यूक्रेन के अनुभव से सीखने की जरूरत | प्रसेनजित दत्ता / March 01, 2022 | | | | |
यूक्रेन पर रूसी सेना के आक्रमण के बाद वहां फंसे भारतीय विद्यार्थियों पर पूरे देश की नजरें टिक गई हैं। ये विद्यार्थी वहां चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करने गए थे। यूक्रेन में मची अफरातफरी और रूस के लगातार आक्रामक होते रुख के बीच वे अब स्वदेश लौटने के लिए व्यग्र हैं और किसी भी तरह वहां से तत्काल निकलने का प्रयास कर रहे हैं। सैकड़ों विद्यार्थियों ने बंकरों में शरण ले रखी है और उनके पास न पैसे हैं और न भोजन ही उपलब्ध है। कई विद्यार्थी जोखिम मोल लेते हुए पैदल ही यूक्रेन के पड़ोसी देश पोलैंड और रोमानिया की सीमाओं तक बढ़ रहे हैं। उन्हें उम्मीद है कि इन देशों से उन्हें भारत सरकार सुरक्षित निकाल लेगी। सोशल मीडिया पर ऐसी कई पोस्ट हैं जिनमें ये विद्यार्थी भारत सरकार से तत्काल मदद की मांग कर रहे हैं।
इस घटनाक्रम के बाद एक पुराना प्रश्न फिर खड़ा हो गया है। वह प्रश्न यह है कि क्यों इतनी बड़ी संख्या में भारतीय विद्यार्थी चिकित्सा, अभियांत्रिकी और दूसरे विषयों की पढ़ाई के लिए विदेश जाते हैं? यहां तक के वे उन देशों में जाने से नहीं हिचकते हैं जो शिक्षा के केंद्र के रूप में अव्वल नहीं समझे जाते हैं और जहां अंग्रेजी प्रमुख भाषा भी नहीं है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी यह कहना पड़ा है कि भारत से बड़ी संख्या में विद्यार्थी छोटे देशों में भी पढ़ाई के लिए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री ने निजी क्षेत्र से देश में और अधिक चिकित्सा महाविद्यालय खोलने के लिए कहा है। यह बात सभी जानते हैं कि हरेक वर्ष अध्ययन के लिए विदेश जाने वाले भारतीय विद्यार्थियों की संख्या लगातार बढ़ रही है। वर्तमान में 7.70 लाख से अधिक भारतीय विद्यार्थी विभिन्न देशों में हैं और वे पढ़ाई और रहने-खाने पर करीब 28 अरब डॉलर से अधिक रकम खर्च कर रहे हैं। सलाहकार कंपनी रेडसियर का अनुमान है कि 2024 तक विदेश में भारतीय विद्यार्थियों की संख्या बढ़कर लगभग 18 लाख तक हो जाएगी और उनका अनुमानित खर्च बढ़कर 80 अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा।
यह समझना सरल है कि क्योंधनी एवं मध्यम-आय वाले भारतीय परिवारों के विद्यार्थी अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया या सिंगापुर जैसे शिक्षा के लिए लोकप्रिय माने जाने वाले देश जाते हैं। उन देशों में बड़े महाविद्यालयों में नामांकन पाने, वहीं कार्य करने की अनुमति पाने और बाद में वहीं बसने की ललक इन विद्यार्थियों को इन देशों तक खींच ले जाती है। इस बात पर प्राय: किसी का ध्यान नहीं जाता है कि बड़ी संख्या में भारतीय विद्यार्थी यूक्रेन, किर्गिस्तान, कजाकिस्तान, पोलैंड, रूस या चीन में चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई करने जाते हैं। कई भारतीय विद्यार्थियों के लिए ये देश पसंदीदा जगह बन गए हैं। केवल यूक्रेन में ही करीब 18,000 भारतीय विद्यार्थी हैं।
इसकी एक वजह यह हो सकती है जिसका जिक्र प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में किया है। उन्होंने देश में चिकित्सा महाविद्यालयों की कमी होने की बात कही है। देश में हरेक साल 16 लाख से अधिक विद्यार्थी नीट परीक्षा देते हैं। देश में चिकित्सा महाविद्यालयों में एमबीबीएस के लिए करीब 83,000 सीट हैं जिनमें 44,000 सरकारी महाविद्यालयों में हैं। इन महाविद्यालयों में एमबीबीएस की पढ़ाई कम खर्च में पूरी हो जाती है और पढ़ाई की गुणवत्ता भी अच्छी मानी जाती है। शेष सीटें निजी चिकित्सा महाविद्यालयों में हैं जहां पढ़ाई के मानक अलग-अलग हैं मगर फीस बहुत अधिक है। किसी निजी चिकित्सा महाविद्यालय से एमबीबीएस की पढ़ाई करने में एक विद्यार्थी को 1 करोड़ रुपये से अधिक रकम खर्च करनी पड़ती है। यूक्रेन, चीन, रूस, फिलिपींस और किर्गिस्तान जैसे देशों में यह रकम 20 से 45 लाख रुपये तक हो सकती है।
इनमें कई देशों में पढ़ाई की गुणवत्ता उच्च-स्तरीय है और भारत की तुलना में शिक्षक-छात्र का अनुपात बेहतर है। इन देशों में प्राप्त की गई डिग्री को यूरोप के कई हिस्सों में मान्यता मिली हुई है। अगर कोई विद्यार्थी भारत वापस लौटना चाहता है तो उसे सबसे पहले एक कठिन परीक्षा उत्तीर्ण करनी पड़ती है। यह परीक्षा पास करने के बाद ही उसे भारत में इलाज (प्रैक्टिस) करने की अनुमति दी जाती है।
क्या देश में निजी क्षेत्र द्वारा अधिक संख्या में चिकित्सा महाविद्यालयों की स्थापना से वर्तमान समस्या दूर हो जाएगी? पेशेवर पाठ्यक्रमों सहित शिक्षा में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढऩे से खर्च में कमी नहीं आई है। वास्तव में पढ़ाई करने में बेतहाशा खर्च हो रहा है जबकि शिक्षा की गुणवत्ता अपेक्षित नहीं है।
इंजीनियरिंग की पढ़ाई के साथ एक और समस्या है। भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद के तमाम प्रयासों के बावजूद बड़ी संख्या में निजी महाविद्यालयों में शिक्षा के मानक काफी खराब हैं। इन महाविद्यालयों से निकले विद्यार्थियों के लिए रोजगार खोजना काफी मुश्किल होता है।
बिजनेस स्कूलों में पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों के साथ भी लगभग यही समस्या पेश आती है। यहां यह तर्क नहीं दिया जा रहा है कि भारत में श्रेष्ठ निजी विश्वविद्यालयों और महाविद्यालय नहीं हैं मगर वास्तविकता यह है कि इनमें पढ़ाई करना काफी खर्चीला है और मध्यम-आय वर्ग के परिवारों के बच्चों के लिए इनमें दाखिला पाना लगभग असंभव हो जाता है। केंद्र और राज्य सरकारें ऐसे महाविद्यालय और विश्वविद्यालय स्थापित करने में सुस्त रही हैं जहां कम खर्च में गुणवत्ता पूर्ण शिक्षा प्राप्त की जा सकती हैं। केंद्र और राज्य सरकारों के बजट में शिक्षा के लिए आवंटन उस अनुपात में नहीं होता है जिस अनुपात में भारत जैसी आबादी वाले देश के हिसाब से होना चाहिए। शिक्षा के लिए उच्च मानक लागू करने के लिए संसाधनहीन नियामकों की वजह से यह समस्या और अधिक बढ़ जाती है।
पहले प्रकाशित हो चुके आलेख में मैंने इस बात का उल्लेख किया था कि भारत अपनी युवा आबादी का लाभ लेने में विफल रहा था क्योंकि यहां शिक्षा पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया। इसकी एक वजह यह भी रही कि एक के बाद एक सरकारों ने शिक्षा क्षेत्र पर उतना ध्यान नहीं दिया जितना दिया जाना चाहिए था।
शिक्षा के लिए कम आवंटन ही एक मात्र समस्या नहीं है। सरकार निरंतर शिक्षा को बढ़ावा देने में सुस्त रही है। भारत जब स्वाधीन हुआ तो तत्कालीन सरकार देश में विश्व-स्तरीय शिक्षण संस्थान स्थापित करने और दुनिया के अग्रणी विश्वविद्यालयों की मदद से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान और भारतीय प्रबंध संस्थान स्थापित करने को लेकर गंभीर थी। मगर कालांतर में शिक्षा क्षेत्र एक के बाद एक सरकारों की प्राथमिकताओं की सूची में फिसला गया। नई शिक्षा नीति में अवश्य कुछ अच्छे सुझाव दिए गए हैं। मगर एक बार फिर इस नीति का क्रियान्वयन और इनसे सामने आने वाले परिणामों की सूक्ष्मता से समीक्षा एक महत्त्वपूर्ण पक्ष रहेगा।
(लेखक बिज़नेस टुडे और बिज़नेस वल्र्ड के पूर्व संपादक तथा संपादकीय सलाहकार संस्था प्रोजैकव्यू के संस्थापक हैं)
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