महिलाओं के सशक्तीकरण की राह अत्यंत पेचीदा | जिंदगीनामा | | कनिका दत्ता / March 13, 2022 | | | | |
नरेंद्र मोदी के दूसरे कार्यकाल का आधा वक्त पूरा होने के साथ ही इस साल एक और महिला दिवस के बीत जाने पर एक अनोखा विरोधाभास उभरता नजर आया जिस पर कम ही चर्चा हुई है। इस अवधि के दौरान स्त्री-पुरुष असमानता शायद ही कम हुई है बल्कि यह पहले के स्तर की ओर गई है। फिर भी, सक्रिय नीति के संदर्भ में देखा जाए तो पहले की योजनाओं को नए नामों से पेश करने की कवायद से परे भी इस सरकार ने पूर्ववर्ती सरकारों की तुलना में महिलाओं के कल्याण के लिए काफी कुछ किया है।
सरकार की इन योजनाओं की विस्तृत सूची के मदद के बिना भी इन हस्तक्षेपों को याद रखा जा सकता है जो क्रियान्वयन के स्तर पर दोषपूर्ण जरूर थे लेकिन इनकी शुरुआत प्रगतिशील इरादे के साथ शुरू की गई थीं। उदाहरण के तौर पर मोदी की पहली सरकार में महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने महिलाओं के लिए लंबे मातृत्व अवकाश और कार्यस्थलों में बच्चों की देखभाल से जुड़ी सुविधाएं देने के प्रावधान को अनिवार्य बनाया।
गर्भवती महिलाओं और स्तनपान कराने वाली मांओं को फायदा देने के लिए शुरुआत में कुछ कार्यक्रमों की शुरुआत की गई और सब्सिडी वाली रसोई गैस वितरण योजना भी शुरू की गई। हालांकि क्रियान्वयन के स्तर पर इनका प्रदर्शन बेहद औसत रहा लेकिन एक अहम बात यह हुई कि महिलाओं को अब नीतिगत पहल के केंद्र में रखा जाने लगा। यह महिलाओं के बीच मोदी की स्थायी लोकप्रियता को भी दर्शाता है। मुस्लिम महिलाओं के तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाने की योजना को उनकी सरकार के अधिक दूरदर्शी और प्रगतिशील सामाजिक कानूनों में गिना जा सकता था, अगर इसे फौजदारी के बजाय, दीवानी अपराध की श्रेणी में डाला गया होता।
अगर महिला श्रम बल भागीदारी दर (एफएलएफपीआर) के तेजी से घटने, मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान बढ़ती महिला बेरोजगारी से लेकर विश्व आर्थिक मंच के ताजा ग्लोबल जेंडर गैप में 28 पायदान तक की गिरावट पर गौर करें तो लगता है कि भारत को अब भी स्त्री अधिकारों के लिहाज से कवर करने की आवश्यकता है।
भारत शिक्षा हासिल करने के मामले में 114 वें स्थान पर है और स्वास्थ्य तथा जीवित रहने के मामले में इसका स्थान 155 वें पायदान पर है। आर्थिक भागीदारी और मौके हासिल करने की पहुंच के मामले में भारत सबसे खराब प्रदर्शन करने वालों देशों में से एक है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो देश में अगर बच्चियां जन्म ले भी लेती हैं तब भी उनकी गिनती पूरी तरह स्वस्थ या पर्याप्त रूप से शिक्षित भारतीय महिला के तौर पर नहीं होती है। जो उन बाधाओं को दूर भी कर लेती हैं, उनके लिए नौकरी मिलने की संभावना कम होती है। 21वीं सदी के तीसरे दशक की शुरुआत में इसे शायद ही भारतीय समाज की उत्साहजनक तस्वीर के तौर पर देखा जाएगा जो भारत दुनिया की एक प्रमुख शक्ति बनने की ख्वाहिश रखता है।
जाहिर है सत्तारूढ़ व्यवस्था इस स्थिति के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार नहीं है। हाल ही में घर और अर्थव्यवस्था में स्त्री-पुरुष से जुड़े आयामों के अध्ययन से जुड़े प्यू सर्वेक्षण ने निराशाजनक, पिछड़े और प्रतिगामी दृष्टिकोण को ही उजागर किया जिसकी वजह से भारतीय महिलाएं समाज में वंचित रह जाती हैं और सशक्त नहीं हो पातीं। सर्वेक्षण ने पुष्टि की है कि 21 वीं सदी के तीसरे दशक में भी भारतीय समाज को लगता है कि रोजगार के मौके के मामले में पुरुषों को प्राथमिकता होनी चाहिए क्योंकि उन्हें ही घर चलाने वाले मुख्य व्यक्ति के रूप में देखा जाता है।
इस तरह की सोच ही वह पहली बाधा है जिसे एक कामकाजी महिला को दूर करने की कोशिश करनी पड़ती है। कामकाजी महिलाओं पर घर के काम और बच्चों की देखभाल का असमान बोझ और कार्यस्थल में भेदभाव या उत्पीडऩ का सामना करना पड़ता है। वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में शामिल न करने को लेकर होने वाला प्रतिरोध भी काफी परेशान करने वाला है और इससे बेहद बारीकी से हिंसक पितृसत्तात्मक समाज की चिंताएं ही जाहिर होती हैं। सोच से जुड़ी विकट बाधाओं को देखते हुए, इस बात पर तर्क संभव है कि सरकार या कोई भी सरकार महिलाओं की स्थिति को बेहतर करने के लिए क्या इतना ही कर सकती है।
वर्ष 2011-12 में 33.1 प्रतिशत का एफएलएफपीआर घटकर 20 प्रतिशत रह गया है जो दुनिया में सबसे कम है। निश्चित रूप से यह अंतर भारतीय अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन से जुड़ा है। एक विस्तारित अर्थव्यवस्था स्वत: तरीके से नौकरी के बाजार को बढ़ाती है और आखिरकार श्रम बाजारों में ऐसी स्थितियां बनाती है जिसकी वजह से कारोबार जगत स्त्री-पुरुष से जुड़े पूर्वग्रहों को दूर करने और महिलाओं की भर्ती करने के लिए मजबूर होते हैं। उदाहरण के तौर पर आईटी में नौकरी पाने वाली महिलाओं की तादाद अधिक है जो भारत का तेजी से बढ़ता क्षेत्र है और मिसाल के तौर पर अकाउंटेंसी में कार्यरत महिलाओं की बड़ी संख्या इसी बिंदु को रेखांकित करती है।
इस स्थिति में, स्त्री-पुरुष केंद्रितसरकारी नीतियां इस प्रक्रिया के पूरक के तौर पर काम करती हैं। लेकिन भारतीय अर्थव्यवस्था का दायरा वर्ष 2017 के बाद से लगातार कम हो रहा है जिससे बेरोजगारी दर नई ऊंचाई पर पहुंच गई है। अगर रूस-यूक्रेन युद्ध लंबा खिंचता है और वायरस की चौथी लहर आती है तब कोविड-19 महामारी से पहले के दौर के घाटे को पूरा करने में वर्षों लगेंगे और यह सामान्य रूप से भारतीयों और विशेष रूप से महिलाओं के लिए बुरी खबर है।
विडंबना यह है कि महिला सशक्तीकरण की राह में मोदी सरकार की दो प्रमुख आर्थिक पहलों, नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर को पहले लागू करना बड़ी बाधा साबित हुई। दोनों ने अर्थव्यवस्था की रफ्तार को धीमा करने में प्रमुख भूमिका निभाई और महिलाओं के लिए अर्थव्यवस्था में भागीदारी करने की संभावनाओं को कम कर दिया।
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