जोर पकड़ेंगी नेटवर्क आधारित गतिविधियां | अजित बालकृष्णन / January 04, 2022 | | | | |
औद्योगिक युग के क्षीण पडऩे के साथ ही नेटवर्क का जमाना अब जोर पकड़ता जा रहा है। इस विषय में जानकारी दे रहे हैं अजित बालकृष्णन
नये वर्ष की पूर्व संध्या पर मेरी नींद एक दु:स्वप्न से खुली: मैंने देखा कि देश की वित्तीय राजधानी के केंद्र में ऊंची इमारतों की भीड़ के बीच बांद्रा-कुर्ला काम्प्लेक्स परित्यक्त और जीर्णशीर्ण अवस्था में खड़ा था और मुझे सन 1970 के दशक में परेल की उभरती कपड़ा मिलों की हालत याद आई कि उनका क्या हश्र हुआ था। मैं हड़बड़ाकर बिस्तर से इस तरह उछला कि मेरा छोटा सा श्वान जो मेरी बगल में सोया था वह भी अचानक उठ खड़ा हुआ। मैंने खुद को चिकोटी काटी ताकि पूरी तरह जाग सकूं। क्या यह दु:स्वप्न उस बीमारी का संकेत था जिसे चिकित्सक रैपिड आई मूवमेंट (आरईएम) डिसऑर्डर कहते हैं। इस बीमारी में सपने देखना केवल मानसिक गतिविधि नहीं रह जाती बल्कि यह शारीरिक भी हो जाती है। क्या यह इस बात का संकेत था कि मुझे जल्द से जल्द चिकित्सक के पास जाना चाहिए और अपने लिए दवाएं लेनी चाहिए? या फिर यह समाज पर प्रौद्योगिकी के प्रभाव के बारे में बहुत अधिक पढऩे और शोध करने का नतीजा भर था? मैंने अपनी इलेक्ट्रिक केटल (बिजली से चलने वाली केतली) में पानी गर्म करके अपने लिए चाय बनाई और बालकनी में आरामकुर्सी पर बैठ कर सूर्योदय देखने लगा। उस वक्त मैंने खुद से पूछा कि क्या मैं समाज में तकनीक की भूमिका को लेकर कुछ ज्यादा ही चिंतित हूं और इस विषय में ज्यादा सोच रहा हूं?
मेरे दु:स्वन के एक हिस्से पर बात करते हैं। उदाहरण के लिए बंबई के परेल इलाके की करीब 100 कपड़ा मिलों के पतन की बात करें तो सन 1970 के दशक में यह सब तब हुआ जब मैंने बंबई में काम करना शुरू ही किया था। उस समय मैं भारतीय प्रबंध संस्थान कलकत्ता से स्नातक होकर आया था और मेरे मस्तिष्क में समाज विज्ञान और अर्थशास्त्र के सिद्धांत और परिचालन शोध की बातें घूमती रहती थीं। मैं इन्हें वास्तविक दुनिया में लागू करने का प्रयास करता था। मैंने तत्काल यह अनुमान लगा लिया कि नायलॉन, पॉलिएस्टर जैसे सिंथेटिक फाइबर की खोज और इनसे बनने वाले कपड़े की वजह से बंबई की कपड़ा मिलों द्वारा बनाए जाने वाले कपास के कपड़े की मांग कम हो रही है। लेकिन कारोबारी पत्रकारों से लेकर सामाजिक कार्यकर्ताओं और तकनीकविदों तक जिससे भी मैंने बात की, उन सभी का एक ही जवाब था कि बंबई की कपड़ा मिलें दत्ता सामंत के नेतृत्व में हुई अंतहीन हड़तालों के कारण बरबाद हो गईं। इसके करीब 20 वर्ष बाद जब मेरी मुलाकात श्री पोद्दार से हुई जिनकी उम्र 90 वर्ष से अधिक हो चुकी थी और जिनकी पोद्दार मिलें बंबई की कपड़ा मिलों की पहचान हुआ करती थीं। उन्होंने भी दत्ता सामंत का ही नाम लिया। जब मैंने विनम्रतापूर्वक उनसे सिंथेटिक फाइबर की खोज की बात की तो उन्होंने इसे खारिज कर दिया। उनके दिलो दिमाग में एक ही दोषी था: मजूदर संगठन नेता दत्ता सामंत जिन्होंने श्रमिकों को संगठित किया ताकि वे असंभव रूप से ऊंचे वेतन भत्तों की मांग के साथ हड़ताल और घेराव करें।
मेरा अनुमान है कि मेरा दु:स्वप्न इसी बारे में है। आखिर मिल मालिकों जैसे विचारशील और बुद्धिमान मिल मालिक और सन 1970 के दशक की कपड़ा मिलों के बड़े अधिकारी तत्कालीन समाज में आ रही एक नई तकनीकी लहर के संकेतों को समझने में नाकाम रहे थे। ऐसे में वे कोई हस्तक्षेप भी नहीं कर सके जबकि ऐसे हस्तक्षेप उन्हें राह दिखा सकते थे और उस तकनीकी लहर पर ऐसा प्रभाव डाल सकते थे जो उन पर और समाज पर सकारात्मक असर डालती। उदाहरण के लिए हम जिस युग में जी रहे हैं उसमें सफलता को आकार से परिभाषित किया जाता है। कारोबार जितना बड़ा हो उसे उतना ही अच्छा माना जाता है। वहीं दूसरी ओर छोटे कारोबार जो कुछ दर्जन लोगों को रोजगार देते हैं उन्हें दया का पात्र माना जाता है और उन्हें उनके छोटेपन से उबारने का प्रयास किया जाता है। सरकार और मजदूर संगठनों की तमाम समितियां इन 'छोटे और मझोले उपक्रमों' को उनके छोटेपन से उबारने को उत्सुक थीं। बड़े आकार को लेकर यह जुनून कहां से आया? मेरा अनुमान है कि इसका संबंध औद्योगिक युग की बड़े आकार को किफायत से जोडऩे की अवधारणा से संबद्ध है। यह विचार आगे चलकर अर्थशास्त्र, नीति निर्माताओं के मस्तिष्क और धीरे-धीरे वैश्विक स्तर पर आम आदमी के जेहन में भी केंद्रीय विचार बन गया। इसके बावजूद यह एक ऐसा विचार है जो खारिज किए जाने की प्रक्रिया में है।
ऐसे में आप यह प्रश्न कर सकते हैं कि सबसे महत्त्वपूर्ण क्या है? इसका उत्तर है संबद्धता। नेटवर्क के इस दौर में सबसे महत्त्वपूर्ण है आपकी गतिविधियों का अन्य ऐसी गतिविधियों के साथ संबद्ध होना जो आपकी गतिविधियों के लिए महत्त्वपूर्ण हैं। आपकी गतिविधि कारोबारी हो सकती है कोई सामाजिक उपक्रम हो सकती है या फिर उच्च न्यायालय जैसा कोई सार्वजनिक संस्थान हो सकता है। परंतु एक बात यह भी है कि ये कतई जरूरी नहीं है कि उक्त गतिविधियां और संबद्धताएं इतनी ही मासूम हों जितना कि मैंने बताया। इसमें प्रतिभूति कारोबारी शामिल हो सकते हैं जिनके संपर्क साधारण कारोबारियों से भी हो सकते हैं और ऐसे ताकतवर कॉर्पोरेट अधिकारियों से भी जो कारोबार की भेदिया जानकारी मुहैया करा सकते हों। ऐसे में अचानक नेटवर्क विश्लेषण की तकनीक भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड जैसी संस्था के लिए जरूरी हो जाती है ताकि वह भेदिया कारोबार का पता लगा सके।
नेटवर्क के नजरिये से दुनिया को देखने पर नयी अंतर्दृष्टि मिलती है। उदाहरण के लिए औद्योगिक युग के नजरिये से देखा जाए तो अमेरिका और चीन की बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियां, सोशल मीडिया और भारत में अपने कारोबार में भारी नुकसान उठा रही फिनटेक कंपनियों की सराहना की जाती है कि वे बहुत उदार हैं और यहां विदेशी मुद्रा ला रही हैं। परंतु नेटवर्क युग पर आधारित प्रतिस्पर्धा कानून इनके कदमों की सही प्रकृति बताएगा। ये नेटवर्क के एक पक्ष की रियायत की बदौलत बाजार हिस्सेदारी हासिल कर रही हैं और इसलिए दुरुपयोग की दोषी हैं। इस नए नेटवर्क आधारित विश्व में संवाद भी नेटवर्क से जुड़ी तकनीकी शब्दावली के इर्दगिर्द ही केंद्रित रहेगा। केवल प्रतिभूति एवं प्रतिस्पर्धा अधिनियम के बजाय देश के कई कानूनों को अद्यतन बनाने की आवश्यकता है ताकि भारत नेटवर्क अर्थव्यवस्था की ओर बदलाव में पीछे न रह जाए। नए वर्ष में और नेटवक्र्स की नई दुनिया में आप सभी का स्वागत है।
(लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)
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