नई व्यवस्था का संतुलन | संपादकीय / March 01, 2022 | | | | |
यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद जो घटनाक्रम सामने आया है उससे यही संकेत मिलता है कि यह संघर्ष लंबा चलेगा और यूरोप तथा अमेरिका दोनों इसमें शामिल होंगे। इसके अलावा अनिवार्य तौर पर भूराजनीतिक प्राथमिकताएं एवं गठबंधन बदल जाएंगे। यह बदलाव भारत के अंतरराष्ट्रीय संबंधों के स्वरूप और दायरे दोनों को प्रभावित करेगा, खासतौर पर चीन के बढ़ते वैश्विक दबदबे को संतुलित करने की कोशिश में अमेरिका के साथ भारत की संबद्धता को देखते हुए। चीन भारत की उत्तरी और पूर्वी सेना पर अपना शक्ति प्रदर्शन कर रहा है, ऐसे में अमेरिका के सामरिक रुख में बदलाव भारत के लिए गहरी चिंता का विषय होगा।
साधारण शब्दों में कहें तो अमेरिकी प्रशासन का ध्यान अटलांटिक गठजोड़ पर होना हिंद-प्रशांत क्षेत्र पर उसका जोर कम कर सकता है जबकि इस क्षेत्र में भारत की अहम भूमिका है। इसका सबसे स्पष्ट प्रमाण था अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया के बीच क्वाड सुरक्षा गठजोड़, जिसे अमेरिका के पिछले राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप और वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडन दोनों के कार्यकाल में गति मिली। हालांकि क्वाड के निर्माण की घोषित वजह थी एक 'मुक्त, खुला और समृद्ध प्रशांत' क्षेत्र तैयार करना। यह मूल रूप से एक सुरक्षा गठजोड़ है जो चीन के क्षेत्रीय दबदबे के खिलाफ है। इसने बीते कुछ वर्षों में कई संयुक्त समुद्री सैन्य अभ्यास भी किए। ऐसे में सवाल उठते हैं कि भारत बदलती भू-राजनीतिक हकीकतों के दरमियान अपनी प्रासंगिकता कैसे बनाए रखेगा?
कुछ टीकाकारों का सुझाव है कि भारत को उदार बहुलतावादी संस्कृति वाले लोकतंत्र के रूप में अपनी शक्ति का इस्तेमाल करना चाहिए। हालांकि ये भारत के लिए वांछित मूल्य हैं लेकिन अधिनायकवादी चीन का उदय दिखाता है कि ये मूल्य अपने आप में पर्याप्त वजह नहीं हैं। नई विश्व व्यवस्था में भारत की प्रासंगिकता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह विश्व बाजार में उसका आर्थिक कद कैसा है और वह निवेशकों के लिए कितना आकर्षक तथा कारोबार की दृष्टि से कितना उपयोगी है। यह बात याद करने लायक है कि अमेरिका ने ऐसे समय में असैन्य परमाणु समझौते को आगे बढ़ाया था जब भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूती से बढ़ रही थी। परंतु अब अर्थव्यवस्था की स्थिति वैसी नहीं है। इसके विपरीत आर्थिक नीति हाल के वर्षों में सुधार पूर्व के दौर की याद दिलाती है। दरों में इजाफा करके अवरोध उत्पन्न किया जा रहा है तथा आत्मनिर्भर भारत के नारे के पीछे हर मामले में स्व सक्षम होने की धारणा निहित है। इस लक्ष्य की तलाश में सरकार ने मोबाइल फोन से लेकर कपड़ा तक करीब 20 उद्योगों के लिए आयात प्रतिस्थापन का विकल्प चुना है और उन्हें आयात प्रतिस्पर्धा से बचाने का तय किया है। ऐसा करके कोई देश समृद्ध नहीं हुआ।
उस दृष्टि से देखें तो रणनीतिक क्षमताएं विकसित करने के लिए कुछहद तक आत्मनिर्भरता जरूरी है। उदाहरण के लिए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) ने 120 बड़े, मझोले और छोटे उपक्रमों का एक मजबूत विनिर्माण तंत्र निर्मित किया है। वाहन कलपुर्जा उद्योग जिसे गड़बडिय़ों की आशंका वाला माना जाता था उसने भी घरेलू वाहनों की मांग की बदौलत अपने आपको विश्व स्तरीय निर्यातक में बदल लिया है। परंतु लागत प्रतिस्पर्धा से संचालित वैश्विक व्यवस्था में वैश्विक आपूर्ति शृंखलाओं के महत्त्व की अनदेखी करना मुश्किल है। इसरो भी कुछ कलपुर्जों को उच्च स्तरीय प्रक्रियाओं के लिए जापान भेजता है। क्षेत्रीय व्यापार साझेदारियों से बाहर होना आर्थिक और राजनीतिक संकेत दोनों दृष्टियों से नुकसानदेह है। दूसरे शब्दों में भारत की आर्थिक नीति में आत्मनिर्भरता के लाभ और वैश्वीकरण के लाभों का संतुलन जरूरी है। जरूरत यह है कि भारत को बाजारोन्मुखी अर्थव्यवस्था बनाने पर ध्यान केंद्रित किया जाए। इस दौरान शिक्षा और स्वास्थ्य में निवेश के साथ प्रक्रियाओं को सुसंगत बनाना होगा। यदि ऐसा किया जा सका तो वैश्विक व्यवस्था में भारत के महत्त्वपूर्ण बने रहने की गारंटी है।
|