गंभीर स्थिति में पहुंच रहा है पाकिस्तान | राष्ट्र की बात | | शेखर गुप्ता / January 16, 2022 | | | | |
पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा प्रस्तुत गंभीर से गंभीर नीतिगत वक्तव्य को भी कूड़ा बताकर खारिज किया जा सकता है। ऐसा करना सहज, सुरक्षित और फायदेमंद नजर आता है। भारत लंबे समय से इसे लेकर ऐसी ही प्रतिक्रिया देता है मानो यह नई बोतल में पुरानी शराब (ओह, लस्सी) है। पाकिस्तान का रवैया भी कुछ अलग नहीं होता। पाकिस्तानी राष्ट्रीय सुरक्षा विभाग द्वारा पिछले दिनों जारी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति दस्तावेज पर हम इस पुराने रवैये से बचते हुए नजर डालने का प्रयास कर रहे हैं।
दस्तावेज को गंभीरता से लेने की तीन वजह हैं। पहली, यह केवल 48 पन्नों का एक संक्षिप्त दस्तावेज है। इसमें और बातें हैं लेकिन वे गोपनीय हैं। दूसरी, इसमें अपनी खूबियों को पुराने ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। तीसरा, भारत इसके कुछ हिस्सों पर बहस करना उपयुक्त मान सकता है। बशर्ते कि यह उन योद्धा चैनलों की किसी बहस जैसी न हो जिनका भाव होता है कि हम उस पाकिस्तान की रिपोर्ट क्यों पढ़ें? उसे गंभीरता से कौन लेता है?
हमारे पास ऐसी विद्वता नहीं है कि हम आपको बता सकें कि चाणक्य इसे लेकर क्या कहते। सुन जू और कन्फ्यूशियस की तरह चाणक्य के हवाले से भी काफी कुछ कहा जाता है। ऐसे में कल्पना और हकीकत में अंतर कर पाना मुश्किल है। यहां हम पूर्व शीर्ष नौकरशाह और विचारक अनिल स्वरूप से विचार उधार लेंगे जो अक्सर एक हैशटैग के साथ ट्वीट करते हैं जिसका अर्थ है- चाणक्य ने ऐसा नहीं कहा। एक और बात जो चाणक्य ने यकीनी तौर पर न तो कही होगी न चंद्रगुप्त के कान में फुसफुसाई होगी और न ही लिखी होगी, वह यह कि अपने शत्रु से कभी बात मत करो, कभी उसकी बात समझने की कोशिश मत करो और उसके द्वारा प्रकाशित कोई सामग्री कभी मत पढ़ो, खासतौर पर उसके सामरिक नजरिये के बारे में तो एकदम नहीं। बल्कि चाणक्य चाहते कि हम भारतीय इसका गहराई से अध्ययन करें। भले ही पूरे 48 पन्ने नहीं लेकिन कश्मीर के बारे में लिखे 113 शब्द तो अवश्य। इस दस्तावेज में ज्यादातर हिस्सा काम का नहीं है लेकिन पांच बिंदु ऐसे हैं जिन पर गौर किया जा सकता है। आइए इन्हें थोड़ा विस्तार से जानते हैं।
यह बात चकित करती है कि कश्मीर पर केवल 113 शब्द खर्च किए गए हैं और यह इस नीतिगत दस्तावेज के बहुत छोटे हिस्सों में से एक है। इसमें ऐसी कोई मांग नहीं की गई है कि भारत 5 अगस्त 2019 को बदला गया जम्मू और कश्मीर का दर्जा वापस पहले जैसा करे। क्या इसका अर्थ यह है कि पाकिस्तान इमरान खान की बार-बार दोहराई जाने वाली सामान्य स्थिति बहाल करने की पूर्व शर्त से पीछे हट रहा है? या फिर भारत की आम धारणा के अनुसार कहीं ऐसा तो नहीं कि इमरान खान ने इसे पढ़ा ही नहीं? हालांकि उन्होंने इसकी प्रस्तावना लिखी है। पिछले वर्ष जब पाकिस्तानी सेना ने भारत के साथ व्यापार शुरू करने का समर्थन किया था तब भी वह पीछे हट गए थे। उन्होंने कहा था कि पहले कश्मीर पर उनकी शर्तें माननी होंगी। उनके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मोइद यूसुफ द्वारा हस्ताक्षरित मौजूदा दस्तावेज उस रुख से अलग है। इसके अलावा कश्मीर पर वे क्या चाहते हैं? यह बात मुझे सन 1991 में ले जाती है जब मैंने इंडिया टुडे के लिए नवाज शरीफ का साक्षात्कार किया था। तब वह पहली बार प्रधानमंत्री बने थे। उन्होंने तमाम सवालों का स्वागत किया। लेकिन जब मैंने उनसे कश्मीर पर सवाल किया तो उन्होंने अपने सूचना सलाहकार मुशाहिद हुसैन (अब सांसद) की ओर रुख किया और मुस्कराते हुए कहा, 'कश्मीर पर मुशाहिद साहब वो क्या कहते हैं हम, आप ही बताइए।' मुशाहिद ने जो कहा उसे मैं दोहरा नहीं सकता लेकिन वह बात भी 113 शब्दों में आ जाती। कमोबेश उतने ही शब्द जितने दस्तावेज में हैं। 2019 में इमरान खान से 1991 में नवाज शरीफ तक का यह सफर अहम है।
राष्ट्रीय सुरक्षा की बुनियाद के रूप में अर्थव्यवस्था पर जोर दिया जाना दिलचस्प है। हम देख सकते हैं कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को चोट पहुंच रही है। आंतरिक अस्थिरता और वैश्विक उदासीनता इसकी वजह हैं। यह दस्तावेज तब आया है जब आईएमएफ के साथ रोके गए ऋण जारी करने के लिए शर्मिंदा करने वाले स्तर तक चर्चा चली है। सन 1993 के बाद पाकिस्तान के लिए यह 11वां ऐसा अवसर है। इमरान खान ने पिछले दिनों कहा था कि पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था भारत से बेहतर है लेकिन वह आईएमएफ से यह बात नहीं कह रहे होंगे। पाकिस्तान को आईएमएफ की शर्तें भारी लग रही हैं जिससे मुद्रास्फीति और असंतोष बढ़ेंगे। उसने कहा कि आईएमएफ की बोर्ड बैठक को महीने के अंत तक टाल दिया जाए ताकि वह तय कर सकें कि इस पैकेज को छोड़ा जाए या वस्तुओं की कीमतें, कर आदि बढऩे दिए जाएं तथा केंद्रीय बैंक की स्वायत्तता की गारंटी वाला नया कानून पारित किया जाए। अर्थव्यवस्था, आंतरिक स्थिरता, अलगाववादी आंदोलन का खतरा आदि दिखाते हैं कि पिछले तीन दशकों की तुलना में अब पाकिस्तान ज्यादा आत्मावलोकन कर रहा है।
मौजूदा पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान का दुनिया को देखने का नजरिया दिलचस्प है। जब आप इसमें अफगानिस्तान, चीन, भारत, ईरान आदि को पढऩा शुरू करेंगे तो लगेगा कि पाकिस्तान महत्त्वपूर्ण देशों की सूची वर्णमाला के क्रम से बना रहा है। इस सूची का अंत ईरान के बाद 'शेष विश्व' के साथ होता है। यानी अमेरिका को शेष विश्व में रखा गया है। क्या आपने ऐसी कल्पना की थी? बशर्ते कि आप यह न सोचें कि जो बाइडन को इमरान खान को अब तक फोन न करने की कीमत चुकानी पड़ रही है।
दस्तावेज के मुताबिक पाकिस्तान अमेरिका के साथ रिश्तों का स्वागत करता है लेकिन खेमेबाजी की राजनीति उसे स्वीकार नहीं है। ऐसा वह देश कह रहा है जो अमेरिका के साथ बहुराष्ट्रीय सैन्य गठजोड़ों का हिस्सा बनने वाला उपमहाद्वीप का इकलौता देश है। आज भी दोनों देश संधि के तहत सुरक्षा सहयोगी हैं। सवाल यही है कि क्या बाइडन के फोन करने पर यह सब बदल जाएगा?
पाकिस्तान कहता है कि उसे वर्तमान स्थिति पसंद नहीं जहां अमेरिका के साथ उसके रिश्ते विशुद्ध रूप से आतंकवाद निरोधक बातों पर आधारित हैं। सबसे पुराने सहयोगी और संरक्षक की उदासीनता से हताशा साफ नजर आ रही है। दस्तावेज में भारत का जिक्र आने पर यह बात फिर नजर आती है जहां वह शिकायत करता है कि भारत पर से अप्रसार संबंधी प्रतिबंध हटा लिए गए हैं।
पांचवी और अंतिम बात, भारत पर शासन कर रही मौजूदा विचारधारा का जिक्र एक से अधिक बार आया है। हिंदुत्व की राजनीति का जिक्र है और कहा गया है कि उसमें भारत की आंतरिक राजनीति के लिए पाकिस्तान के साथ शत्रुता जरूरी है। एक भय यह भी जताया गया है कि इस विचारधारा से संचालित भारत एकतरफा उपाय थोपने की कोशिश कर सकता है। पारंपरिक जंग भी हो सकती है या ऐसी भी जहां कोई सीधा संपर्क न हो। यहां लेखक अपनी मंशा नहीं बताते। यहां साइबर जंग का भी जिक्र हो सकता है या दूर से मार करने वाले हथियारों का भी। या फिर राजनीतिक अभियान या विदेशी पूंजी या बहुपक्षीय संस्थानों मसलन आईएमएफ आदि में दबाव बनाने का भी। इस बारे में अभी कुछ निश्चित नहीं कहा जा सकता है सिवाय इसके कि इन आशंकाओं पर ध्यान देना होगा।
पाकिस्तान आहत है, अपने भीतर झांक रहा है और उसे कुछ मोहलत चाहिए। दुनिया में उसका कद घटा है और अमेरिका के साथ दोस्ती सिमट गयी है। इस दोस्ती में एकतरफा संदेश यही है कि आप यह तय कीजिए कि आपकी जमीन से हमारे लिए कोई मुश्किल खड़ी न हो। तीसरी बात भारत के साथ व्यापार शुरू करने के अपनी सेना के विचार को नकार चुके, अमेरिका को अफगानिस्तान पर कार्रवाई के लिए अपना हवाई क्षेत्र देने से इनकार कर चुके और नए आईएसआई प्रमुख की नियुक्ति को नकार चुके इमरान खान अब इन बातों पर ध्यान दे रहे हैं। कम से कम फिलहाल जबकि उनकी राजनीति और लोकप्रियता कमजोर हुई है।
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