मुश्किल वक्त का सामना | साप्ताहिक मंथन | | टी. एन. नाइनन / February 25, 2022 | | | | |
एक ऐसे देश के लिए जो अपनी जरूरत का 85 प्रतिशत तेल आयात करता हो उसके लिए न तो युद्ध अच्छी खबर है और न ही बढ़ती तेल कीमतें। कच्चे तेल की कीमतें सात वर्ष बाद 100 डॉलर प्रति बैरल का स्तर पार कर गई हैं और ऐसे में तेल के मोर्चे पर झटका लगना तय है। गैस के मामले में भी हम झटके से नहीं बच पाएंगे क्योंकि हमारी खपत की लगभग आधी प्राकृतिक गैस आयात की जाती है। कोयले के मामले में भी भारत तीसरा सबसे बड़ा आयातक है। पेट्रोल और डीजल कीमतों में नवंबर से इजाफा नहीं किया गया है जबकि बीते दो महीने में ही कच्चे तेल की कीमतें 25 फीसदी बढ़ चुकी हैं। ऐसे में मार्च के मध्य तक खुदरा कीमतों में तीव्र वृद्धि देखने को मिल सकती है क्योंकि उस समय तक राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों की मतगणना भी समाप्त हो चुकी होगी। तब घरेलू गैस की कीमतों में भी इजाफा हो सकता है।
इससे तथा पेट्रोल पंपों पर लोगों की खीझ से बचने के लिए बेहतर यही होगा कि सरकार उस कर वृद्धि को वापस ले जो उस समय की गई थी जब तेल कीमतें 2014 के अपने उच्चतम स्तर से नीचे आ रही थीं। इससे राजस्व की कुछ हानि अवश्य होगी लेकिन अगले वर्ष के बजट में कुछ बचाव अंतर्निहित है और सरकार नुकसान सह सकती है। बीच के वर्षों में उपभोक्ता यह शिकायत भी करते रहे हैं कि तेल कीमतों में कमी का लाभ उन्हें नहीं मिलने दिया गया। यदि कीमतें बढऩे के बाद भी खुदरा कीमतों में बदलाव नहीं किया जाता है और उसका बोझ राजकोष वहन करता है तो उन्हें यह बात समझ में आएगी। बुरे समय में राहत प्रदान करने के लिए अच्छे दिनों में बचाव तैयार करना समझदारी की बात है।
हालांकि व्यापक प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता है। लगभग सभी उद्योगों में कच्चे माल की कीमतें बढ़ेंगी। बिजली उत्पादक कंपनियों की ईंधन की लागत में भी इजाफा होगा। सरकार उपभोक्ताओं को कितनी राहत प्रदान कर पाएगी यह बाजार के गुणाभाग पर निर्भर करेगा। वहीं बिजली वितरण कंपनियां (ज्यादातर सरकारी) पारंपरिक तौर पर सब्सिडी का मार्ग अपनाना पसंद करती हैं। निश्चित तौर पर वर्तमान चुनावों के प्रचार अभियान में भी नि:शुल्क बिजली का वादा किया गया है। परंतु चूंकि बिजली पर पहले ही औसतन 25 फीसदी की सब्सिडी है, तो बिजली की दरों में कुछ इजाफा अपरिहार्य हो सकता है।
इन हालात में इस बात की संभावना बहुत कम है कि बजट में किए गए उल्लेख के अनुरूप अगले वित्त वर्ष में मुद्रास्फीति को तीन फीसदी के दायरे में रखा जा सकेगा। ऐसे में रिजर्व बैंक जो अब तक मुद्रास्फीति के मोर्चे पर राहत मिलने की आशा में ब्याज दरों को लेकर शिथिलता बरत रहा था, वह अपना रुख संशोधित कर सकता है। दरों में मामूली इजाफा शायद वृहद आर्थिक प्रभाव के मामले में शायद निकट भविष्य में बहुत असरकारक न हो। सरकार समेत सभी कर्जदार और कर्जदाता संकेत ग्रहण करेंगे और नए सिरे से आकलन करेंगे। यह पूरा घटनाक्रम बजट की तुलना में परिदृश्य को असहज बनाने वाला है। अहम बात यह है कि अर्थव्यवस्था खराब स्थिति में नहीं है और व्यापार घाटे तथा विदेशी मुद्रा भंडार के मामले में हम पहले से बेहतर हैं।
इन हालात का मतलब यह है कि उपभोक्ताओं को खरीद का साहस जुटाने में अभी वक्त लगेगा, वृद्धि धीमी रहेगी और महामारी के असर से पूरी तरह निजात पाने में लगने वाला वक्त बढ़ जाएगा। इस बारे में कोई कुछ नहीं कर सकता, तेल के मोर्चे पर जब भी झटका लगा है तब अर्थव्यवस्था को अवश्य क्षति पहुंची है। एक बार फिर अगर अतीत से तुलना की जाए तो चिंतित होने की कोई खास वजह नहीं है। मुद्रास्फीति के समायोजन के बाद तेल की 100 डॉलर प्रति बैरल कीमत 2013-14 के 100 डॉलर प्रति बैरल के समान नहीं है।
यह सवाल बरकरार है कि तेल कीमतें कब तक ऊंची बनी रहेंगी। अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन के कड़े रुख (भिंचे जबड़े और संकुचित आंखें), रूस पर पश्चिमी प्रतिबंधों से ऊर्जा क्षेत्र बाहर है। यूरोप के तेल और गैस का एक चौथाई रूस से आता है और अटलांटिक के दोनों ओर सरकारें नहीं चाहेंगी प्रतिबंधों के चलते उन्हें ऊर्जा संकट का सामना करना पड़े। इस प्रक्रिया में रूस ऊंची कीमतों पर निर्बाध निर्यात जारी रखेगा और भारत जैसे आयातक देशों को मुश्किल हालात की तैयारी रखनी होगी।
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