इस सप्ताह आलेख का शीर्षक जोखिम भरा प्रतीत हो सकता है लेकिन ऐसा है नहीं। नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में अपने उभार के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) लगातार चुनाव जीत रही है। हालांकि उसने कुछ चुनाव हारे भी हैं। उत्तर प्रदेश तथा तीन और राज्यों में जीत के बाद अब इस बारे में चौतरफा ज्ञान मिल रहा है कि भाजपा क्यों और कैसे जीतती है। ऐसे में यह अहम और दिलचस्प है कि इस बात की पड़ताल की जाए कि भाजपा कब, कैसे और क्यों हारती है। सन 2018 के जाड़ों में पार्टी को हिंदी प्रदेश के तीन राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हार का सामना करना पड़ा था। यह मोदी-शाह की भाजपा को कांग्रेस के हाथों मिली पहली और आखिरी पराजय थी। उसी वर्ष के आरंभ में कर्नाटक में भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनी थी लेकिन बहुमत नहीं पा सकी थी। वहां कुछ समय के लिए कांग्रेस-जनता दल (एस) की सरकार बनी। हम 2017 और 2022 के पंजाब की गिनती नहीं कर रहे क्योंकि वहां भाजपा का कद बहुत छोटा है। सन 2019 में दूसरी बार आम चुनाव में एकतरफा जीत के बाद भाजपा ने पश्चिम बंगाल में भी तृणमूल कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी। झारखंड में उसने कांग्रेस-झामुमो-राजद गठबंधन का मुकाबला किया जहां वह सत्ता में रहते हुए चुनाव लड़ रही थी। भाजपा को दो और झटके लगे। हरियाणा में वह लोकसभा की सभी सीटें भारी बहुमत से जीतने के बाद विधानसभा में बहुमत से वंचित रह गई और महाराष्ट्र में जीतकर भी हार गई क्योंकि उसकी बड़ी साझेदार शिवसेना ने दूरी बना ली। मोदी-शाह के युग में भाजपा की रणनीति स्पष्ट है। 50 फीसदी हिंदू वोट पाकर जीत हासिल करना। उत्तर प्रदेश का उदाहरण लें। योगी आदित्यनाथ ने जब 80 बनाम 20 की लड़ाई पर टिप्पणी की तो वह सही थे। उत्तर प्रदेश में मुस्लिम वोट 19 फीसदी हैं। यानी उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 19 फीसदी मुस्लिमों से परे 80 फीसदी हिंदुओं को लक्ष्य किया। पार्टी और उसके साझेदारों को कुल मतों में 44 फीसदी हासिल हुए। स्पष्ट है कि पार्टी को हिंदू मतों का 55 फीसदी से अधिक मिला। यह बड़ी जीत के लिए पर्याप्त था। 80:20 का यह फॉर्मूला स्थानीय अंतर के साथ काम करता है लेकिन केवल हिंदी भाषी क्षेत्रों और तीन तटवर्ती राज्यों महाराष्ट्र, गुजरात तथा कर्नाटक में। 2019 के लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भाजपा और उसके साझेदारों को 52 फीसदी मत मिले। मुस्लिम मतों को हटा दिया जाए तो यह कुल हिंदू मतों का लगभग दो तिहाई था। यही कारण है कि पार्टी सपा-बसपा गठबंधन को हराने में कामयाब रही जबकि वह अपराजेय नजर आ रहा था। जहां यह समीकरण न हो वहां क्या होता है? पश्चिम बंगाल में भाजपा ने अत्यधिक समय, ऊर्जा और संसाधन लगाए। सीएए के कारण चुनावों का जबरदस्त ध्रुवीकरण हुआ। भाजपा एक और बड़े राज्य में पहली जीत की बाट जोह रही थी लेकिन इसका उलटा हुआ। ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने उसे पराजित कर दिया। वहां भाजपा क्यों और कैसे हार गई? खासकर यह देखते हुए कि 2019 के लोकसभा चुनाव में पार्टी ने 42 में से 18 सीटों पर जीत हासिल की थी। इसके बाद पार्टी ने अपने सारे संसाधन, प्रचारकों और एजेंसियों को झोंक दिया। यदि हम कुल मतों पर नजर डालें तो भाजपा को 2021 के विधानसभा चुनाव में भी 2019 के लोकसभा चुनाव की तरह करीब 40 फीसदी मत मिले। परंतु इसे विधानसभा सीटों में नहीं बदला जा सका। दो वर्षों में क्या बदल गया? सबसे पहली बात, 2019 में वाम-कांग्रेस गठबंधन ने अपने बचे हुए सारे मत गंवा दिए थे लेकिन इससे भी अहम बात यह है कि उत्तर प्रदेश के उलट, पश्चिम बंगाल में भाजपा को 80:20 का अनुपात नहीं मिला। वहां हिंदू-मुस्लिम समीकरण 71:27 का है। करीब 50 फीसदी हिंदू मतों के साथ बहुमत नहीं पाया जा सकता। 38.13 फीसदी कुल मतों के साथ पार्टी ने करीब 53 फीसदी हिंदू मत भी हासिल किए। लेकिन 71:27 के समीकरण में उसे सरकार बनाने के लिए करीब 65 फीसदी मतों की आवश्यकता थी। उतने मत नहीं मिले क्योंकि ममता बनर्जी महिला मतदाताओं को अपने साथ रखने में कामयाब रहीं। इस मामले मैं लैंगिकता ने हिंदू एकजुटता को पछाड़ दिया। यह पहला सबक है। यदि आप मोदी-शाह की भाजपा को हराना चाहते हैं तो आपको पर्याप्त हिंदू मत हासिल करने होंगे ताकि उसे 50 फीसदी से अधिक हिंदू वोट न मिलें। उत्तर प्रदेश, बिहार और असम की तरह अगर आप ऐसा नहीं कर पाए तो आप का सफाया तय है। यही कारण है कि अखिलेश और लालू प्रसाद के दल जो मुस्लिम-यादव वोटबैंक पर आधारित हैं वे अब नहीं जीत पाते। जब तक वे हिंदुओं के अन्य बड़े जातीय समूहों को अपने साथ नहीं जोड़ पाएंगे, जीतना मुश्किल होगा। भाजपा से हिंदू मतों के लिए जूझें या ममता बनर्जी की तरह लैंगिकता में जवाब तलाशें। उत्तर प्रदेश में इसका उलटा हुआ। सभी विश्वसनीय एक्जिट पोल बताते रहे कि समाजवादी पार्टी की तुलना में महिलाओं ने भाजपा पर भरोसा किया। प्रियंका गांधी ने महिलाओं के लिए लड़की हूं, लड़ सकती हूं का दिलचस्प नारा दिया लेकिन उनकी पार्टी इसका चुनावी लाभ नहीं ले सकी। शायद समाजवादी पार्टी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ हो। पार्टी कुछ अलग सोचने में नाकाम रही। ऐसे में निष्कर्ष यही कहता है कि मोदी-शाह की भाजपा को हराने के लिए आपको हिंदू मतों को उनके पास जाने से रोकना होगा। केवल मुस्लिमों तथा एक अन्य वफादार जाति की बदौलत ऐसा नहीं किया जा सकता। केवल पार्टियों का तालमेल भाजपा को नहीं हरा सकता। 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस-सपा गठजोड़, 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा, महाराष्ट्र में कांग्रेस-राकांपा और कर्नाटक में कांग्रेस-जेडीएस सभी को हार का सामना करना पड़ा। झारखंड जरूर अपवाद है जहां 2019 में झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस-राजद का गठजोड़ जीता। यह भी ध्यान रहे कि भाजपा ने उससे पहले रघुबीर दास के नेतृत्व में ऐसी सरकार चलाई थी जो काफी लापरवाह थी। राज्य की सत्ता गैर आदिवासी नेता के हाथों में सौंपने के कारण भी मुश्किल हुई। राज्य के मतदाताओं में करीब 15 फीसदी मुस्लिम हैं और योगी के मानकों के मुताबिक यह लड़ाई 60: 40 हो जाती है क्योंकि 25 फीसदी मतदाता आदिवासी भी हैं। जाहिर है आदिवासी मत न मिलने के कारण भाजपा की हार हुई और वह सत्ताधारी गठबंधन से केवल दो फीसदी मतों से पीछे रही। हेमंत सोरेन के रूप में राज्य में पुन: आदिवासी मुख्यमंत्री बना। हम दिल्ली के 2015 और 2020 के विधानसभा चुनाव को इस विश्लेषण में शामिल नहीं कर रहे हैं क्योंकि उसकी राजनीति अलग है और वहां 2014 और 2019 दोनों लोकसभा चुनावों में भाजपा को जीत मिली। लोकसभा और विधानसभा चुनावों में मतदाताओं की प्राथमिकता में अंतर अन्य स्थानों पर भी दिखा। ओडिशा में 2019 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक ही दिन हुए। लोकसभा में भाजपा को 21 में से आठ सीटें मिलीं और उसे 38.83 फीसदी वोट हासिल हुए। वह नवीन पटनायक के बीजू जनता दल से केवल चार फीसदी पीछे रही। विधानसभा चुनाव में भाजपा को 32.49 फीसदी जबकि बीजू जनता दल को 44.7 फीसदी मत मिले। हम राजस्थान-मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की भी बात नहीं कर रहे क्योंकि वहां भाजपा सत्ता विरोधी लहर का सामना कर रही थी। इसमें भी उसे केवल छत्तीसगढ़ में निर्णायक हार मिली जो तीनों राज्यों में सबसे छोटा है। इससे तीन सबक निकलते हैं। भाजपा को हराने के लिए आपको या तो उसे हिंदू मतों से वंचित करना होगा या एक क्षेत्रीय नेता और पार्टी तैयार करनी होगी जो अपना बचाव करने में सक्षम हो। तीसरा, एक ऐसा क्षेत्रीय, जातीय और भाषाई दुर्ग तैयार किया जाए ताकि हिंदू भी तमिल, मलयाली या तेलुगू होने के आधार पर मतदान करें। यह तेलंगाना के आगामी चुनाव के लिए परीक्षा की घड़ी है। लेकिन अगर बड़ी तस्वीर पर नजर डालें तो यह इस बात का प्रमाण है कि अगर आपकी राजनीति सही हो तो आप भाजपा को पराजित कर सकते हैं।
