सौ नये शहरों की योजना पर पुनर्विचार की जरूरत | गुरबचन सिंह / March 10, 2022 | | | | |
विचारों के चरणबद्ध अतिक्रमण की तुलना में निहित स्वार्थों की शक्ति को अत्यधिक बढ़ाचढ़ाकर पेश किया जाता है।
-जे एम कीन्स (1936)
सन 2014 में सरकारी अधिकारियों का एक अहम मिशन था 100 नये शहरों की स्थापना करना जो स्मार्ट भी हों। समय बीतने के साथ-साथ स्मार्ट सिटी मिशन में बदलाव आया और कहा गया कि 100 मौजूदा शहरों को स्मार्ट सिटी में बदला जाएगा। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो 100 नये शहरों का विचार गति नहीं पकड़ सका। क्या मूल मिशन में नयी जान फूंकना संभव है? हां, ऐसा संभव है लेकिन इसके लिए एक जटिल लेकिन दिलचस्प किस्से की सामान्य व्याख्या से गुजरना होगा।
भारत एक बड़ा देश है। यहां 28 राज्य और आठ केंद्रशासित प्रदेश हैं। ऐसे में 100 नये और पर्यावरण के अनुकूल शहरों का मिशन बहुत महत्त्वाकांक्षी नहीं है क्योंकि सन 1947 के बाद बहुत कम नये शहर बने हैं तथा देश में अभी भी शहरी आबादी 35 फीसदी से कम है। जबकि चीन में यह 65 फीसदी से अधिक है। शहरी अचल संपत्ति विकास व्यापक तौर पर आर्थिक विकास और रोजगार निर्माण का हिस्सा है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि हमारे पास कुछ और नये शहर हों, न कि केवल मौजूदा शहरों का विस्तार हो। क्योंकि पुराने शहरों का विस्तार कई बार महंगा और गड़बड़ी भरा हो सकता है।
यह दिलचस्प है कि नए शहर बनाने के लिए ज्यादा जमीन की आवश्यकता नहीं है। कुछ आंकड़ों पर गौर कीजिए। देश के सर्वाधिक आबादी वाले 10 शहर कुल जमीन का केवल 0.2 फीसदी हिस्सा लेते हैं। जबकि समस्त शहरी क्षेत्रों की बात की जाए तो वे भी कुल जमीन का बमुश्किल चार फीसदी हिस्सा रखते हैं।
यह सही है कि हमें भूमि अधिग्रहण अधिनियम 2013 की चिंता करने की आवश्यकता नहीं है, जो अधिग्रहण को कठिन और महंगा बनाता है। यह भी सही है कि 2013 के अधिनियम में संशोधन का प्रयास नाकाम रहा। इसके बावजूद रास्ता निकल सकता है।
ऐसा नहीं है कि 2013 का अधिनियम अचानक उत्पन्न हो गया था। इसके लिए ग्रामीण और शहरी जमीन की कीमतों में लंबे समय से चला आ रहा अंतर उत्तरदायी था। ग्रामीण इलाकों में जमीन की कीमत काफी कम रही है जबकि हकीकत तो यह है कि शहरीकरण के लिए भी ग्रामीण जमीन का ही अधिग्रहण किया जाता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि 2013 के अधिनियम की मूल वजह शहरी जमीन की ऊंची कीमत में निहित है। यह बात हमें इस पूरे किस्से के दूसरे अहम हिस्से की ओर ले आती है।
यह सही है कि विनिर्माण क्षेत्र में लाइसेंस-परमिट-कोटा राज सन 1991 में ही समाप्त हो गया था। परंतु इस राज का एक स्वरूप शहरी अचल संपत्ति क्षेत्र में बना रहा। सरकार ने न तो निजी क्षेत्र को इतना सक्षम बनाया कि वह अधोसंरचना मुहैया कराए तथा बड़े पैमाने पर अतिरिक्त अचल संपत्ति विस्तार करे और न ही उसने अपने स्तर पर ऐसा कुछ किया। इससे मांग की तुलना में आपूर्ति सीमित बनी रही जिससे शहरी क्षेत्र में अचल संपत्ति की कीमतें ऊंची बनी रहीं। अब इससे निजात पाने का तरीका यही है कि अचल संपत्ति विकास के क्षेत्र में लाइसेंस-परमिट-कोटा राज को चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जाए। इससे आपूर्ति में विस्तार हो सकता है और इस प्रकार शहरी अचल संपत्ति की कीमतों में भी कमी आ सकती है। इससे 2013 के अधिनियम में संशोधन की उचित वजह मिल सकती है और इस तरह ग्रामीण क्षेत्रों में जमीन के आसान और किफायती अधिग्रहण की राह निकल सकती है।
अचल संपत्ति क्षेत्र में लाइसेंस-परमिट-कोटा राज को समाप्त करने का अर्थ केवल यह नहीं है कि मौजूदा शहरों और उनके विस्तारित इलाकों में आपूर्ति बढ़ा दी जाए। इसका एक अहम हिस्सा यह है कि 100 नये शहरों में चरणबद्ध तरीके से आपूर्ति का विस्तार किया जाए। अब जमीन के अधिग्रहण में होनेे वाली कठिनाई के अलावा इन 100 नये शहरों के मिशन के गति नहीं पकड़ पाने की एक अन्य प्रमुख वजह यह रही कि सरकार के पास इनके विकास के लिए आवश्यक धन नहीं हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो उसके पास नियोजन और क्रियान्वयन की पर्याप्त मशीनरी नहीं है। लेकिन ये अनिवार्य नहीं हैं।
सरकार को एक समुचित दीर्घकालिक नीतिगत ढांचा तैयार करना होगा जो निजी क्षेत्र की बड़ी अचल संपत्ति कंपनियों को 100 नये शहरों के निर्माण में भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करे और उन्हें सक्षम बनाए। ये कंपनियां अवधारणा तैयार करने, योजना बनाने, संसाधन जुटाने, निर्माण करने और विपणन करने के साथ-साथ सरकार के नीतिगत मानकों के अधीन ही आपूर्ति को विस्तारित कर सकती हैं। इस संदर्भ में गुरुग्राम के विकास को भी ध्यान में रखा जा सकता है।
यह सही है कि विगत सात-आठ वर्षों में कई शहरों में अनबिके अपार्टमेंट बहुत बड़ी तादाद में तैयार हो गए हैं। इससे यह संकेत मिल सकता है कि हमारे पास मांग की कमी है। चाहे जो भी हो आपूर्ति में भारी विस्तार किसी भी स्थिति में अप्रासंगिक ही नजर आता है। बहरहाल, तथाकथित अपर्याप्त मांग दरअसल बाजार मूल्य पर है जो बुनियादी मूल्य की तुलना में बहुत ज्यादा है।
अपेक्षाकृत कम कीमत पर मांग की कोई कमी नहीं है। ऐसी कम कीमत पर बहुत अधिक मांग देखने को मिल सकती है। यदि ऊपर वर्णित नीतियों को अपनाया जाता है तो समय बीतने के साथ कीमतों में कमी की जा सकती है।
अंत में, 100 नये शहरों का विचार बुनियादी रूप से तो अच्छा है लेकिन हमें उससे पहले अपने बुनियादी रुख में परिवर्तन करना होगा।
(लेखक स्वतंत्र अर्थशास्त्री एवं भारतीय सांख्यिकीय संस्थान, दिल्ली केंद्र के अतिथि प्राध्यापक हैं)
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