गत शुक्रवार को लगातार एक सप्ताह तक रोजाना की वीडियो बैठकों से तंग आकर मैंने पाया कि मेरे कदम मुझे उस गली में खींचे लिए जा रहे हैं जहां मेरी रिहाइशी इमारत है। मेरे जैसे इंसान के लिए या मुझे कहना चाहिए कि हम जैसे लोगों के लिए वास्तविक 'सबक' वही है जो हमें किताबों में सर खपा कर और बाद के दिनों में इंटरनेट उपकरणों में डूबकर मिल पाया। ऐसा करते हुए हमने नयी चीजों के बारे में जाना, बड़े बदलावों से अवगत हुए और उनकी एक झलक पाने की उम्मीद की ताकि जब बदलाव आए तो हमें घबराहट न घेर ले। लेकिन गलियों में? गलियां तो गुजर जाने भर के लिए होती हैं, न कि कुछ सीखने के लिए। सड़क पर सबसे पहले मेरी नजर एक पेट्रोल पंप पर पड़ी जहां मैं बीते कुछ दशकों से अपनी कार में पेट्रोल भरवा रहा था। जब मैं उसके करीब गया तो एक अपराधबोध ने मुझे घेर लिया और मैं उससे करीब से जल्दी से गुजर गया। इससे पहले कि उसका मालिक मुझे रोककर मुझसे पूछता कि मैंने उसके यहां पेट्रोल भरवाना क्यों बंद कर दिया, मैं वहां से गुजर गया। लेकिन मुझे अपराध बोध क्यों हुआ? महज तीन महीने पहले मैंने अपने लिए एक इलेक्ट्रिक कार खरीद ली जिसे मैं अपने घर में ही चार्ज कर सकता हूं। इस प्रकार हर सप्ताह-दो सप्ताह में वहां जाकर पेट्रोल भरवाने का सिलसिला भी थम गया। क्या इस पेट्रोल पंप का मालिक अपने पेट्रोल पंप और कम होते ग्राहक आधार पर ही टिका रहेगा या फिर इलेक्ट्रिक व्हीकल-चार्जिंग स्टेशन की ओर साहसी बदलाव करेगा। 'सर, मेरे पास ताजे पपीते हैं, कृपया एक बार देख लीजिए!' यह मुकेश की आवाज थी जो हमेशा ताजे मौसमी फल लेकर बेचता है। इस समय जब मैं यह आलेख लिख रहा हूं, उसके पास पपीते हैं। पिछले तीन महीनों तक उसने स्वादिष्ट आम बेचे। उसके पास हमेशा कच्चे केलों का एक गठ्ठर भी होता है जो हमारे भोजन में लगभग रोज ही शामिल रहता है। मुकेश जहां अपने फल बेचता है वह छह फुट गुणा छह फुट की जगह है। एक बार उसने मुझे समझाया था कि मुंबई महानगर पालिका ने कहा था कि मुकेश जैसे छोटे कारोबारियों को आवेदन देना चाहिए। उसने एक मित्र की सलाह पर आवेदन भी दिया और गली में स्थित उसकी दुकान को वैध कर दिया गया। मुकेश बहुत दोस्ताना और मुखर व्यक्ति है। मुकेश बिहार का रहने वाला है उसका एक बेटा है जो स्कूल जाता है और पढ़ाई में भी अच्छा है। एक बार मैंने मुकेश से पूछा था कि उसने यही काम करने का निर्णय क्यों लिया। इस पर मुकेश ने कहा, 'अगर कोई पढऩे लिखने के काबिल न हो तो वह भला और क्या काम कर पाएगा? सर...कम से कम यह काम करके मैं हर महीने 9,000 रुपये कमा तो लेता हूं। इतने पैसे बेटे को पढ़ाने के लिए पर्याप्त हैं।' बंबई जैसे शहर में 9,000 रुपये महीने में गुजारा?... मैं उससे यह पूछने ही वाला था लेकिन मैं मुस्कराकर आगे बढ़ गया। सड़क के उस पार एक दुकान थी जहां मैं सन 1970 और 1980 के दशक में लगभग रोज जाता और ताजातरीन भारतीय और विदेशी फिल्मों के वीडियो टेप किराये पर लाता। इस तरह हमारी हर शाम अच्छी गुजरती। इसके बाद केबल टीवी का आगमन हुआ और वीडियो किराये पर देने वाली दुकान पर मेरा आनाजाना कम हो गया। लेकिन इसके बावजूद मैं अंतरराष्ट्रीय सिनेमा के लिए वहां जाता रहा क्योंकि हमारे स्थानीय टेलीविजन चैनल उनका प्रसारण नहीं करते थे। इसके बाद नेटफ्लिक्स तथा अन्य डाइरेक्ट टु होम विकल्प आ गए और मेरा उस दुकान पर आना जाना पूरी तरह बंद हो गया। लेकिन छोटी दुकानों के अधिकांश मालिकों की तरह यह मालिक भी उद्यमी सोच का है और समय के साथ उसने जैविक विधि से उत्पादित सब्जियों का रुख कर लिया। दो दिन पहले वह मुझे देखकर मुस्कराया। किसे पता है कि जैविक चीजों को लेकर बढ़ते रुझान को देखते हुए वह एक बार फिर हमारी प्रिय दुकान बन जाए। परंतु मैं यह कल्पना करने से भी डरता हूं कि डाइरेक्ट टु होम के आगमन के बाद उस मोटी तोंद वाले और हमेशा मुस्कराने वाले स्थानीय केबल ऑपरेटर क्या होगा। अब तक मैं गली के चौड़े मुहाने तक पहुंच गया था। चौड़ी पटरी का मतलब है अधिक स्ट्रीट वेंडर। अचानक मेरी नजर वहीं किनारे लगे एक स्टाल पर गई जिसमें एक दर्जन या उससे अधिक खूबसूरत घडिय़ां रखी थीं जिनमें लकड़ी जैसे नजर आने वाले फ्रेम लगे थे। मैंने करीब जाकर एक फ्रेम को उठाया क्योंकि उसकी शानदार बनावट मुझे 19वीं सदी की हाथ से गढ़ी हुई घड़ी की याद दिला रही थी। बीस वर्ष की आयु का एक युवा अचानक मेरे सामने प्रकट हुआ और उसने कहा, 'सर, यह इंगलैंड की बनी हुई है और इसकी कीमत केवल 900 रुपये है।' मैं उसे खरीदना चाहता था लेकिन मेरे पास पर्याप्त नकदी नहीं थी। उसने मेरे चेहरे पर आए अफसोस को पढ़ लिया और तुरंत कहा: 'सर, क्या आप कार्ड से भुगतान कर सकते हैं?' सड़क पर सामान बेच रहे एक विक्रेता को कार्ड से भुगतान? उसने मेरी अविश्वास से भरी भाव-भंगिमा को देखा और स्टाल के पीछे से एक कार्ड स्वैपिंग मशीन लेकर हाजिर हुआ। मैंने उसे पैसे दिए और यह सोचता हुआ आगे बढ़ गया कि शायद यही वह डिजिटल परिवर्तन है जिसकी बात सुनने को मिलती है। जब सड़कों पर सामान बेचने वाले अपने ग्राहकों को कार्ड भुगतान की सुविधा दे रहे हैं तो ऐसा लगता है कि देश में डिजिटल बदलाव सही दिशा में है। शायद हमारी यह आशंका भी पूरी तरह सही नहीं है कि बड़ी निजी इक्विटी फंडिंग वाली ई-कॉमर्स कंपनियां सड़क पर कारोबार करने वाले छोटे कारोबारियों को पूरी तरह नष्ट कर देंगी। घर की तरफ वापस लौटते समय मेरा ध्यान बीइ्र्रएसटी (मुंबई में चलने वाली सरकारी बसें) की इलेक्ट्रिक बसों पर पड़ी जो आ-जा रही थीं। मैंने प्रतीक्षा की ताकि वे गुजर जाएं और मैं सड़क के उस पार अपने घर तक जाने वाली गली में प्रवेश कर सकूं। मैं इस बात को लेकर आश्चर्य से भरा हुआ था कि मेरे आसपास कितना कुछ बदल रहा है: पेट्रोल और डीजल कारों तथा बसों का स्थान पर्यावरण के अनुकूल इलेक्ट्रिक बसों ने ले लिया था। ग्रामीण युवा अपने गांव और घरों के बेरोजगारी से भरे जीवन की जगह स्ट्रीट वेंडर बन रहे थे, किराना दुकानें फलों की दुकान में बदल रही थीं और डिजिटल भुगतान की पेशकश कर रही थीं। (लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)
