पारदर्शिता से मिलेगी मदद | संपादकीय / January 03, 2022 | | | | |
विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम (एफसीआरए) के लाइसेंस को लेकर उत्पन्न विवाद इससे संबंधित नीति की अस्पष्ट और मनमानी प्रकृति की ओर संकेत करता है जो न केवल गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) को प्रभावित करती है बल्कि नागरिक समाज पर भी असर डालती है। इस क्षेत्र में किस कदर मनमानेपन से काम हो रहा है इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि 2022 के पहले दिन 6,000 से अधिक एनजीओ के लाइसेंस अपनी अवधि पूरी कर गए, 179 के लाइसेंस या तो निरस्त कर दिए गए या जांच के अधीन रहे। मिशनरीज ऑफ चैरिटीज का सात दशक पुराना लाइसेंस कथित तौर पर गुजरात में की गई एक पुलिस शिकायत के आधार पर निरस्त कर दिया गया। शिकायत में कहा गया था कि संगठन युवतियों का धर्मांतरण करने का प्रयास कर रहा था। इस खबर ने खूब सुर्खियां बटोरीं। परंतु देश में ऐसे ही पुराने वाले कई एनजीओ मसलन ऑक्सफैम से लेकर जामिया मिल्लिया, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र और इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर समेत कई के पास अब एफसीआरए लाइसेंस नहीं हैं। एक चौंकाने वाली बात यह है कि जिन 18,778 संगठनों के लाइसेंस 31 दिसंबर, 2021 की मध्य रात्रि को समाप्त हुए उनमें से 5,789 ने अपने लाइसेंस का नवीनीकरण नहीं कराने का निर्णय लिया, ऑक्सफैम भी उनमें से एक है।
मौजूदा प्रशासन के दौर में एनजीओ को लेकर सरकार के शत्रुतापूर्ण व्यवहार में कुछ भी नया नहीं है। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कार्यकाल में एफसीआरए व्यवस्था और अधिक कठोर हुई। खासकर कुडमकुलम परमाणु बिजली संयंत्र के खिलाफ हुए स्थानीय विरोध के जोर पकडऩे के समय ऐसा हुआ। सन 2010 में अधिनियम में संशोधन किया गया और विदेशी अनुदान को विनियमित करने के लिए नए प्रावधान जोड़े गए जिससे अगले प्रशासन के लिए पृष्ठभूमि तैयार हुई। सन 2015 में गृह मंत्रालय ने नए नियम प्रस्तुत किए जिनके तहत विदेशी फंड पाने वाले एनजीओ को वचन देना था कि वे देश की संप्रभुता या सुरक्षा को क्षति नहीं पहुंचाएंगे या किसी अन्य देश के साथ मित्रवत रिश्तों को प्रभावित नहीं करेंगे या फिर देश में सांप्रदायिक सद्भाव को क्षति नहीं पहुंचाएंगे। इन प्रावधानों के बाद 2020 में और अधिक प्रतिबंधात्मक प्रावधान आए जिन्होंने रिपोर्टिंग की जरूरत बढ़ाई, पंजीयन प्रक्रिया को कड़ा बनाया और विदेशी धन हासिल करने वाले एनजीओ की धन उपयोग करने की व्यवस्था को काफी हद तक सीमित किया।
आश्चर्य नहीं कि 2020 के बाद से देश में एनजीओ की तादाद आधी हो गई है। विडंबना यह है कि 2017 से मनमानी जांच का दायरा बढऩे के बाद भी भारतीय समाज के सबसे अधिक बड़े एनजीओ यानी राजनीतिक दल इससे बाहर हैं। बल्कि उन्हें तो चतुराईपूर्ण अतीत से संशोधित कानून का लाभ मिला और वे विदेशी कंपनियों की भारतीय अनुषंगी या किसी भारतीय की 50 फीसदी हिस्सेदारी वाली विदेशी कंपनी से फंड पाने के अधिकारी हो गए। इसका तात्कालिक संदर्भ था वेदांत द्वारा 2004 से 2012 के बीच कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों को दिया गया चंदा जिसे अदालत ने अवैध ठहराया था। बाद में विपक्ष और सत्ता पक्ष के बीच दुर्लभ एकता दिखाते हुए इस फैसले को कानूनन पलट दिया गया।
एनजीओ पर जिस तरह अस्पष्टता के साथ जांच परख शुरू की गई है उसमें यह देखा जा सकता है कि सरकार की आलोचना करने वाले संगठनों को खासतौर पर निशाने पर रखा जा रहा है। यदि सरकार स्पष्ट नीति के साथ सामने आए तो एफसीआरए व्यवस्था को सुसंगत बनाने में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं। ऐसा करते हुए बस यह करना है कि विदेशी निवेश की शर्तों की तरह विदेशी फंडिंग वाले सभी संस्थानों के लिए भी दिशानिर्देश एकदम स्पष्ट हों। इससे पारदर्शिता बढ़ेगी और अनुपालन करने वाले एनजीओ स्वतंत्र रूप से काम कर सकेंगे।
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