
इसी तरह तीन कृषि कानून (किसानों को अपनी उपज कृषि मंडी के बाहर बेचने की आजादी देने वाले, उन्हें खेती के लिए बड़ी कंपनियों से अनुबंध की आजादी देने वाले तथा अनिवार्य जिंस अधिनियम को शिथिल बनाने वाले) विवादित हो गए और पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने राष्ट्रीय राजधानी के ठीक बाहर आंदोलन शुरू कर दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करके इन कानूनों को निलंबित कराया लेकिन किसान बेअसर रहे। आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के कुछ माह पहले इन कानूनों को वापस लेना पड़ा।
स्वाभाविक था कि विपक्षी राजनीतिक दल कोविड के कुप्रबंधन और कृषि कानूनों को लेकर आम जनता के इस असंतोष का लाभ लेने का प्रयास करते लेकिन चुनाव नतीजे बताते हैं कि भाजपा को इन दोनों मसलों पर कोई कीमत नहीं चुकानी पड़ी।
यह कहा जा सकता है कि कई अन्य कारक थे जो भाजपा की जीत के लिए उत्तरदायी रहे। परंतु कृषि कानूनों से जुड़े विवादों ने उसके चुनावी प्रदर्शन पर असर नहीं डाला। यहां तक कि पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार बनी लेकिन उसने भी कृषि कानूनों को लेकर कुछ साफ तौर पर नहीं कहा। उसने बस वादा किया कि पंजाब की खेती की समस्याओं को हल किया जाएगा और केंद्र से मशविरा करके उनकी दिक्कतें दूर की जाएंगी।
ऐसे में प्रश्न यह उठता है कि विधानसभा चुनाव नतीजों में भाजपा की केंद्र सरकार के लिए क्या सबक हैं, खासकर उसकी कोविड रणनीति और कृषि कानूनों के संदर्भ में? स्पष्ट है कि संक्रमण की अगली लहर को लेकर आश्वस्त नहीं रहा जा सकता और उसके लिए तैयार रहना होगा। ऐसी तैयारी का अर्थ होगा, टीकाकरण में ढिलाई नहीं और समय पर बूस्टर खुराक लगवाना।
कृषि कानूनों की बात करें तो केंद्र को इस बात से राहत मिलनी चाहिए कि तीन करोड़ से अधिक किसानों का प्रतिनिधित्व करने वाले संगठनों में से करीब 86 फीसदी ने केंद्र सरकार द्वारा सितंबर 2020 में मंजूर कानूनों का समर्थन किया। हालांकि सरकार ने विरोध के चलते दिसंबर 2021 में इन्हें वापस ले लिया। ये नतीजे उस विशेषज्ञ पैनल की रिपोर्ट से हैं जिसका गठन सर्वोच्च न्यायालय ने जनवरी 2021 में किया था। केंद्र सरकार को इन कानूनों पर दोबारा विचार करना चाहिए और जरूरी सुधारों के साथ इन्हें पुन: लागू करना चाहिए।
सबसे बड़ी अदालत द्वारा नियुक्त विशेषज्ञ समिति ने किसानों की जायज चिंताओं को दूर करने के लिए कई सुझाव दिए हैं। इन सुझावों में किसानों की मदद के लिए सही मूल्य निर्धारण की खातिर मार्केट इंटेलिजेंस सिस्टम बनाना, कृषि लागत एवं मूल्य आयोग की भूमिका का विस्तार ताकि वह ऐसे मूल्य संंबंधी आंकड़ों के विश्लेषण के साथ मौजूदा कृषि उपज विपणन समितियों को राजस्व जुटाने वाली संस्थाओं तथा कृषि केंद्रों में बदलने, किसानों के बीच कृषि अनुबंधों को लेकर समझ बढ़ाने के लिए संचार करने, उनकी चिंताओं को दूर करने के लिए एक आदर्श कृषि सौदा अनुबंध तैयार करने, अनिवार्य जिंस अधिनियम को समाप्त करने तथा फसल की खुली खरीद की प्रक्रिया को निरस्त करने जैसे कामों का भी विश्लेषण कर सके।
इन सुझावों पर सरकार को नजर डालनी चाहिए, भले ही वह तीनों कृषि कानूनों को दोबारा लागू करने पर विचार कर रही हो। परंतु सरकार को जिस सबसे अहम सुझाव पर नजर रखनी चाहिए वह है कानूनों को बनाने तथा उनके क्रियान्वयन में राज्यों को भागीदार बनाना। विशेषज्ञ समिति ने सुझाव दिया कि राज्यों को यह सुविधा मिलनी चाहिए कि वे केंद्र के मशविरे और उसकी मंजूरी के बाद इन कानूनों को अपने तरीके से लागू कर सकें।
कुल मिलाकर, यह उचित ही होगा कि केंद्र की भाजपा सरकार विधानसभा चुनावों के नतीजों को कोविड महामारी से निपटने, खासकर टीकाकरण कार्यक्रम तथा कृषि सुधारों (जिन्हें दबाव में वापस लेना पड़ा) के मामले में अपने लिए विश्वास मत समझ ले। परंतु सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निर्मित विशेषज्ञ समूह की राय न मानना सही नहीं होगा। खासतौर पर उस राय से जो राज्यों से संबंधित है और उन्हें संशोधित कृषि कानूनों का डिजाइन बनाने तथा उनके क्रियान्वयन की सुविधा देती है।
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