जनगणना की समय सीमा | संपादकीय / March 14, 2022 | | | | |
भारत की जनगणना, जिसमें राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी को शामिल कर लिया गया है, की प्रक्रिया मार्च 2020 में घरों की सूची बनाने के साथ शुरू की जानी थी और बाद में आबादी की गणना की जानी थी। लेकिन मार्च 2020 में महामारी का आगमन हुआ और देश भर में लॉकडाउन लगा दिया गया। जनगणना को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया गया। परंतु अब देश व्यापक रूप से खुला हुआ है और जनगणना की योजना के बारे में प्रश्न पूछने का सही समय है। हाल ही में यह जानकारी सामने आई थी कि जनगणना के लिए नई प्रविधियां चिह्नित की गई हैं जिनमें स्वगणना शामिल है। इसमें गणना में शामिल लोगों द्वारा स्वयं जनगणना अनुसूची को स्वयं भरकर जमा करने की बात शामिल है। आंकड़ों को इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से भरने को भी इसमें स्थान दिया गया है। ऐसे में यह प्रश्न बरकरार है कि इन बदलावों का क्रियान्वयन किस प्रकार किया जाएगा। अमेरिकी जनगणना भी दशवार्षिक होती है और महामारी से वह भी प्रभावित हुई है। अमेरिका में जनगणना को पूरी तरह ऑनलाइन कर दिया गया। अमेरिका का डिजिटलीकरण ज्यादा है और यह बात ध्यान देने वाली है कि इसे अपेक्षाकृत सफल माना गया। कई विद्वान मानते हैं कि आश्चर्यजनक रूप से बहुत कम लोग इससे बाहर रहे होंगे। भारतीय जनगणना को कई गंभीर समस्याओं को हल करना है लेकिन उसे दुनिया भर में डिजिटल गणना के उदाहरणों से यह सबक लेना होगा।
राजनीतिक दृष्टि से संवेदनशील कई मुद्दे अभी भी बरकरार हैं। उदाहरण के लिए राष्ट्रीय जनसंख्या पंजी स्वाभाविक रूप से गहरा विभाजक विषय है, खासतौर पर नागरिकता संशोधन अधिनियम के बाद के समय में जब इसे भारतीय नागरिकों की राष्ट्रीय पंजी के रूप में देखा जा रहा है। महामारी के कारण विरोध प्रदर्शन तो समाप्त हो गया लेकिन सरकार को यह बात ध्यान में रखनी होगी कि जनगणना को लेकर किसी भी तरह का राजनीतिक या पूर्वग्रह का संकेत निकला तो विरोध भड़कने में अधिक समय नहीं लगेगा। आमतौर पर जनगणना एक निष्पक्ष तौर पर किया जाने वाला उपाय है जिसके जरिये जनांकीय बदलाव का पता लगाया जाता है। यह राज्य नीति का सक्रिय उपकरण नहीं है। एक अन्य लंबित मुद्दा सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना का है। यह याद करना होगा कि देश में जातीय भेदभाव को हल करने से संबंधित अधिकांश राजनीतिक और न्यायिक निर्णय जनगणना के उन आंकड़ों का इस्तेमाल करते हैं जो करीब आठ दशक पुराने हैं। इन आंकड़ों में संशोधन का दबाव लगातार बना रहा लेकिन वास्तविक आबादी के ढांचे में संभावित तीव्र बदलावों के राजनीतिक असर पर इतना अधिक ध्यान रहा कि वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों ने इस पर तवज्जो नहीं दी।
राज्य सरकारों को भी संरक्षित जाति संबंधी और आर्थिक अनुपात को बढ़ाचढ़ाकर प्रस्तुत करने के फायदे हैं। इससे उन राज्यों में कल्याणकारी योजनाओं के लिए आने वाले फंड में इजाफा होगा। ये तमाम कारण हैं जिनकी वजह से जनगणना में सामाजिक-आर्थिक तथा जातीय आंकड़ों को शामिल करना मुश्किल बना हुआ है। आखिर में कुछ संघीय प्रश्न भी हैं। कुछ ज्यादा समृद्ध राज्य पहले ही जनांकीय बदलाव से गुजर चुके हैं जबकि अन्य राज्य अभी उस प्रक्रिया में हैं। आबादी के नए राज्यवार अनुपात के आंकड़े करों के साझा पूल से लेकर संसद में निर्वाचन क्षेत्रों की तादाद तक हर चीज को प्रभावित करेंगे। ऐसे में यह आवश्यक है कि निर्वाचन क्षेत्रों के दोबारा परिसीमन के पहले पर्याप्त राजनीतिक विमर्श के बाद जनगणना पूरी की जाए। यदि ऐसा नहीं किया गया तो देश के संघीय ढांचे पर दबाव और बढ़ेगा। सरकार को जनगणना के लिए शीघ्रातिशीघ्र समय सीमा तय करनी चाहिए ताकि इन सवालों पर पारदर्शी ढंग से चर्चा की जा सके।
|