नई बनाम पुरानी पेंशन विवाद को मिला बल | इंदिवजल धस्माना / नई दिल्ली March 02, 2022 | | | | |
राजस्थान सरकार की तरफ से नई पेंशन योजना की जगह पुरानी पेंशन योजना को बहाल करने की घोषणा ने बुजुर्गों की सुरक्षा को लेकर बनाए गए दो सेटों के विवाद को दोबारा से हवा दे दी है जिसको लेकर कई लोगों का मानना था कि इसे शांत किया जा चुका है।
यूनियनें पुरानी पेंशन योजना (ओपीएस) को फिर से बहाल करने की मांग कर रहे हैं लेकिन व्यापक तौर पर इसे एक ऐसी अपील के तौर पर देखा जा रहा था जिसे कभी पूरा नहीं किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश में चालू विधानसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की तरफ से पुरानी पेंशन को दोबारा से लाने के चुनावी वादे को भी कई लोगों ने राजनीतिक बयानबाजी कहकर खारिज कर दिया।
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की तरफ से बुधवार को बजट में इस बात की घोषणा की गई कि जिन लोगों ने 1 जनवरी, 2004 के बाद से राज्य सरकार की सेवाओं में नियुक्त हुए हैं उन्हें अगले वित्त वर्ष से पुरानी पेंशन योजना के दायरे में लाएगा।
पेंशन कोष नियामक और विकास प्राधिकरण के एक पूर्व अधिकारी ने कहा, 'मुझे इस बात का डर है कि अब अन्य राज्य राजस्थान का अनुसरण करेंगे।'
सरकारी कर्मचारी राष्ट्रीय परिसंघ के महासचिव साधु सिंह ने कहा कि अन्य राज्यों को भी इसका अनुसरण करना चाहिए क्योंकि नई पेंशन योजना (एनपीएस) ने सरकारी कर्मचारियों में असुरक्षा का भाव पैदा किया है। इस परिसंघ को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ समर्थित भारतीय मजदूर संघ की मान्यता प्राप्त है। गहलोत ने अपने बजट भाषण में यह भी कहा कि एनपीएस ने 1 अप्रैल, 2004 से राज्य सरकार से जुडऩे वाले कर्मचारियों में सेवानिवृत्ति के बाद असुरक्षा का भाव पैदा किया है।
इन कर्मचारियों को एनपीएस के तहत कवर किया जाता है जिसमें सरकार और कर्मचारी बराबर बराबर रकम का योगदान करते हैं जिसे कर्मचारी की इच्छा और दिए गए दिशानिर्देशानुसार डेट या इक्विटीज में निवेश किया जाता है। यह ओपीएस से बिल्कुल अलग है। ओपीएस में सेवानिवृत्ति पा चुके कर्मचारी को उसके अंतिम वेतन का एक हिस्सा सामान्यतया 50 फीसदी पेंशन के तौर पर दिया जाता था जिसमें महंगाई भत्ता भी शामिल होता था। महंगाई भत्ता हर छह महीने पर घोषित की जाने वाली मुद्रास्फीति से जुड़ा होता था।
पीएफआरडीए के पूर्व अंतरिम चेयरमैन डी स्वरूप मानते हैं कि यह मानना बचकानी हरकत होगी कि सेवारत कर्मचारी अभी से असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।
स्वरूप ने बिजनेस स्टैंडर्ड से कहा, 'लोगों को एनपीएस के फायदे नजर नहीं आए हैं क्योंकि 1 जनवरी, 2004 के बाद से सरकारी सेवाओं में आने वाले कर्मचारी अभी सेवानिवृत्त नहीं हुए हैं।'
उनके मुताबिक ओपीएस के उलट एनपीएस में कोई नीतिगत जोखिम नहीं है। उन्होंने स्पष्ट किया, 'अब कोई नीतिगत जोखिम नहीं रह गया है। तकनीकी तौर पर कहें तो पहले एक नीतिगत जोखिम हो सकता था। केंद्र सरकार को कभी धन की कमी नहीं होगी। लेकिन किसी खास राज्य सरकार को ध्यान में रखकर बात करें तो कभी किसी राज्य के पास वेतन और पेंशन देने के लिए पैसे नहीं रहे तब क्या होगा? लिहाजा, पुरानी योजना में चूक की गुंजाइश हो सकती है।'
पीएफआरडीए के चेयरमैन सुप्रतिम बंदोपाध्याय ने यह कहकर बहस में पडऩे से इनकार कर दिया कि दोनों अलग अलग प्रकार की योजनाएं हैं। उन्होंने कहा, 'आप सेब को केवल सेब से ही तुलना कर सकते हैं। ओपीएस में आपके फायदे में आपके योगदान का ख्याल नहीं रखा जाता है जबकि एनपीएस में ऐसा होता है। इन दोनों योजनाओं की तुलना नहीं हो सकती है।'
पीएफआरडीए कानून जब लाया गया था तो पी चिदंबरम वित्त मंत्री थे। इसके तहत पेंशन नियामक को कानूनी अधिकार दिए गए थे। उन्होंने इस पर प्रतिक्रिया देने से इनताकर कर दिया और कहा कि राजस्थान सरकार के फैसले का अध्ययन करने की जरूरत है।
सलाहकार फर्म पर्सनल फाइनैंस प्लान के संस्थापक दीपेश राघव ने कहा कि ओपीएस की तरफ जाना एक प्रतिगामी और सुधार विरोधी कदम है। उन्होंने कहा कि राजनेता देयताओं के बारे में नहीं सोच रहे हैं, इसे से आने वाली सरकारों पर लाद रहे हैं।
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