कोविड, मौजूदा हालात और चीन की भूमिका | रथिन रॉय / March 22, 2022 | | | | |
रूस और यूक्रेन के बीच छिड़ी जंग के आर्थिक प्रभाव के बारे में भविष्यसूचक निष्कर्ष निकालने के अपने जोखिम हैं। युद्ध विराम या किसी अन्य वजह से युद्ध के अचानक रुकने की स्थिति में यह अनुमान पूरी तरह निरस्त हो जाएगा कि मौजूदा अस्थिरता दुनिया भर में भविष्य की आर्थिक गतिविधियों को प्रभावित करेगी। एक और बात जहां ज्यादातर भविष्यसूचक विश्लेषण गलत साबित हो रहा है, वह यह है कि एक खास नकारात्मक आर्थिक प्रभाव महामारी के कारण है या दोनों देशों के संघर्ष के कारण।
तेल कीमतों में इजाफा 28 अप्रैल, 2020 को शुरू हुआ और अक्टूबर 2021 तक वे 400 फीसदी ऊपर जा चुकी थीं। सन 2022 में हुए इजाफे ने उसी रुझान को जारी रखा। रूस-यूक्रेन विवाद के कारण कीमतों में अस्थायी तेजी आई और फिर दोबारा वे पहले जैसी हो गईं। तेल कीमतें दोबारा 100 डॉलर प्रति बैरल से नीचे आ चुकी हैं।
यूक्रेन और रूस के बीच युद्ध के हालात ने खाद्य पदार्थों, तिलहन और उर्वरकों की कीमतों को भी प्रभावित किया है क्योंकि दोनों देश इनके बड़े उत्पादक हैं। परंतु खाद्य एवं कृषि संगठन का मूल्य सूचकांक जो खाद्य पदार्थों, खाद्य तेल और अनाज पर आधारित है, उसमें सन 2020 के मध्य से ही इजाफा हो रहा है। ऐसे में कह सकते हैं कि मौजूदा विवाद इस इजाफे को गति प्रदान कर सकता है, वह इसकी इकलौती वजह नहीं है। उर्वरकों की बात करें तो यूरिया, पोटाश और फॉस्फोरिक एसिड सभी की कीमतें बीते एक वर्ष में नाटकीय ढंग से बढ़ी हैं। परंतु इस इजाफे का 90 प्रतिशत विवाद छिडऩे के पहले घटित हो चुका था।
यदि यह विवाद बना रहता है और कोई राजनीतिक हल नहीं निकलता तो वैश्विक मुद्रास्फीति पर अवश्य असर होगा और लाखों लोगों को बुनियादी चीजों तक पहुंच बनाने में भी मुश्किल होगी। इससे असर में तेजी जरूर आएगी। कहने का अर्थ यह है कि इन हालात में दोनों देशों के बीच छिड़े विवाद का विशुद्ध आर्थिक दृष्टिकोण से विश्लेषण करने का कोई खास फायदा नहीं है। परंतु राजनीतिक अर्थव्यवस्था के नजरिये से देखा जाए तो प्रभाव का प्रश्न इस बात पर निर्भर करता है कि यह प्रश्न वास्तव में कहां खड़ा किया जा रहा है।
यूरोप के देशों की बात करें तो विवाद उनके लिए अस्तित्व के सवाल लेकर आया है। समकालीन दौर में यूरोप ने खुद को लोकतंत्र, मानवाधिकार और शांति का दुर्ग समझ लिया है। यह कल्पना अब समापन की ओर है। रूस यूरोपीय परिषद से बाहर है, जर्मनी दोबारा हथियारबंद हो रहा है और यूरोप के भीतर ही यूरोपीय शरणार्थियों की गतिविधियां बढ़ रही हैं। ये बातें 18वीं, 19वीं और 20वीं सदी की याद दिलाती हैं जब यूरोपियन विवादों का असर पूरी दुनिया पर पड़ता था।
ऐसे में शेष विश्व का इस बात को लेकर चिंतित होना जायज है कि यूरोप में दोबारा उपजे संघर्ष का उस पर क्या प्रभाव पड़ सकता है। खासतौर पर यह देखते हुए कि यूरोप में बार-बार यूरोपीय शरणार्थियों को लेकर जो जातीय और सभ्यता का नजरिया सामने रखा जा रहा है उसने सार्वभौमिकता को लेकर उसकी प्रतिबद्धता की कलई खोल कर रख दी है। परंतु यूरोप अब वैश्विक अर्थव्यवस्था का केंद्र नहीं है। अमेरिका, चीन, जापान और कुछ हद तक भारत, ब्राजील तथा दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों की आर्थिक व्यवस्था यूरोप की चिंताओं से अपेक्षाकृत सुरक्षित है। यूरोप ऊर्जा के लिए रूस पर निर्भर है और इसलिए अब वह अल्पावधि में कोयले के इस्तेमाल को विवश होगा। यूरोप की सरकारों को मुद्रास्फीति के नियंत्रण में भी मुश्किल होगी लेकिन इसके प्रभाव बहुत व्यापक प्रसार वाले होते नहीं दिखते। उपरोक्त यूरोपीय देशों में से कोई रूस पर बहुत अधिक निर्भर नहीं है। यह लड़ाई उनके लिए अस्तित्व की लड़ाई भी नहीं है।
चीन एक कदम आगे है। महामारी के कारण आर्थिक हालात बिगडऩे के पहले चीन ने मक्के, जौ और सोयाबीन आदि का आयात खूब बढ़ा लिया था। उसने यूरिया का निर्यात भी बंद कर दिया था। दिसंबर 2020 में उसने एक नया मसौदा कानून प्रकाशित किया जिसमें खाद्यान्न भंडार सुरक्षा की बात कही गयी थी। उसने यह नीति 2021 में भी जारी रखी। इस बीच ब्राजील, अर्जेंटीना, यूक्रेन और थाईलैंड में उत्पादन कम हुआ और खाद्य पदार्थों और नकदी फसलों की कीमत बढ़ी।
निश्चित रूप से यह लड़ाई दुनिया के अन्य हिस्सों में लोगों के लिए मुश्किल पैदा करेगी। पश्चिम एशिया के लिए रूस से धनप्रेषण और वहां रोजगार के अवसरों को क्षति पहुंचेगी। पश्चिम एशिया और उत्तरी अफ्रीका क्षेत्र पर गेहूं तथा खाद्य तेल की कीमतों में इजाफे का नकारात्मक असर होगा। अफ्रीका महाद्वीप के ज्यादातर देशों को भी तेल, खाद्य पदार्थों और उर्वरकों की बढ़ती कीमत चुकानी होगी। महामारी ने पहले ही इस क्षेत्र में लोगों के जीवन और आजीविका को प्रभावित किया है। टीकाकरण को सार्वभौमिक न किए जाने से कम आय वाले इन देशों की आबादी प्रभावित हुई है। ऐसे में यूक्रेन और रूस की लड़ाई उनकी मुश्किलें और बढ़ाएगी। अमेरिकी कांग्रेस का कोविड सहायता को यूक्रेन स्थानांतरित करना मुश्किलों को और बढ़ाएगा। इन बातों के मद्देनजर यूरोप के बाहर की दुनिया के लिए तीन विश्लेषणात्मक बातें हैं। पहला, यूरोप में शांति का अंत अतीत की तरह अब बाहरी दुनिया को उतना प्रभावित नहीं करेगा और यूरोपीय देशों द्वारा ऐसा माहौल बनाए जाने पर सतर्क नजर रखनी होगी। दूसरा, यह लड़ाई उभरती अर्थव्यवस्थाओं की महामारी से उबरने की प्रक्रिया को शायद उस तरह प्रभावित न करे, बशर्ते कि वृहद आर्थिक प्रबंधन कुशल हो और चीन तथा अमेरिका उभरती अर्थव्यवस्थाओं से बहुत अधिक राजनीतिक लाभ लेने की कोशिश न करें। हालांकि कम आय वाले देशों की मुश्किलें बढऩे की संभावना है।
अंत में चीन ने भूराजनीतिक उथलपुथल से निपटने की पूरी तैयारी की, रूस के साथ रिश्ते बनाए रखे और यूक्रेन के साथ रिश्ते सुधारने का प्रयास किया। यह प्रयास युद्ध के बाद राजनीतिक समझौते की प्रत्याशा में किया गया। चीन ऐसी स्थिति में है कि वह विकासशील एवं उभरते देशों को मौजूदा संघर्ष के नकारात्मक प्रभाव से बचा सकता है और उन्हें वृद्धि और समृद्धि बढ़ाकर महामारी के पहले वाले स्तर तक पहुंचाने में मदद कर सकता है। लेकिन अनेक एशियाई और अफ्रीकी देशों के लिए इसकी राजनीतिक और कूटनीतिक कीमत बहुत अधिक है। ये देश पहले ही चीन के कर्ज और जिंस आपूर्ति के लिए उस पर निर्भरता से त्रस्त हैं। ऐसे में चीन इसका प्रबंधन कैसे करता है उससे ही यह तय होगा कि यूरोप के अलावा अन्य भौगोलिक क्षेत्रों को भविष्य में भू-आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना होगा या नहीं।
(हरीश दामोदरन का विशेष आभार)
|