कोविड-19 के मामले में पुरानी गलतियों से बचें | प्रसेनजित दत्ता / January 06, 2022 | | | | |
कोविड-19 संक्रमण के बढ़ते मामलों के बीच पूरी दुनिया और खासतौर पर भारत को चौकन्ना रहना होगा और बुरे से बुरे हालात से निपटने के लिए तैयार रहना होगा। विस्तार से जानकारी दे रहे हैं प्रसेनजित दत्ता
नए साल की शुरुआत कोविड-19 की एक और लहर के साथ हुई है। ऐसे में हर किसी के दिलोदिमाग में यही सवाल है: यह सिलसिला कब थमेगा? विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के महानिदेशक टेड्रोस एडनॉ गेब्रियेसस ने गत शुक्रवार यानी 31 अक्टूबर को यह आशा जताई कि महामारी 2022 में समाप्त हो जाएगी। उनका बयान साहसिक है लेकिन ऐसा होना मुश्किल नजर आ रहा है। पूरी दुनिया और खासतौर पर भारत को बुरे से बुरे हालात के लिए तैयार और चौकन्ना रहना होगा। हालांकि मीडिया में इस समय ज्यादा चर्चा वायरस के नए प्रकार ओमीक्रोन की है लेकिन चिंतित करने वाली खबर यह है कि ओमीक्रोन और डेल्टा प्रकारों का मिश्रण हो सकता है यानी कोरोनावायरस और इन्फ्लूएंजा का। दिक्कत यह है कि किसी के पास कोई विश्वसनीय सूचना नहीं है। ऐसे में महामारी से लड़ाई और मुश्किल हो रही है। दुनिया भर में स्वास्थ्य सेवा से जुड़े अधिकारी और नियामक यानी डब्ल्यूएचओ से लेकर यूएस सीडीसी तक सभी को इस महामारी को अभी ठीक तरह से समझना है।
यदि महामारी बनी रहती है तो इसके दोष का एक हिस्सा उस लालच और राष्ट्रवाद पर भी जाना चाहिए जिसने पूरी दुनिया को इससे निपटने का एकजुट प्रयास नहीं करने दिया। विश्व स्वास्थ्य संगठन के उकसावे के बावजूद वैश्विक नेता कोई साझा नीति नहीं तैयार कर सके। शुरुआत में बने यानी पहली पीढ़ी के कोविड टीके भी अधूरे हथियार साबित हुए। महामारी से निपटने की लड़ाई में टीकों के पेटेंट और उनसे जुड़ी मंजूरियों को लेकर पूरे साल झगड़ा होता रहा। पश्चिमी देशों की बड़ी फार्मा कंपनियों ने बौद्धिक संपदा साझा करने से इनकार कर दिया जबकि उससे दुनिया भर में टीकाकरण की गति तेज की जा सकती थी। इस समय भी ये कंपनियां अपने-अपने देशों के विश्वविद्यालयों के शोधकर्ताओं के साथ इस बात को लेकर उलझ रहे हैं कि वास्तव में इन पेटेंट पर किसका हक है।
इस बीच अमेरिका, ब्रिटेन से लेकर भारत तक सभी देशों के नियामकों ने वैश्विक स्तर पर इस्तेमाल के लिए साझा टीकों पर सहमत होने के बजाय घरेलू प्रयासों से संबद्ध विभिन्न टीकों के आपात इस्तेमाल को मंजूरी दी। पश्चिमी देशों ने अपनी जरूरत से ज्यादा टीके बनाकर रख लिए जिससे गरीब देशों के लिए टीके या तो अनुपलब्ध हो गए या उनकी आपूर्ति बहुत धीमी रही।
पहली पीढ़ी के टीकों से बस आंशिक सुरक्षा ही मिल सकी। इससे भी बुरी बात यह है कि नए स्वरूपों से निपटने की उनकी क्षमता तो सीमित है ही साथ ही यह भी स्पष्ट नहीं है कि ये टीके कितने समय तक प्रभावी हैं। बूस्टर खुराक भी दिए जाने के बाद तीन से छह माह तक का ही बचाव सुनिश्चित कर पा रही है।
अब चिकित्सकों और आम लोगों की आशाएं तीन बातों पर केंद्रित हैं। पहली है ऐसी ऐंटीवायरल दवाएं जो कोविड के इलाज में प्रभावी नजर आई हैं। दूसरी है यह आशा कि दूसरी पीढ़ी के टीके अभी तैयार हो रहे हैं और ये पहली पीढ़ी के टीकों की तुलना में विभिन्न प्रकार के वायरस पर अधिक प्रभावी होंगे। आखिर में, तीसरी आशा तकदीर पर आधारित है कि अंतत: आबादी का बड़ा हिस्सा संक्रमण और टीकों की दो शुरुआती खुराक एवं बूस्टर खुराक के साथ जरूरी प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर लेगा।
जिन नई ऐंटीवायरल दवाओं को दुनिया के विभिन्न इलाकों में मंजूरी मिली है वे हैं- मर्क कंपनी की मोलनुपिराविर तथा फाइजर की पैक्सलोविड। इन दवाओं ने नए सिरे से आशा जगाई है। ये दवाएं चिकित्सकों के तरकश में नए तीर के समान हैं लेकिन अपने उत्साह को थामे रखना ही उचित होगा। मोलनुपिराविर को भारत में भी मंजूरी मिली है और यह दवा केवल एकतिहाई मामलों में भी प्रभावी नजर दिखी है। अमेरिका और ब्रिटेन में मंजूरी पाने वाली पैक्सलोविड के 90 फीसदी तक प्रभावी होने का दावा है। लेकिन ये आंकड़े सीमित मरीजों पर किए परीक्षण पर आधारित हैं। वास्तविक दुनिया में यह कितनी प्रभावी साबित होगी इस बारे में कोई जानकारी नहीं है। अभी कुछ समय तक उपलब्धता भी कम रहेगी।
इस बीच अन्य औषधि निर्माता भी दौड़ में हैं। कुल मिलाकर अगले छह से आठ महीनों के दौरान और अधिक तथा ज्यादा प्रभावी औषधियां उपलब्ध होंगी। इस बीच, दूसरी पीढ़ी के कोविड टीके जो संभवत: पहली पीढ़ी के टीकों से अधिक प्रभावी हैं वह भी उपलब्ध हो जाएंगे। एक्स्टन बायोसाइंस का टीका एकेएस 452 ने भारत में काफी ध्यान खींचा है क्योंकि खबरों के मुताबिक औषधि नियामक केंद्रीय मानक औषधि नियंत्रण संगठन (सीडीएससीओ) ने इसे भारत में परखे जाने को मंजूरी दे दी है। परंतु यह इकलौता टीका नहीं है। कम से कम दो दर्जन अन्य टीके विकसित किए जा रहे हैं या चिकित्सकीय परीक्षण के अलग-अलग दौर में हैं। आशा की जा सकती है कि अगले छह महीनों में इनमें से कम से कम छह का उत्पादन होने लगेगा। तीसरे परिदृश्य की चर्चा करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इसके पीछे कोई ठोस वैज्ञानिक आधार नहीं है यह केवल सदिच्छा है।
ऐंटीवायरल दवाएं और दूसरी पीढ़ी के टीके शायद हमारे पास उपलब्ध सर्वश्रेष्ठ हथियार होंगे लेकिन उनका प्रभावी इस्तेमाल सुनिश्चित करने के लिए वैश्विक नेताओं को वे गलतियां नहीं करनी होंगी जो उन्होंने पहली पीढ़ी के टीकों के दौरान की थीं- यानी आंंकड़े या बौद्धिक संपदा साझा करना, जरूरत से अधिक टीकों की खुराक एकत्रित करना, वैज्ञानिक प्रमाणों के बजाय राष्ट्रवादी भावनाओं के आधार पर टीकों को मंजूरी देना तथा उपचार का एक साझा मानक तैयार करने में नाकाम रहना। सवाल यही है कि क्या वे अपनी पिछली गलतियों से सबक सीख सकेंगे और यह समझ सकेंगे कि जब तक सब सुरक्षित नहीं हैं तब तक कोई सुरक्षित नहीं होगा।
(लेखक बिजनेस टुडे और बिजनेसवल्र्ड के पूर्व संपादक तथा संपादकीय सलाहकार प्रोजेकव्यू के संस्थापक हैं)
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