एमएसपी की सीमाएं | संपादकीय / January 04, 2022 | | | | |
एक वर्ष तक चला किसान आंदोलन गत माह उस समय समाप्त हुआ जब सरकार ने तीनों विवादास्पद कृषि कानूनों को संसद में निष्प्रभावी कर दिया। सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी बनाने पर विचार करने पर भी सहमति जताई। जानकारी के मुताबिक सरकार ने किसान समूहों से कहा है कि वे इस विषय में बनने वाले पैनल के सदस्यों के लिए नाम सुझाएं। पैनल का दायरा काफी व्यापक होगा। यह समिति न केवल एमएसपी को अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के सुझाव देगी बल्कि आशा की जा रही है कि यह प्राकृतिक खेती और बदलती जरूरतों के अनुसार फसल चक्र को वैज्ञानिक ढंग से बदलने जैसे विषयों पर भी राय देगी।
स्पष्ट है कि इस समिति की राय कृषि क्षेत्र के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होगी। हालांकि मौजूदा हालात को देखते हुए ध्यान इस बात पर केंद्रित रहेगा कि समिति एमएसपी के मसले से कैसे निपटती है। सरकार ने 23 फसलों के लिए एमएसपी घोषित किया है लेकिन प्रमुख तौर पर चुनिंदा राज्यों में चावल और गेहूं की खरीद की जाती है। समेकित स्तर पर देखा जाए तो सरकारी हस्तक्षेप की पहुंच और प्रभाव बहुत सीमित हैं। जैसा कि अशोक गुलाटी और रंजना रॉय ने हाल ही में द इंडियन एक्सप्रेस में प्रकाशित अपने आलेख में जनगणना और राष्ट्रीय खातों के आंकड़ों के हवाले से कहा था कि केवल 5.6 फीसदी किसानों को ही एमएसपी का लाभ मिलता है। कृषि उपज के मूल्य के हिसाब से केवल 2.2 फीसदी को ही एमएसपी का लाभ मिलता है।
कृषि से जुड़े परिवारों की स्थिति से संबंधित राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय की ताजा रिपोर्ट भी यह दिखाती है कि एमएसपी व्यवस्था से लाभान्वित होने वाले परिवार और उत्पादन दोनों सीमित हैं। इतना ही नहीं एमएसपी के लाभ के वितरण में भी देश भर में असमानता है। पंजाब और हरियाणा के किसानों को एमएसपी व्यवस्था का सबसे अधिक लाभ मिला है। हालांकि अब इसका प्रसार कुछ अन्य राज्यों में भी हुआ है। एमएसपी व्यवस्था का स्तर और इसका प्रसार यही संकेत करता है कि सरकार इसमें बड़े पैमाने पर इजाफा नहीं कर सकती है। वह पहले ही सार्वजनिक वितरण प्रणाली द्वारा बांटे जाने वाले अनाज की तुलना में कहीं अधिक अनाज की खरीदारी कर रही है।उसके पास इतनी क्षमता भी नहीं है कि वह सभी फसलोंके लिए कीमत गारंटी दे सके। इसी प्रकार एमएसपी के जरिये किए जाने वाले हस्तक्षेप का विस्तार करने से कृषि क्षेत्र को उभरती मांग की परिस्थितियों के साथ तालमेल का अवसर नहीं मिलेगा। गेहूं और चावल का चक्र अस्थायी होता जा रहा है, खासतौर पर पंजाब और हरियाणा जैसे राज्यों में। ऐसे में पैनल और सरकार को किसानों की मदद के अन्य तरीके तलाशने होंगे। अहम मदद वाला एक अन्य विकल्प है किसानों को आय अंतरण।
सरकार पहले ही पीएम-किसान योजना के तहत सालाना 6,000 रुपये अंतरित कर रही है। सरकार रकबे के हिसाब से इसका दायरा और आकार बढ़ा सकती है। वह पानी की कमी वाले इलाकों में किसानों को पानी की खपत वाली फसलों से दूर रहने के लिए प्रोत्साहित करने की खातिर भी धनराशि दे सकती है। भूमिहीन श्रमिकों और बटाईदार किसानों को भी इस व्यवस्था में लाने के भी तरीके निकालने होंगे। सीधा समर्थन देने के तरीके तलाशने के अलावा सरकार को कृषि सुधारों पर जोर देते रहना होगा तथा मूल्य शृंखला को मजबूत बनाना होगा। अब निरस्त किए जा चुके कानूनों का उचित बचाव करने के बावजूद सरकार एक बार फिर कीमतें कम करने के लिए भंडारण सीमा और वायदा कारोबार पर रोक लगाने जैसे कदम उठा रही है। यह किसानों की आय बढ़ाने और कृषि मूल्य शृंखला को मजबूत बनाने के विचार के प्रतिकूल है। सरकार को बाजार को काम करने देना चाहिए। उसे कृषि क्षेत्र की चिंताओं से निपटने के लिए बहुमुखी तरीके अपनाने होंगे। कीमतों की गारंटी से केवल जटिलताएं बढ़ेंगी।
|