आर्थिक समीक्षा में इस बात पर जोर दिया गया था कि पूंजीगत व्यय बढ़ाने के लिए पर्याप्त राजकोषीय गुंजाइश मौजूद है। थोड़ा उलझाऊ होने के बावजूद मैं इस बात को लेकर आशान्वित था। यदि यह सही साबित होता है तो इसका अर्थ यह है कि सरकार ने उस राजकोषीय संकट से निपटने का तरीका निकाल लिया है जिसे मैं सन 2019 से ही रेखांकित करता आया हूं। यह खेद की बात है कि वर्ष 2022-23 के बजट में उल्लिखित वृहद राजकोषीय परिदृश्य को लेकर मेरा विश्लेषण दिखाता है कि केंद्र सरकार के राजकोषीय वित्त को प्रभावित करने वाला राजकोषीय संकट बरकरार है। वित्त वर्ष 2022 का विशुद्ध कर राजस्व (2,20,000 करोड़ रुपये) रहा जो बजट में उल्लिखित जीडीपी के 7.6 फीसदी के स्तर से अधिक है लेकिन वित्त वर्ष 2023 में इसके घटकर 7.5 फीसदी रहने का अनुमान है। यह लगातार जीडीपी के 8 फीसदी के उस स्तर से कम बना हुआ है जो सरकार ने वित्त वर्ष 2018 में तय किया था। वृद्धि में मंदी की शुरुआत होने के बाद विनिवेश प्राप्तियों में कमी बनी रही। बावजूद इसके कि सरकार बार-बार ऐसी प्राप्तियां बढ़ाने का प्रयास कर रही थी ताकि सार्वजनिक व्यय के लिए संसाधन जुटाए जा सकें। वित्त वर्ष 2022 में सरकार अपने लक्ष्य से 100,000 करोड़ रुपये पीछे रही और एयर इंडिया की कुछ देनदारी निपटाने के लिए भी उसे पूंजीगत व्यय वहन करना पड़ा। यानी यह सरकार वित्त वर्ष 2017 में वृद्धि में धीमापन आना शुरू होने के बाद से निरंतर अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप कर लगाने या विनिवेश करने में नाकामयाब रही है। यह इस संकट का चौथा वर्ष है। ज्यादा से ज्यादा यही कहा जा सकता है कि वित्त मंत्रालय ने संसाधन जुटाने में अपनी अक्षमता को स्वीकार कर लिया है और अपने कर, गैर कर तथा विनिवेश लक्ष्य में उसी अनुरूप कटौती की है। परंतु वित्त वर्ष 2023 में अपनी कमी स्वीकार करने तथा राजस्व और विनिवेश अनुमान को कम करने तथा आर्थिक समीक्षा में राजकोषीय गुंजाइश के बारे में बढ़चढ़कर बात करने से देश राजकोषीय स्थिति में सुधार होने वाला नहीं है। मैं इस ओर संकेत करता रहा हूं कि महामारी के पहले के वर्षों में भी कुल व्यय सीमित बना रहा है। वित्त वर्ष 2021 में सरकार ने महामारी को लेकर प्रतिक्रियास्वरूप व्यय में जीडीपी के 4.6 फीसदी का इजाफा किया। यह बढ़ोतरी राजस्व घाटे और जीडीपी अनुपात में हुए इजाफे के बराबर थी। वित्त वर्ष 2022 में कुल व्यय में जीडीपी के 1.5 फीसदी के बराबर कमी आई। इसी अवधि में राजकोषीय घाटा जीडीपी के 2.3 फीसदी के बराबर कम हुआ। ऐसे में मामूली वृद्धिकारी राजस्व का इस्तेमाल राजकोषीय घाटा कम करने के लिए किया गया, न कि सार्वजनिक व्यय बढ़ाकर अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए। हालांकि टेलीविजन पर कई जानकार ऐसा ही कहते नजर आए। इसे समझने के लिए कल्पना कीजिए कि विनिवेश प्राप्तियां लक्ष्य के अनुरूप रहतीं और पूंजीगत व्यय में इजाफे की पूरी भरपाई हो जाती। यदि यह विस्तारवादी बजट नहीं है तो बढ़े हुए पूंजीगत व्यय के बारे में इतनी बात क्यों की जा रही है? यह बात सही है कि पूंजीगत व्यय आवंटन वित्त वर्ष 2020 में जीडीपी के 1.65 फीसदी से बढ़कर वित्त वर्ष 2021 में 2.16 फीसदी, वित्त वर्ष 2020 में यह 2.6 फीसदी और वित्त वर्ष 2023 में 2.9 फीसदी हो गया। यह निरंतर बढ़ोतरी है और इसका अर्थ यह है कि कुल राजस्व घाटे के 60 फीसदी से भी कम का इस्तेमाल वित्त वर्ष 2023 में राजस्व व्यय की भरपाई के लिए किया जाएगा। वित्त वर्ष 2020 में यह 71.4 फीसदी था। यह राजकोषीय रुख में ढांचागत बदलाव है। लेकिन आर्थिक समीक्षा में कही गई बातों के उलट यह राजस्व व्यय में कमी की बदौलत आया है, न कि संसाधन जुटाने में तेजी की बदौलत। यही कारण है कि पूंजीगत व्यय/जीडीपी अनुपात बढ़ा है जबकि कुल व्यय/जीडीपी अनुपात कम हुआ है। राजस्व व्यय की गुणवत्ता अच्छी नहीं है। ब्याज भुगतान में इजाफा जारी है। प्रतिबद्ध व्यय (स्थापनाओं का खर्च, जीएसटी उपकर, कर्ज पर ब्याज तथा वित्त आयोग का अनुदान आदि) में इजाफा हुआ है और यह वित्त वर्ष 2020 में जीडीपी के 6.9 फीसदी से बढ़कर वित्त वर्ष 2022 में 7.9 फीसदी हो गया है। सरकार ने खाद्य और उर्वरक सब्सिडी में इजाफा जारी रखा है और वित्त वर्ष 2019 के जीडीपी के 0.93 फीसदी से बढ़कर यह वित्त वर्ष 2023 में जीडीपी के 1.2 फीसदी के बराबर हो गई है। मनरेगा आवंटन वित्त वर्ष 2020 1.1 लाख करोड़ रुपये से कम होकर वित्त वर्ष 2023 में 77,000 करोड़ रुपये रह गया है। ऐसी सरकार के लिए यह दुखद है जिसके पास कोविड के कारण हुई आर्थिक क्षति से निजात की यही एक बानगी है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन का आवंटन भी वित्त वर्ष 2022 में वित्त वर्ष 2020 से कम था। सार्वजनिक पूंजीगत व्यय में इजाफा है जबकि सार्वजनिक वस्तुओं पर राजस्व व्यय में कमी आयी है। सरकार ने सब्सिडी तो दी लेकिन बहुप्रतीक्षित सार्वजनिक रोजगार के लिए आवंटन कम किया है। किसी भी आर्थिक सिद्धांत से यह ऐसा बजट नहीं है जो आर्थिक सुधार को मदद करता हो फिर चाहे बात एकीकृत मांग का समर्थन करने की हो या विस्तारवादी प्रोत्साहन की। प्रभावी तौर पर देखें तो उसने कम निजी पूंजीगत व्यय की भरपाई का प्रयास किया है। यह तब हुआ जबकि कंपनियों का मुनाफा खूब बढ़ा जबकि उन्होंने महामारी के दौरान उत्पादन और बिक्री दोनों कम किए। वित्त मंत्री के भाषण में वृहद और राजकोषीय ढांचे पर चर्चा को सीमित रखने का सिलसिला जारी रखा गया। सॉवरिन ग्रीन बॉन्ड को लेकर भी अस्पष्ट सी घोषणा देखने को मिली। मैं आशा करता हूं कि कहीं यह भी सरकार में शामिल लोगों की विदेशी सॉवरिन उधारी को पिछले दरवाजे से प्रवेश दिलाने की कोशिश न हो। यह अच्छी बात है कि व्यक्तिगत आय करदाताओं की समस्याओं को दूर करने तथा कॉर्पोरेट कराधान की समस्याओं को दूर करने के लिए कुछ कदम उठाए गए हैं। हालांकि ऐसी घटनाएं कार्यकारी घटनाओं के माध्यम से भी निपटाई जा सकती हैं लेकिन कुछ कारणों से इन्हें देश की सालाना राजकोषीय नीति की प्रस्तुति में इतना स्थान दिया जाता है। यह दुखद है कि वित्त वर्ष 2021 से ही सरकार ने मध्यम अवधि की वृहद अर्थव्यवस्था को लेकर या राजकोषीय खाके को लेकर कोई अग्रगामी सोच बजट दस्तावेजों में नहीं दिखाया है। यही वजह है कि 25 वर्ष का खाका पेश करने वाला बजट होने का दावा बेतुका लगता है। वित्त मंत्रालय के लिए बेहतर यही होगा कि वह विश्लेषण करे और अपनी राजकोषीय नीति की विश्वसनीयता मजबूत करने के लिए तार्किक दलीलें पेश करे। (लेखक ओडीआई, लंदन के प्रबंध निदेशक हैं। लेख में व्यक्त विचार निजी हैं)
