मोदी, योगी और केजरीवाल के इर्द-गिर्द घूमती भारतीय राजनीति | राष्ट्र की बात | | शेखर गुप्ता / March 11, 2022 | | | | |
चुनाव की ओर अग्रसर राज्यों में प्राय: राजनीतिक बयार का जायजा लिया जाता है। मतदाताओं से संवाद करने और जमीनी हकीकत का आकलन कर प्रेक्षक संभावित बदलाव या भविष्य के घटनाक्रम का अनुमान लगाते हैं। मगर इस बार पांच राज्यों में विधानसभा चुनावों के नतीजे हमें एक गंभीर बदलाव और इसकी अधिक परंपरागत तस्वीर पेश करते हैं। इनमें सात महत्त्वपूर्ण तथ्यों पर चर्चा की जा सकती है।
ठ्ठ भारतीय राजनीति में वर्ष 2012 में दो राजनीतिक घटनाक्रम हुए। इनमें एक नरेंद्र मोदी और दूसरा अरविंद केजरीवाल से संबंधित था। दोनों नेता अब तक अपने वादों पर खरे उतरे हैं। गुजरात में लगातार तीसरी बार चुनाव जीत कर मोदी 2014 में भाजपा में प्रधानमंत्री पद के प्रबल दावेदार बन गए। दूसरी तरफ शुरू में राजनीति से दूर रहने वाले केजरीवाल इसका हिस्सा बन गए और अपनी एक अलग पार्टी बनाने की घोषणा कर दी। ठीक एक दशक बाद अब मोदी भारतीय राजनीति में एक ऐसे व्यक्ति बन गए हैं जिनका सानी भारत में पहले कभी नहीं दिखा था। नेहरू जब प्रधानमंत्री थे तो उन्हें चुनौती देने वाला कोई नहीं था। इंदिरा गांधी उनकी पुत्री थी इसलिए उन्हें भी राजनीति में आने में कोई दिक्कत नहीं हुई। मोदी आज अपने बलबूते शिखर पर हैं। वह भारतीय राजनीति में फिलहाल अजेय लग रहे हैं। उत्तर प्रदेश में भाजपा की दोबारा जीत यह बात साबित करती है।
ठ्ठ केजरीवाल शुरू में राजनीति से दूर रहते थे। मगर जब उन्होंने अपनी पार्टी बनाई तो लोगों के मन में उन्हें और उनकी पार्टी को लेकर कई तरह के प्रश्न उठ रहे थे, मसलन केजरीवाल की विचारधारा क्या है और क्या वह भारतीय राजनीति में टिक पाएंगे आदि। अब एक दशक बाद वह भारतीय राजनीति में अपनी पहचान पुख्ता कर चुके हैं। एक राजनीतिज्ञ के तौर पर वह इस मायने में अलग हैं कि वह अब भी परंपरागत राजनीतिज्ञ से अलग आक्रामक कार्यकर्ता दिखते हैं। केजरीवाल के राजनीति में आने के बाद एक अलग तरह का राजनीतिक बदलाव आया है। वह लोक कल्याण एवं जनता से किए वादे तेजी से निभा कर हिंदुत्ववादी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से प्रतिस्पद्र्धा कर रहे हैं और राष्ट्रवाद के मोर्चे पर भी उन्होंने एक नई शुरुआत की है। केजरीवाल की पार्टी ने गांधी, नेहरू या सावरकर के सामने सरदार भगत सिंह और भीमराव आंबेडकर को खड़ा कर दिया है। अब आंबेडकर और भगत सिंह का हवाला देने वाले लोगों तथा गांधी और सावरकर के सिद्धांतों का गुणगान करने वाले धड़ों को आमने-सामने कर दें। आप जान जाएंगे कि पलड़ा किसका भारी है। दिल्ली और पंजाब में जीत दर्ज करने के बाद केजरीवाल इस वर्ष के अंत में गुजरात का रुख कर सकते हैं। गुजरात में मुस्लिम संभवत: आम आदमी पार्टी (आप) के लिए मतदान करेंगे।
ठ्ठ पिछले 60 वर्षों से देश की राजनीति कांग्रेस एवं उसकी समाजवादी एवं धर्मनिरपेक्ष देश के इर्द-गिर्द घूमती रही है। अब यह सोच अपना अस्तित्व लगभग खो चुकी है। देश अब भाजपा, आरएसएस और हिंदू राष्ट्रवाद की डगर पर चल रहा है।
ठ्ठ मुझे अब यह कहना पड़ रहा है कि देश के दो बड़े राजनीतिक दलों कांग्रेस और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का सूर्यास्त होता दिख रहा है। यह बात जरूर है कि अब भी देश के चार छोटे-बड़े राज्यों में कांग्रेस की सरकार है और कुछ संसाधनों तक इसकी पहुंच है। मगर कांग्रेस जिस तरह अपना घर स्वयं उजाड़ रही है उसे देखते हुए राजस्थान कब तक इसके पास रहेगा कहना मुकिश्ल है। कांग्रेस का नेतृत्व गंभीरता और चतुराई का परिचय देकर अब भी अपना वजूद कायम रख सकती है मगर इसका जनाधार भाजपा विरोधी दलों की ओर खिसकता जा रहा है। पश्चिम बंगाल में तृणूल कांगेस, आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी, महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, दिल्ली और पंजाब में आप कांग्रेस के मतदाताओं को अपने साथ जोडऩे में सफल रही हैं। हाल में केवल त्रिपुरा और तेलंगाना में ही उसका जनाधार भाजपा की तरफ खिसका है। तमिलनाडु में द्रमुक कब तक कांग्रेस की नैया पार लगाएगी यह एक अच्छा प्रश्न हो सकता है।
ठ्ठ उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव ने एक बुनियादी बदलाव का संकेत दिया है। यह बदलाव बसपा के लिए धूमिल होती उम्मीद का सबब बन गया है। राज्य में एक समय भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस के बीच मुकाबला हुआ करता था मगर अब चुनावी मैदान में केवल भाजपा और सपा ही रह गई हैं। बसपा का पतन इतना हो चुका है कि अब सुधार नामुमकिन है, खासकर मुस्लिम मतदाता तो पार्टी पर दोबारा कभी भरोसा नहीं करेंगे।
ठ्ठ देश की सबसे मुखर और औपचारिक धर्म आधारित पार्टी शिरोमणि अकाली दल भी राजनीतिक परिदृश्य से गायब होती दिख रही है। इसके पतन का प्रभाव चुनावी राजनीति से दूर तलक जाएगा। धर्म के माध्यम से राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने की अनोखी सिख परंपरा खत्म नहीं होगी। अगर यह परंपरा खत्म भी होगी तो दूसरे रूपों में इसका असर दिखेगा जो खासा पेचीदा होगा। पंजाब में हुआ यह बदलाव केवल राजनीतिक नहीं है। क्या उस राज्य में धर्म को राजनीति से पूरी तरह अलग रखा जा सकता है जहां किसी धार्मिक स्थल पर शक के आधार पर लोगों को पीट-पीट कर मार दिया जाता है और पुलिस मूकदर्शक बन कर रह जाती है? क्या आप शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) का चुनाव जीत सकती है? अगर जीतती है तो क्या होगा?
ठ्ठ भाजपा में अंतत: एक नए बड़े नेता का उदय हो चुका है। मोदी के बाद योगी आदित्यनाथ भाजपा के दूसरे सबसे बड़े लोकप्रिय नेता बन गए हैं। पार्टी का 'आधार' उन्हें पसंद करता है। भाजपा में तेज-तर्रार और आक्रामक सोच रखने वाले कई नेता हैं मगर योगी जैसी आभा एवं व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षाएं उनमें नहीं हैं। योगी अभी 50 वर्ष के भी नहीं हुए हैं इसलिए समय पूरी तरह उनके हाथ में हैं। भाजपा में कुछ वरिष्ठ नेताओं में योगी का उदय चिंता का कारण बन सकता है।
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