उदार राज्य को नाकामी से बचाने के लिए यह आवश्यक है कि पारंपरिक संस्थानों के साथ संबद्धता बनाए रखी जाए, न कि उनका बहिष्कार किया जाए। बता रहे हैं आर जगन्नाथन आज दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती जलवायु परिवर्तन, चीन की आक्रामकता या जातीय अथवा धार्मिक संघर्ष नहीं बल्कि संस्थानों का नियमित और निरंतर हो रहा क्षरण और / अथवा उनकी निर्बलता है। स्थानीय निकायों से लेकर न्यायपालिका और धार्मिक, जनजातीय, जातीय और सामुदायिक समूहों तक कुछ ही संस्थान (आधुनिक या पारंपरिक) हैं जो साझा उद्देेश्य के लिए काम कर पा रहे हैं। संयुक्तराष्ट्र से लेकर यूरोपीय संघ अथवा विश्व व्यापार संगठन तक कोई संस्थान अपनी क्षमता से काम नहीं कर पा रहा। कानून व्यवस्था के हाथों जो बचा है उसे राजनेता और गैर सरकारी तत्त्व कमजोर कर रहे हैं। अमेरिका ने तो अपने कुछ पुलिस बलों की फंडिंग दूसरे विभागों को स्थानांतरित करके एक तरह से उनकी वैधता ही समाप्त कर दी। ब्रेक्सिट, वारसा संधि जैसे अधिराष्ट्रीय निकायों की बात आती है तो विभिन्न देश ऐसा ही चाहते हैं। मौद्रिक नीति से जुड़े संस्थान भी विफल रहे हैं (यही कारण है कि इतनी अधिक आर्थिक उथलपुथल और क्रिप्टो जैसी मुद्राओं में लोगों का भरोसा मजबूत होता दिखता है) और समान जातीयता वाले छोटे देशों के अलावा न्यायपालिका भी हर जगह नाकाम होती दिखती है। कई देशों में कद्दावर नेताओं का उभार कुछ और नहीं बल्कि नागरिकों की यह देखने की दुविधा है कि मजबूत नेता नाकाम होते संस्थानों से बेहतर तो नहीं साबित होगा। हमें इसकी अपेक्षा करनी चाहिए थी। राज्यों और उनके नेतृत्व वाले संस्थानों को व्यक्तिगत मानवाधिकार के संरक्षण के बदले हिंसा और कानून बनाने का अधिकार सौंप देने की व्यवस्था को नाकाम होना ही था। ऐसा इसलिए कि हमने राज्य शब्द को भौगोलिक संप्रभुता के अनुसार परिभाषित किया है। यह स्वयं इस गलत अवधारणा पर आधारित है कि राष्ट्र एक तरह के लोगों से बनता है जो एक खास भूभाग में रहते हैं। परंतु ऐसा कभी नहीं रहा क्योंकि लोग तो हर जगह जाते हैं और वहां के जनांकीय स्वरूप को प्रभावित करते हैं। आज कई यूरोपीय राज्यों को यह अहसास है कि ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां पुलिस भी नहीं जा सकती। जर्मनी की पिछली चांसलर एंगेला मर्केल ने भी यह बात स्वीकार की थी। ब्रिटेन में ग्रूमिंग स्कैंडल में 11 से 16 वर्ष की उम्र की बच्चियों के खिलाफ यौन अपराध हो सके क्योंकि पुलिस से कहा गया था कि पाकिस्तानी गैंगों के खिलाफ कार्रवाई करना राजनीतिक दृष्टि से अनुचित होगा। ब्रिटिश पुलिस अपनी ही महिलाओं का बचाव करने में नाकाम रही और अपनी वैधता गंवा बैठी। दरअसल कई तरह के राज्य मौजूद हैं और राज्य का अर्थ केवल सरकार, विधायिका, न्यायपालिका अथवा कानून प्रवर्तन नहीं है। इसमें सभी संस्थान शामिल होते हैं जो व्यक्तियों पर अधिकार दर्शाते हैं। इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि हम उनक प्राधिकार को वैध मानते हैं या अवैध। इस परिभाषा के मुताबिक परिवार एक सूक्ष्म राज्य है क्योंकि यह परिवार की परिभाषा में आने वाले व्यक्तियों पर नियंत्रण रखता है। जनजातियां और समुदाय भी एक राज्य बनाते हैं क्योंकि उनका भी अपने सदस्यों के व्यवहार पर नियंत्रण होता है। कॉर्पोरेट निकाय भी अद्र्ध राज्य होते हैं क्योंकि वे अपने कर्मचारियों, वेंडरों और वितरकों पर व्यवहार थोप सकते हैं, भले ही उनका प्रभाव विशुद्ध रूप से आर्थिक हो और कार्यस्थल तक सीमित हो। गूगल, फेसबुक (अब मेटा), ट्विटर और माइक्रोसॉफ्ट आदि सभी साइबर राज्य हैं और अक्सर वे अपने 'नागरिकों के बारे में राज्य सरकार के अधिकारियों से ज्यादा जानते हैं। अपराध माफिया भी एक राज्य है। उसके पास भी समय-समय पर कुछ लोगों से अपन बात मनवाने का अधिकार होता है। पुलिस की बात करें तो अपने प्रभाव को बनाए रखने के लिए पुलिस बल भी अपराधी समूहों से संपर्क में रहते हैं। उदारवादी परियोजना को कभी न कभी नाकाम होना ही था, उसने हर दूसरे संस्थान की वैधता नष्ट करने का प्रयास किया क्योंकि उनमें सुधार नहीं किए गए या उन्हें दमन के उपकरण माना गया। यह मानना महत्त्वपूर्ण है कि पारंपरिक संस्थान एक स्तर तक दमनकारी थे, लेकिन राज्य शक्ति का इस्तेमाल करके उन्हें नष्ट करने की कोशिश राज्य की शक्तिको ही अवैध बनाती है। यदि केवल राज्य और निजी व्यक्ति ही शेष रह गए तो एक स्तर के बाद राज्य इतना शक्तिशाली हो जाएगा कि वह व्यक्तियों के अधिकारों को ही क्षति पहुंचाएगा। इसे गैर राज्य शक्तियों द्वारा राज्यों को धमकाने और राज्यों द्वारा कथित तौर पर नागरिकों की रक्षा के नाम पर निजता भंग करने के और अधिकारों की मांग करने और कानून बनाने में देखा जा सकता है। सवाल यह है कि क्या हमने खुद के लिए जो गड्ढा खोदा है हम उससे बाहर निकल सकते हैं? जवाब कई बातों पर निर्भर करता है और खासतौर उदार कुलीन वर्ग की गलतियां मानने और सुधारने की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। दरअसल उन्हें लगता है कि ज्ञान और बुद्धिमता पर उनका एकाधिकार है। वे चाहते हैं कि हम राज्य और व्यक्तिगत अधिकारों की उनकी परिभाषा स्वीकार करें, वाक स्वतंत्रता और धर्म की स्वतंत्रता के मामले में भी वे ऐसा ही चाहते हैं। आम समझ कहती है कि बिना नियंत्रण के वाक स्वतंत्रता से सामाजिक तनाव बढ़ सकता है (हरिद्वार में साधुओं की बैठक इसकी बानगी है)। धर्म की पूर्ण आजादी का अर्थ है दूसरों के धर्मांतरण का असीमित अधिकार। यह जानना बहुत मुश्किल नहीं है कि अपने विस्तार की इच्छा रखने वाला कोई भी धर्म दूसरों का दमन करके ही ऐसा कर सकता है। इससे सामाजिक तनाव और हिंसा बढ़ेगी। देश और दुनिया के कई हिस्सों में ऐसा हो रहा है। इससे निपटने का तरीका यही है कि पारंपरिक संस्थानों की वैधानिकता लौटाई जाए और व्यक्तिगत स्तर पर लोगों को नियमों और आंतरिक नियमन को लेकर कुछ आजादी प्रदान की जाए। प्रयोग के स्तर पर बेहतर होगा कि राज्य पारंपरिक संस्थानों का इस्तेमाल उनके संचालन का काम करे जो उसके प्रति निष्ठा रखते हों, न कि यह दर्शाते हुए कि उनकी कोई वैधता नहीं है। ऐसे पारंपरिक संस्थानों की सामाजिक पूंजी होती है। धार्मिक संस्थानों से लेकर खाप पंचायतों तक इसका इस्तेमाल उन्हें अधिक जवाबदेह और आत्मनियमन वाला बनाना चाहिए। राज्य सरकार तब अपराधियों और आतंकवादियों को आसानी से पकड़ सकेगी जब उन समुदायों से जिनसे वे आते हैं, उन्हें पता हो कि अगर वे अपने बीच के पथभ्रष्ट लोगों को न्याय की दहलीज पर नहीं ले जाएंगे तो वे अधिकार गंवा बैठेंगे। लब्बोलुआब यह कि पारंपरिक संस्थानों को सीमित वैधता प्रदान करना भी समाजों और राष्ट्रों को जवाबदेह बनाने का एक तरीका है। राज्य लोगों के जीवन पर एकाधिकार नहीं रख सकते। (लेखक स्वराज्य पत्रिका के संपादकीय निदेशक हैं)
