अमीर देश दखल दें | संपादकीय / March 03, 2022 | | | | |
संयुक्त राष्ट्र के जलवायु परिवर्तन संबंधी अंतरसरकारी पैनल (आईपीसीसी) की छठी आकलन रिपोर्ट के दूसरे हिस्से के अनुमान हालांकि पिछली रिपोर्टों से बुनियादी रूप से बहुत अलग नहीं हैं लेकिन वे पर्यावरण और सामाजिक आर्थिक संकट के पहले की तुलना में कहीं अधिक स्पष्ट तस्वीर पेश करते हैं। वैश्विक तापवृद्धि का वास्तविक प्रभाव भी पहले लगाए गए अनुमानों की तुलना में अधिक गहरा होगा। हालांकि कुछ प्रभाव ऐसा होगा जिसे टाला नहीं जा सकता है और न ही 'पलटा' जा सकता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पेरिस जलवायु परिवर्तन समझौते में किए गए उल्लेख के अनुसार वैश्विक तापमान में औद्योगीकरण के पहले यानी 1850 से 1900 के स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस का इजाफा आगामी दो दशकों में ही हो जाएगा। यदि गर्मी इससे अधिक बढ़ती है तो नई स्थिति को अपनाने के विकल्प और कम हो जाएंगे। इसके उलट खाद्य तथा जल सुरक्षा, जंगलों में लगने वाली आग, बाढ़, मानव एवं पशुओं के स्वास्थ्य, परिवहन प्रणाली, शहरी बुनियादी ढांचे, जैव विविधता तथा समुद्री संसाधनों पर भी इसका गहरा असर होगा।
भारत के लिए चिंता की बात यह है कि इसे उन देशों में शामिल किया गया जिनको जलवायु परिवर्तन के कारण गहरी आर्थिक नुकसान पहुंचेगा। ऐसे में उसे लगभग सभी मोर्चों पर गंभीर हालात के लिए तैयार रहना चाहिए। एक ओर जहां उसके समुद्री जल स्तर में इजाफा होगा, भूजल सुरक्षा प्रभावित होगी, अतिरंजित मौसम असर दिखाएगा जिससे फसल उत्पादन में कमी आएगी, जैव विविधता को क्षति पहुंचेगी तथा स्वास्थ्य संबंधी मुश्किलें पैदा होंगी। समुद्री जल स्तर में इजाफा होने से तटीय शहरों मसलन मुंबई, कोलकाता, चेन्नई, गोवा, कोच्चि और पुरी आदि में कई समस्याएं पैदा होंगी। सन 2050 तक 3.5 करोड़ तथा इस सदी केे अंत तक 4.5 से 5 करोड़ लोग तटीय इलाकों में बाढ़ आने से प्रभावित होंगे। भारतीय कृषि पर भी बुरा असर होगा और अनुमान है कि सन 2050 तक गेहूं, मोटे अनाज और दालों केे उत्पादन में नौ प्रतिशत की गिरावट आ सकती है। कृषि उपज में ऐसी बाधा कीमतों में इजाफे की वजह बनेगी और खाने पीने की उपलब्धता प्रभावित होगी। इसका असर खाद्य सुरक्षा तथा आर्थिक वृद्धि दोनों पर पड़ेगा।
अच्छी बात यह है कि भारत इन चुनौतियों से अवगत है और इनसे निपटने की तैयारी भी शुरू कर चुका है। हमने सन 2008 में ही जलवायु परिवर्तन को लेकर राष्ट्रीय कार्य योजना तैयार कर ली थी। इसके अलावा उसने 2011 में नैशनल इनीशिएटिव फॉर क्लाइमेट रेजिलिएंट एग्रीकल्चर (एनआईसीआरए) की शुरुआत की थी। फसलों की ऐसी किस्में तथा ऐसे कृषि व्यवहार तलाश किए जा रहे हैं जो जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने में सक्षम हों। ऐसे प्रयासों को दोगुना करने की आवश्यकता है।
आईपीसीसी की रिपोर्ट को मूल रूप से सितंबर 2021 में जारी होना था लेकिन महामारी के कारण इसमें देर हुई। इस पर गंभीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है क्योंकि इसे 67 देशों के 270 लेखकों ने तैयार किया है। इसमें करीब 34,000 संदर्भों का हवाला है।
महत्त्वपूर्ण बात है कि रिपोर्ट कार्बन उत्सर्जन में कमी के जरिये तापमान में कमी करने के अलावा अनुकूलन के प्रयासों पर भी जोर देती है। रिपोर्ट में अनुकूलन के कदमों में कमी का भी जिक्र किया गया है और कहा गया है कि फंडिंग, राजनीतिक प्रतिबद्धता, विश्वसनीय सूचनाओं और तात्कालिकता की भावना की कमी है। अमीर देशों पर उचित ही दोष डाला गया है कि मौजूदा जलवायु संकट के लिए वे ही उत्तरदायी हैं।
अब तरीका केवल यही है कि जलवायु परिवर्तन के साथ तालमेल बढ़ाने का प्रयास किया जाए। इससे भारत की ओर से ग्लासगो में आयोजित पिछली शिखर बैठक में उठाए गए कदमों की प्रासंगिकता बढ़ेगी। विशेष रूप से समता, जलवायु न्याय, तथा असीमित खपत को थामने की उसकी मांग को लेकर। विकसित देशों को उत्सर्जन में कमी करनी चाहिए तथा विकासशील देशों को तालमेल बिठाने के लिए वित्तीय मदद देनी चाहिए।
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