हममें से कुछ ही लोग होंगे जिन्हें नोवाक जोकोविच से सहानुभूति होगी। कोविड का टीका नहीं लगवाने वाले इस सर्बियाई टेनिस खिलाड़ी को रविवार को ऑस्ट्रेलियाई सरकार द्वारा देशबदर करने के आदेश के खिलाफ दूसरी अपील में भी निराशा हाथ लगी। अब उनके पास अपना 10वां ऑस्ट्रेलियन ओपन खिताब जीतने मौका नहीं है जिसे जीतकर वह रिकॉर्ड 20 एकल ग्रैंडस्लैम जीतने वाले खिलाड़ी बन सकते थे। उनके ऑस्ट्रेलिया जाने पर तीन वर्ष की रोक भी लग सकती है। खुद को नियमों से ऊपर समझने की इतनी सजा तो मिलनी ही चाहिए। कुछ बाहरी लोगों को ऑस्ट्रेलिया के यात्रा संबंधी नियमों का यह कड़ा पालन अजीब लग सकता है क्योंकि ओमीक्रोन बेलगाम गति से फैल रहा है। पिछले गुरुवार को ऑस्ट्रेलिया में कोविड संक्रमण के एक लाख से अधिक मामले दर्ज किए गए। महामारी का प्रसार रोकने के लिए जो विभिन्न असाधारण उपाय अपनाए गए वे असाधारण मौद्रिक नीतियों से भिन्न नहीं हैं: संकट के समय उन्हें लागू करना सरकार को आसान लग सकता है, लेकिन उन्हें हटाना इतना आसान नहीं। एक समय ऑस्ट्रेलिया कोविड शून्य देश था। उसने कड़े लॉकडाउन लगाए और देश की सीमाओं को पूरी तरह बंद कर दिया था। मेलबर्न शहर जहां ऑस्ट्रेलियन ओपन होता है, वह पिछले दो वर्षों में दुनिया के सबसे अधिक प्रतिबंधों वाला शहर रहा है: शहर में छह बार पूरा लॉकडाउन लगाया गया जिसकी अवधि 262 दिन रही। इसके बाद अगस्त 2021 में संघीय सरकार ने कोविड शून्य नीति को त्याग दिया। विपक्षी लेबर पार्टी शासित पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में अभी भी टीकाकरण कम है और वह संक्रमण कम रखने को लेकर प्रतिबद्ध है। एक अन्य प्रमुख कोविड शून्य देश सिंगापुर तथा कुछ अन्य देशों ने भी यह तरीका छोड़ दिया। सिंगापुर को दोबारा खोलना मुश्किल था: ब्लूमबर्ग की कोविड प्रतिरोध संबंधी सूची में लंबे समय तक शीर्ष पर रहा यह देश अक्टूबर 2021 में 39वें स्थान पर फिसल गया। कोविड शून्य रणनीति से कोविड के साथ जीने की नीति ने निश्चित रूप से सिंगापुर जैसे सक्षम देश की भी परीक्षा ली। ऑस्ट्रेलिया की कोविड शून्य नीतियों को बदलने के साथ ही ओमीक्रोन स्वरूप आ गया। राज्य की क्षमता पर अचानक दबाव बढऩे के कारण जांच में दिक्कत आने लगी। ऑस्ट्रेलिया के लोगों ने संक्रमित पाए जाने पर लापरवाही बरती और केंद्र और राज्यों के बीच राजनीतिक विभाजन बढ़ा। ऑस्ट्रेलिया का उदाहरण बताता है कि नीतियों को पलटने से कोविड पर नियंत्रण और मुश्किल हुआ। इसके लिए जबरदस्त नीतिगत लचीलेपन की जरूरत है। प्रतिबंध हटाते समय वैज्ञानिक और महामारी विज्ञान की सलाह की जरूरत अधिक होती है। ऑस्ट्रेलिया ने टीकों पर जल्दी भरोसा नहीं किया। उसके नेतृत्त्व को ऑक्सफर्ड-एस्ट्राजेनेका के टीके को लेकर संशय था। अब जबकि उसने वैज्ञानिक हकीकत स्वीकार कर ली है तो करीब 93 फीसदी वयस्कों को टीके की दो खुराक लग गई हैं और बूस्टर खुराक देने का काम तेजी से जारी है। पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड के अलावा चीन और हॉन्गकॉन्ग ही कोविड शून्य क्षेत्र हैं। अनुमान है कि चीन में टीकाकरण पूरा हो चुका है लेकिन वह घरेलू तौर पर विकसित निष्क्रिय वायरस से बने टीकों पर निर्भर है जिन्हें साइनोवैक और साइनोफार्म कंपनियों ने बनाया है। यह टीका भारत बायोटेक के टीके कोवैक्सीन और ईरान के सीओवीईरान बारेकट की तरह ही बना है। कई अध्ययन दिखा चुके हैं कि साइनोवैक और साइनोफार्म के टीके डेल्टा स्वरूप को लेकर उतने कारगर नहीं रहे। ओमीक्रोन के खिलाफ उनका असर और कम रहा। ब्राजील में छह करोड़ लोगों को ऑक्सफर्ड-ऐस्ट्राजेनेका तथा साइनोवैक दोनों के टीके लगे थे और इसमें पाया गया कि साइनोवैक का प्रभाव बहुत कम है। इससे 80 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों में मौत का खतरा केवल 35 फीसदी कम हुआ। ओमीक्रोन को लेकर ऐसे अध्ययन कम हुए हैं लेकिन हॉन्गकॉन्ग के वैज्ञानिकों ने 25 ऐसे लोगों पर अध्ययन किया जिन्हें साइनोवैक की दोनों खुराक लगी थीं। इनमें से किसी में ओमीक्रोन के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता नहीं मिली। हमें इस बात में संदेह नहीं होना चाहिए कि चीन के नेताओं के पास ऐसे आंकड़े हैं और यही वजह है कि वे प्रतिबंध कम करने के इच्छुक नहीं हैं। बायोटेक कंपनी सुझोऊ अबोगेन बायोसाइंसेस स्वदेश में विकसित मैसेंजर आरएनए बूस्टर का परीक्षण कर रही है और इस बात की काफी संभावना है कि चीन की सीमाएं इस बूस्टर के प्रभावी होने तक बंद रहेंगी। चीन की कोविड नीति की आलोचना की जा सकती है लेकिन सीमाएं बंद रखने के उसके निर्णय की आलोचना नहीं की जा सकती। ऐसा लगता है कि यह निर्णय वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित है। जरूरी नहीं कि कोविड के मूल स्वरूप को लेकर टीकारहित समय में बनी नीतियां टीकों के आगमन के बाद भी सही हों। जरूरी नहीं कि वे डेल्टा स्वरूप या ओमीक्रोन स्वरूप के आगमन के बाद भी कारगर हों। इन सबके लिए अलग-अलग नीतियों की आवश्यकता है। अनलॉक या खुलेपन की प्रक्रिया केवल एक दिशा में नहीं हो सकती। वायरस के नए स्वरूप, टीकों का कम होता असर, संक्रमण फैलाने वाले नए आयोजन इन सबको देखते हुए प्रतिबंधों की आवश्यकता है। परंतु ऐसे कदम वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित हों और जरूरत पडऩे पर इन्हें तत्काल वापस लिया जा सके। दूसरे शब्दों में कहें तो टीकों का प्रसार और संक्रामक स्वरूप के प्रति उनके प्रभाव को देखते हुए ही आने वाले महीनों में शारीरिक दूरी और प्रतिबंधों संबंधी निर्णय लिए जाने चाहिए। राजनेताओं और नीति निर्माताओं को स्वीकार करना होगा कि यह तय करना आसान नहीं है कि अब से छह महीने बाद कौन से नियम कारगर होंगे। परंतु वैज्ञानिकों के पास वास्तविक आंकड़ों तक पहुंच अवश्य होनी चाहिए ताकि वे सटीक जानकारी निकाल सकें। मसलन वायरस का कौन सा स्वरूप हावी है, और टीके का प्रभाव कितना है आदि। नीति निर्माताओं द्वारा बेहतर टीकों को चिह्नित करना हमेशा मददगार साबित होगा। इस दौरान राष्ट्रीय स्तर पर टीकाकरण का दायरा भी बढ़ता रहना चाहिए।
