देश के दफ्तरों में धीरे-धीरे लोगों की वापसी हो रही है लेकिन कंपनियों के प्रबंधन को पहले की तरह दफ्तर में रफ्तार बनाए रखने के लिए काफी संघर्ष करना पड़ रहा है। इसमें कोई शक नहीं कि कार्यस्थल पर स्त्री-पुरुषों की समानता की दर में काफी कमी आ सकती है। आने वाले दिनों में नौकरियों में वृद्धि की गति धीमी और स्थिर होने की उम्मीद है। अहम बात यह है कि देश के नियोक्ताओं की भूमिका में अधिकांश पुरुष ही हैं और वे शायद ही महिलाओं को काम पर रखने को लेकर उत्साहित होते हैं। ऐसे में नौकरियों की सीमित संख्या को देखते हुए पुरुषों को ही नौकरी में अधिक तरजीह देने के पुराने तरीकों को अपनाया जा सकता है। देश में अर्थव्यवस्था से जुड़ी बाधाएं भारत में महिलाओं की समानता के लिए कभी भी अच्छी नहीं रही है और पिछले छह सालों में दो मानव निर्मित बाधाओं और एक अर्ध-मानव निर्मित बाधा ने यह साबित कर दिया है। नोटबंदी (2016) की घोषणा करने और हड़बड़ी में वस्तु एवं सेवा कर (2017) को लागू करने के बाद कोविड-19 महामारी से तीसरा झटका लगा है। इन तीनों वजहों से भारतीय अर्थव्यवस्था वर्ष 2016 के बाद से ही निरंतर चुनौतियों से जूझ रही है। चौथे झटके के रूप में, महामारी की पहली और दूसरी लहर के प्रभाव को अलग करके देखा जा सकता है। इसी दौरान अपेक्षाकृत कम समय में काफी अधिक लोगों को विस्थापन के लिए मजबूर होना पड़ा। इसका प्रभाव समग्र रोजगार के संदर्भ में लगभग तुरंत दिखाई देने ही लगा। इसका असर महिलाओं के रोजगार में गैर-आनुपातिक तरीके से भी दिखा जिसमें कभी उछाल आई ही नहीं थी। देश में महिला श्रम भागीदारी दर (एफ एलपीआर) वर्ष 2005 के 26 फीसदी के मुकाबले वर्ष 2019 तक कम होकर 20.3 प्रतिशत तक हो गई क्योंकि नोटबंदी और जीएसटी का असर छोटी और मझोली कंपनियों पर पड़ा। इसको लेकर एक सिद्धांत यह है कि एफएलपीआर में गिरावट की आंशिक वजह यह है कि अधिक महिलाएं उच्च शिक्षा पाने के लिए नौकरियां छोड़ रही हैं। उच्च शिक्षा के लिए कुल सकल नामांकन अनुपात में तेजी भी इसकी आंशिक रूप में पुष्टि करते हैं। हम यह नहीं जानते हैं कि क्या महिलाओं ने अपनी नौकरियां गंवाने के बाद उच्च शिक्षा के लिए नामांकन कराया या फिर उन्होंने स्वेच्छा से अपनी नौकरी छोड़ दी ताकि वे खुद को बेहतर तरीके से शिक्षित कर सकें। यह भी संभव है कि उन्होंने दफ्तर में काम का माहौल प्रतिकूल होने की वजह से नौकरी छोड़ कर और दूसरी नौकरी का विकल्प ढूंढने से पहले समय का सही इस्तेमाल करने के लिए खुद को फिर से शिक्षित करने का फैसला किया। जो भी हो लेकिन 21 दिनों के कोविड-19 लॉकडाउन ने कार्यस्थल पर स्त्री-पुरुषों को लेकर बने पूर्वग्रह के बारे में बुनियादी सच्चाई को रेखांकित किया जब एफ एलपीआर 2020 की अप्रैल-जून तिमाही में 15.5 प्रतिशत के रिकॉर्ड निचले स्तर पर आ गया और पिछले वर्ष की जुलाई-सितंबर तिमाही में बढ़कर सिर्फ 16.1 प्रतिशत हो गया। महिलाओं को स्पष्ट रूप से लॉकडाउन की वजह से बढ़ी हुई बेरोजगारी का खामियाजा भुगतना पड़ा। सरकार के सांख्यिकी कार्यालय के आंकड़ों से पता चला है कि सितंबर 2020 में समाप्त हुए तिमाही के दौरान बेरोजगारी दर पुरुष कामगारों के 12.6 प्रतिशत के मुकाबले 15.8 प्रतिशत हो गई। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी के महेश व्यास के मुताबिक, '2019-20 में कार्यबल में महिलाओं की हिस्सेदारी 10.7 फीसदी रही लेकिन लॉकडाउन की वजह से नुकसान वाले पहले महीने अप्रैल 2020 में 13.9 फीसदी महिलाओं को नौकरी गंवानी पड़ी।' हालांकि उनका कहना है कि अधिकांश पुरुषों को फिर से नौकरियां मिल गईं लेकिन महिलाओं की किस्मत इस लिहाज से कम अच्छी रही और नवंबर में 49 फीसदी नौकरी गंवाने वाली महिलाएं ही थीं। लॉकडाउन के शुरुआती दिनों में यह उम्मीद जताई जा रही थी कि कॉरपोरेट जगत में स्त्री-पुरुष के काम से जुड़े पूर्वग्रह में बदलाव आएगा क्योंकि दफ्तर के काम घर से निपटाते वक्त महिलाओं और पुरुषों की काम करने की स्थितियां एक समान होंगी। महामारी के बाद यह उम्मीद जताई जा रही थी कि प्रबंधन इस बात पर गौर करेगा कि घर के कर्तव्यों के बोझ से दबी महिलाओं को घर से काम करने की अनुमति देने की वजह से उनका प्रदर्शन प्रभावित नहीं हुआ या फिर उन्हें रोजगार देने से रोकना ठीक नहीं। लेकिन भारत में पिछड़ा सामाजिक दृष्टिकोण कोविड-19 के डेल्टा या ओमीक्रोन स्वरूप से भी ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है। अगर घर से काम कर रहे पुरुष अपने घर की उन औरतों की घरेलू कामों में मदद के लिए आगे नहीं बढ़ते जो घर से दफ्तर का काम कर रही हैं तब नियोक्ताओं के नजरिये में बदलाव की संभावना कम ही दिखती है जिनमें से ज्यादातर पुरुष ही होते हैं। निश्चित तौर पर महामारी के बाद हालात सामान्य होने को लेकर जूझ रही कंपनियों के प्रबंधन के लिए स्त्री-पुरुष के अनुपात पर ध्यान देने का पहलू कमजोर नजर आता है। इस तरह के मुद्दों को सबसे नीचे रखा जाता है और यह हाल के एक उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है। अमेरिका के मॉर्गेज फाइनैंस स्टार्टअप बेटर डॉट कॉम के मुख्य कार्यकारी अधिकारी) विशाल गर्ग ने जूम कॉल के माध्यम से 900 कर्मचारियों को नौकरी से निकाल दिया था और इनमें से कुछ ने भारत के कार्यालयों में भी काम किया हो सकता है। यह प्रबंधकीय संवेदनहीनता की एक हैरान करने वाली मिसाल है। उन्होंने अपने कम से कम 250 कर्मचारियों को दिन में 8 घंटे की कार्यवधि में महज दो घंटे काम करने का आरोप लगाया। जिन 900 लोगों को नौकरी से हटाया गया उनमें कई पर्यवेक्षक भी शामिल थे जिन्हें बर्खास्त किया गया। अगर अमेरिका में किसी सीईओ का यह रवैया है जहां महिला आंदोलन एक मजबूत ताकत है, तब भारत में जहां महिलाओं की वकालत करने की स्थिति कमजोर है वहां इसके बेहतर होने की उम्मीद शायद ही की जा सकती है।
