बदलाव के साथ लौटी शक्ति की राजनीति | हर्ष वी पंत / January 05, 2022 | | | | |
चीन एवं रूस जैसी अधिनायकवादी शासन व्यवस्थाएं आगे बढ़ रही हैं और दुनिया भर में लोकतंत्र पीछे जा रहे हैं। विश्व में बदलाव के बारे में बता रहे हैं हर्ष वी पंत
अब यह सुझाव देना घिसा-पिटा हो चुका है कि कोविड-19 महामारी का वैश्विक राजनीति पर बदलावकारी असर पड़ा है। असल में अंतरराष्ट्रीय राजनीति में किसी स्वास्थ्य मुद्दे का केंद्र बिंदु बनना दुर्लभ है, लेकिन पहले भी महामारियों ने काफी हद तक वैश्विक समीकरणों को बदला है। पिछले कई दशकों से सुरक्षा की बदलती प्रकृति पर बहस चल रही थीं, लेकिन कोविड-19 के हमले ने दुनिया को अहसास करा दिया कि ये तथाकथित गैर-परंपरागत सुरक्षा मुद्दे असल में परंपरागत मुद्दे हैं। दुनिया अब भी एक स्वास्थ्य संकट से जूझ रही है, जो अब एक संपत्ति संकट में तब्दील हो चुका है। ऐसे में नीति-निर्माताओं को बड़े स्तर पर अपने अनुमानों का फिर से आकलन करना पड़ रहा है।
लेकिन अंतरराष्ट्रीय राजनीति का भी अपना एक तर्क है। महामारी से और इसके बिना भी 1945 के बाद की वैश्विक व्यवस्था बदलने लगी थी। कोविड ने कई तरह से उन रुझानों की रफ्तार बढ़ाई है, जो पिछले साल वुहान से तबाही आने से पहले भी नजर आ रहे थे। असल में बड़ी राजनीतिक शक्तियों को खुद को उजागर करने के लिए किसी महामारी की जरूरत नहीं होती है। चीन के उभार ने वैश्विक राजनीतिक व्यवस्था हिला दी है। महामारी से इसने उन वििवध आयामों को उजागर किया है, जो 21वीं सदी के तीसरे दशक में एक शक्ति के उभार से प्रभावित हुए हैं। यह शक्ति असल में यथास्थिति को बदलना चाहती है।
शी चिनफिंग की अगुआई में चीन अपनी ताकत को छिपा या उचित मौके का इंतजार नहीं कर रहा है। चीन के शासक ने घोषणा कर दी है कि चीन का समय आ गया है और दुनिया को इस पर ध्यान देना चाहिए। भले ही आज का चीन हिटलर के जर्मनी जैसा नहीं हो, लेकिन उसका व्यवहार दूसरे विश्व युद्ध से पहले यूरोप में ताकत की होड़ जैसा ही है। एक उभरती ताकत वैश्विक व्यवस्था के आधार को चुनौती दे रही है, जिसे शेष दुनिया में ज्यादातर ने स्वीकार करना शुरू कर दिया था। मौजूदा शक्ति अमेरिका अब तक अपने जवाब में कमजोर नजर आई है, जिसके नतीजतन बड़ी उठापटक के दौर के हालात पैदा हो चुके हैं।
इस साल ने यह साफ किया है कि अमेरिका और चीन की प्रतिस्पर्धा महज डॉनल्ड ट्रंप की कल्पना नहीं है। उनकी जगह लेने वाले जो बाइडन ने इस मुद्दे को धार दी है और उन मुद्दों का दायरा बढ़ा दिया है, जिनमें प्रतिस्पर्धा होने के आसार हैं। यह विवाद बढ़ रहा है, जिसमें मानवाधिकार से लेकर तकनीक और आपूर्ति शृंखला से लेकर रक्षा तक शामिल हैं। इससे न केवल अन्य देशों (मित्र और शत्रु दोनों) बल्कि वैश्विक व्यवस्था के संस्थागत ताने-बाने पर भी दबाव पैदा हो रहा है।
यह एशिया-प्रशांत से ज्यादा कहीं भी स्पष्ट नहीं है, जहां नई शक्तियां उभर रही हैं और स्थापित शक्तियां जंग के नए नियम तैयार करने की कोशिश कर रही हैं। इस पूरे क्षेत्र में कोई अहम संगठन नहीं होने से क्वाड और ऑकस जैसे संगठन उभर रहे हैं। इस क्षेत्र में समीकरण बदल रहे हैं क्योंकि इच्छुक देशों के गठबंधन तेजी से उभरते हैं। हालांकि अमेरिका-चीन की प्रतिद्वंद्विता बदलता रुझान है, जिससे क्षेत्र नया आकार ले रहा है। लेकिन मध्यवर्ती शक्तियां आखिरकार मानक और संस्थागत क्षेत्र को आकार देने और चीन की आक्रामकता के खिलाफ खड़े होने जैसे कदम उठा रही हैं। यह भी धारणा है कि अमेरिका भी अपनी घरेलू मजबूरियों से बंधा हो सकता है, जिससे मध्यवर्ती शक्तियों को ज्यादा स्वायत्तता मिल रही है। वे इसका कैसे इस्तेमाल कर पाती हैं, यह तो बाद में ही पता चल जाएगा।
लोकतंत्रोंं और अधिनायकवादी मॉडलों के बीच खाई भी बीते साल चौड़ी हुई है। अमेरिकी राष्ट्रपति द्वारा बुलाए गए 'लोकतंत्र सम्मेेलन' का मकसद न केवल साथी लोकतांत्रिक देशों में एकता की भावना पैदा करना था बल्कि यह वैश्विक नेताओं को आह्वान था कि वे लोकतांत्रिक संस्थानों को मजबूत करने के लिए उनके साथ मिलकर काम करेंं, जिस समय चीन एवं रूस जैसी अधिनायकवादी शासन व्यवस्थाएं आगे बढ़ रही हैं और दुनिया भर में लोकतंत्र पीछे जा रहे हैं। अमेरिका का ध्यान चीन की तरफ से दी जा रही राजनीति चुनौती पर केंद्रित हो गया है, इसलिए वह आर्थिक साझेदारों को भी पटरी पर आने को कह रहा है। हाल में अमेरिका के आर्थिक वृद्धि, ऊर्जा और पर्यावरण उप मंत्री जोस डब्ल्यू फर्नांडिस ने अमेरिकी कारोबारी समुदाय से आग्रह किया कि वे अमेरिका-चीन की रणनीतिक प्रतिस्पर्धा में खुद को महज तमाशबीन के रूप में न देखें बल्कि इस बात का ध्यान रखें कि आपकी गतिविधियां कैसे अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा और हमारे लिए अत्यंत प्रिय बुनियादी मूल्यों को प्रभावित कर सकती है। यह राजनीति को आर्थिक हितों से कम अहम मानने की नीति में अहम बदलाव है, जिसमें राजनीतिक लक्ष्यों की सर्वोच्चता का फिर से आकलन किया जा रहा है।
ताकत की तगड़ी राजनीति वैश्विक व्यवस्था के हर आयाम- जलवायु परिवर्तन एवं सतत विकास, बुनियादी ढांचा एवं संपर्क, व्यापार साझेदारी की राह, चौथी औद्योगिक क्रांति के लिए तकनीकी विकास और वैश्विक स्वास्थ्य प्रतिमानों को फिर से आकार दे रही है। भारत की विदेश एवं सुरक्षा नीति को अन्य देशों की तरह इन बदलावों से तालमेल बैठाना पड़ेगा। लेकिन इस बार हम इसे सही दिशा दे सके और अपने वैचारिक सिद्धांतों को छोड़ सके तो वैश्विक राजनीति में बदलाव का पड़ाव भारत को सही मायनों में अग्रणी ताकत के रूप में उभरने का मौका दे सकता है।
(लेखक किंग्स कॉलेज लंदन में प्रोफेसर और ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन में शोध निदेशक हैं)
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