कृषि पर वैश्विक समझौते में सुधार की जरूरत | खेती-बाड़ी | | सुरिंदर सूद / February 23, 2022 | | | | |
वैश्विक स्तर पर कृषि क्षेत्र से संबंधित एग्रीमेंट ऑन एग्रीकल्चर (एओए) पर हस्ताक्षर हुए ढाई दशक से अधिक समय हो गया है और द्विवार्षिक मंत्री-स्तरीय सम्मेलनों में इसमें कई संशोधन भी हो चुके हैं। मगर इतनी लंबी अवधि बीतने के बाद भी विकसित और विकासशील देशों के बीच कृषि क्षेत्र में समानता का घोर अभाव है। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) के तहत यह समझौता हुआ था। इस समझौते में कई खामियां एवं असंतुलन थे और विकसित देशों के हितों को अधिक महत्त्व दिया गया था। विकसित देश अपने यहां पैदा होने वाले कृषि उत्पादों का अधिक से अधिक मूल्य पाने के लिए बड़े बाजार की तलाश करते रहे हैं। विकासशील देशों में कृषि क्षेत्र को स्थानीय स्तर पर समर्थन, निर्यात संवद्र्धन सब्सिडी और खाद्य सुरक्षा के लिए खाद्यान्न भंडारण जैसे कई महत्त्वपूर्ण विषयों पर विकसित देशों को आपत्ति रही है। इससे विकासशील देशों के लिए एक बड़ी समस्या पैदा हो गई है।
इन बातों की पृष्ठभूमि में एओए में व्यापक बदलाव की जरूरत है। इसके बाद ही एक नियम आधारित, उचित एवं संतुलित व्यापार ढांचा तैयार हो पाएगा जो छोटे एवं पिछड़े किसानों की विशेष जरूरतों के प्रति संवेदनशील होगा। डब्ल्यूटीओ के 12वें मंत्री-स्तरीय सम्मेलन में ऐसा करना उपयुक्त होगा। यह सम्मेलन कजाकिस्तान में जून 2020 में आयोजित होना था मगर कोविड-19 महामारी की वजह से यह टाल दिया गया था। अब दुनिया के ज्यादातर देशों में संक्रमण कम हो गया है इसलिए उम्मीद है कि जल्द ही यह बैठक आयोजित होगी। एओए समझौते का ढांचा तब तैयार हुआ था जब विकासशील देशों के प्रतिनिधियों ने कृषि क्षेत्र की जरूरतों को समझने की ओर ध्यान नहीं दिया। इन प्रतिनिधियों में ज्यादातर व्यापार एवं वाणिज्य विभाग के अधिकारी मौजूद थे। इस समझौते से जुड़ी बातचीत में शामिल होने वाले भारतीय अधिकारियों में अधिकांश वाणिज्य मंत्रालय से संबद्ध थे। जब समझौते पर मुहर लगी तो उस समय कृषि विशेषज्ञों से शायद ही सलाह ली गई। यहां तक कि कृषि मंत्रालय को भी पूरी बातचीत में शामिल नहीं किया गया। विकसित देशों के वार्ताकारों का इस बातचीत में खासा दबदबा रहा और वे अपनी शर्तें मनवाने में सफल रहे। उन्होंने विकासशील देशों के हितों की अनदेखी करते हुए अपने वाणिज्यिक हितों को आगे रखा।
विकसित देशों ने विकासशील देशों को अपने औद्योगिक एवं कृषि उत्पादों के लिए महज एक बाजार के रूप में देखा। इस समझौते के बाद जो हुआ उसमें हैरान होने वाली कोई बात नहीं थी। इस समझौते के बाद विकसित देशों में कृषि सब्सिडी बढ़ाने की खासी गुंजाइश मिल गई, वहीं विकासशील देशों को यह अधिकार नहीं दिया गया। सच्चाई यह है कि विकासशील देशों में कृषि क्षेत्र को कहीं अधिक सब्सिडी की जरूरत होती है। कृषि क्षेत्र को मिलने वाले इस सब्सिडी समर्थन की सीमा तय करने वाला मानक (1986-88 के दौरान कृषि जिंसों की कीमतें) भी धनी देशों के लिए अनुकूल साबित हुआ। इससे विकसित देश अपने किसानों के लिए वित्तीय मदद बढ़ाते गए जबकि विकासशील देशों को एक विशेष प्रावधान के तहत मौजूदा समर्थन कार्यक्रम एक निश्चित अवधि तक चलाने की अनुमति दी गई। इसका नतीजा यह हुआ कि विकसित देशों में कई कृषि उत्पादों का उत्पादन जरूरत से अधिक होने लगा जिससे वैश्विक स्तर पर इनकी कीमतें कम हो गईं। इसका सीधा असर विकासशील देश के किसानों की आय पर हुआ।
भारत जैसे देशों को अतिरिक्त कृषि उत्पादों का निर्यात करने में हमेशा दिक्कत पेश आई है। इसकी वजह यह रही है कि कृषि उत्पादों का निर्यात बढ़ाने के लिए विशेष वित्तीय प्रोत्साहन देने के मामले में विकासशील देशों के हाथ बांध दिए गए हैं। भारत एओए में भारी खामियों का एक बड़ा भुक्तभोगी रहा है। इस समझौते के तहत लादी गई कड़ी शर्तों के कारण भारत किसानों एवं कृषि उत्पादों के उपभोक्ताओं के कल्याण के लिए खुलकर उपाय नहीं कर पा रहा है। भारत कृषि जिंसों जैसे चीनी, कपास, गेहूं और चावल आदि के लिए चलाए जा रहे समर्थन कार्यक्रम के लिए डब्ल्यूटीओ में कई विवादों का सामना कर रहा है। डब्ल्यूटीओ में समर्थन मूल्य आधारित खाद्यान्न खरीद और खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम के वास्ते अनाज भंडारण के लिए भी भारत को विकसित देशों की आपत्ति का सामना करना पड़ रहा है। भारत ने एओए के तहत मिली कुछ रियायत का लाभ उठाने की कोशिश की है मगर यह भी विकसित देशों को रास नहीं आ रहा है। राष्ट्रीय कृषि विज्ञान अकादमी ने सरकार को सलाह दी है कि उसे एओए में मौजूद खामियों को दूर करने के लिए अन्य देशों के साथ वार्ता करनी चाहिए। अकादमी ने दिसंबर के अंत में डब्ल्यूटीओ से जुड़े विषयों पर एक नीति पत्र जारी किया था। इस पत्र में समर्थन अधिकारों के लिए किए गए समूल उपायों की समीक्षा करने पर जोर दिया गया है। इन प्रावधानों की मदद से विकसित देशों को 'अंबर बॉक्स' के तहत अपने किसानों को लाभ देने देने में मदद मिलती है। इस बॉक्स में सब्सिडी का जिक्र है। सब्सिडी को केवल नियंत्रित किया जाना चाहिए, न कि इसे समाप्त किया जाना चाहिए। भारत सहित कई देश मूल्य समर्थन आधारित खाद्यान्न खरीद और आपात स्थिति से निपटने के लिए अतिरिक्त भंडारण करते हैं, इसे देखते हुए 'संदर्भ मूल्य' की अवधि में भी सुधार की जरूरत है। एओए में यह अवधि 1986-88 रखी गई है।
वर्तमान संदर्भ मूल्य से भारत जैसे देशों में किसानों को मिलने वाले न्यूनतम समर्थन मूल्य पर असर होता है। विकासशील देशों को उन्हें मिलने वाले विशेष रियायतों को समाप्त करने वाले प्रयासों का विरोध करना चाहिए। विकसित देश खासकर 'डेवलपमेंट बॉक्स' (अनुच्छेद 6.22) के तहत दिए जा रहे समर्थन को सीमित करने की कोशिश कर रहे हैं। विकसित देशों की यह मांग मान ली गई तो इसका सीधा मतलब होगा कि विकासशील देशों को अपने यहां न्यूनतम समर्थन में भी कटौती करनी होगी। यह समर्थन इस समय किसी उत्पाद के मूल्य का 10 प्रतिशत तक सीमित है। ये सभी महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं जिन पर सरकार को डब्ल्यूटीओ के मंचों पर कृषि संबंधित रणनीति तैयार करते वक्त भविष्य की चर्चाओं में ध्यान में रखने की जरूरत है।
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