आजादी के 75वें वर्ष के उपलक्ष्य में हाल ही में झांसी में आयोजित 'राष्ट्रीय रक्षा समर्पण पर्व' के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारतीय वायुसेना को हल्का लड़ाकू हेलीकॉप्टर (एलसीएच) सौंपा जिसे हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड (एचएएल) द्वारा स्थानीय स्तर पर डिजाइन, विकसित और निर्मित किया गया है। एलसीएच के सार्वजनिक प्रचार के बीच यह विडंबना ही है कि वायुसेना और थलसेना के लिए 15 ऐसे हेलीकॉप्टर बनाने का अनुरोध लंबे समय से कैबिनेट के समक्ष लंबित है जबकि इसके लिए 2017 में परिचालन मंजूरी मिल चुकी है। सुरक्षा मामलों की कैबिनेट कमेटी ने यह कहते हुए इन हेलीकॉप्टरों की खरीद पर आपत्ति जताई है कि इसमें इतनी स्वदेशी सामग्री नहीं लगी है कि इसे 'मेड इन इंडिया' करार दिया जा सके। रक्षा खरीद प्रक्रिया 2016 के अनुसार न्यूनतम 40 प्रतिशत स्वदेशी सामग्री होनी चाहिए जबकि रक्षा खरीद नीति 2020 के अनुसार इसे 50 फीसदी से अधिक होना चाहिए। यह रहस्यमय ही है कि प्रधानमंत्री ने एलसीएच को स्वदेशी उत्पाद के रूप में क्यों चुना जबकि उनकी ही कैबिनेट ने उन्हें स्वदेशी न मानते हुए 15 एलसीएच की निर्माण मंजूरी रोक रखी है। भारत में तैयार और बने उत्पाद अक्सर स्वदेशी दर्जा इसलिए नहीं पाते कि रक्षा मंत्रालय इतने छोटे ठेके देता है कि इनके कई कलपुर्जों को देश में बनाना आर्थिक दृष्टि से व्यवहार्य नहीं रहता। मिसाल के तौर पर हर हेलीकॉप्टर में केवल एक कंट्रोल केबल की जरूरत होती है। देश के हल्के हेलीकॉप्टर बेड़े को पूरे जीवन काल में केवल 1,000 ऐसी केबल की जरूरत होगी। इसकेलिए कारखाना बन सकता है लेकिन इससे हेलीकॉप्टर महंगा पड़ेगा जबकि उसकी विदेश से खरीद बहुत सस्ती होगी। देश की उत्तरी सीमाओं पर जवानों के लिए ऐसा हवाई समर्थन बहुत आवश्यक है। खासतौर पर ऐसे हथियार जो शत्रुओं पर ऊंचाई से चलते हुए गोलाबारी कर सकें। एलसीएच इस पर खरा उतरता है। ऐसे में इसे सेवा में लेने की ठोस वजह हैं। ज्यादा कलपुर्जों को स्वदेशी स्तर पर तैयार करने के पक्ष में आर्थिक दलील तैयार की जा सकती है। बड़ी तादाद में एलसीएच तैयार करने से लागत में भारी कमी आएगी। घरेलू लागत कम करने के अलावा निर्यात ऑर्डर के जरिये भी एलसीएच के निर्माण के लिए दलील मजबूत की जा सकती है। इसके लिए कम कीमत के साथ रखरखाव का पैकेज तैयार किया जा सकता है जो ग्राहकों को आश्वस्ति प्रदान करेगा। रक्षा मंत्रालय पहले ही व्यापारिक संस्थाओं के निर्यातकों को संगठित कर रहा है ताकि संभावित खरीदार देशों से लॉबीइंग की जा सके। उसने अप्रसार व्यवस्थाओं मसलन मिसाइल टेक्रॉलजी कंट्रोल रिजीम, वास्सेनार अरेंजमेंट तथा ऑस्ट्रेलिया ग्रुप की सदस्यता ली है जबकि परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह में प्रवेश के लिए लॉबीइंग जारी है। स्वचालित मार्ग के जरिये प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाकर 74 प्रतिशत कर दिया गया है। सरकार संभावित खरीदारों के लिए और कदम उठा सकती है जिनसे खरीद को प्रोत्साहन मिले। इस बात को लेकर समझ बढ़ रही है कि वास्तविक पैसा विदेशी विमानन कंपनियों तथा रक्षा कंपनियों के लिए कलपुर्जे निर्यात करने में नहीं बल्कि उच्च मूल्य वाले युद्धक प्लेटफॉर्म मसलन लड़ाकू विमान, हेलीकॉप्टर, टैंक और तोप आदि का निर्यात करने में है। ऐसा करके ही रक्षा मंत्रालय अगले पांच वर्ष में निर्यात तीन गुना करने के लक्ष्य के करीब पहुंच पाएगा या 2018 की रक्षा उत्पादन नीति के 2025 तक निर्यात को 5 अरब डॉलर करने के आसपास पहुंच सकेगा। आखिर में यदि रक्षा उत्पादन के हालात की गहराई से परीक्षा करके यह अनुमान लगाना हो कि तकनीक और उपकरण के कौन से क्षेत्र स्वदेशीकरण के अधिकतम अवसर प्रदान करते हैं तो जवाब तक पहुंचने में बहुत समय नहीं लगेगा: एरो इंजन। एक नये सैन्य विमान की लागत का एक तिहाई ये इंजन होते हैं, ऐसे में आकलन है कि अगले दो दशक में भारत 3.5 से चार लाख करोड़ रुपये के एरो इंजन खरीदेगा। इसके बावजूद लगातार सरकारों ने एरो इंजन के निर्माण और विकास की अनदेखी की है। मौजूदा हेलीकॉप्टर खरीद योजना के इंजनों की लागत की बात करें तो एचएएल करीब 400 ध्रुव और करीब 180 एलसीएच बनाएगी। ये दोनों दो इंजन वाले हेलीकॉप्टर हैं। 400 अन्य एक इंजन वाले हल्के यूटिलिटी हेलीकॉप्टर (एलयूएच) चेतक और चीता बेड़े की जगह लेंगे। पूरे सेवा काल के दौरान इन हेलीकॉप्टरो के इंजन दो बार बदलने की जरूरत होगी। यानी करीब 5,000 शक्ति इंजनों की आवश्यकता। फिलहाल इस इंजन की कीमत 8 करोड़ रुपये है तो यह राशि हुई करीब 40,000 करोड़ रुपये। अब अगर इसमें मुद्रास्फीति को जोड़ दिया जाए और खराब कलपुर्जों की लागत तथा गैस्केट और बियरिंग की खपत को शामिल कर दिया जाए तो यह राशि 50,000 करोड़ रुपये से अधिक हो जाएगी। यह केवल हेलीकॉप्टर का व्यय है विमान पर तो यह और अधिक होगा। दुनिया के बड़े इंजन निर्माता खुशी-खुशी भारत को एरो इंजन बेचते हैं। तकनीकी संरक्षण का कोई मसला नहीं है क्योंकि इन उच्च क्षमता वाले इंजनों की रिवर्स इंजीनियरिंग करना मुश्किल काम है। इनकी नकल करना भी मुश्किल है। चीन भी ऐसा नहीं कर सका है। भारतीय रक्षा शोध एवं विकास संस्थान ने तो इस दिशा में और कम प्रगति की है। उसने तेजस विमान के लिए कावेरी इंजन विकसित किया जो रूस में परीक्षण उड़ान में केवल 72 किलो न्यूटन क्षमता दिखा सका जबकि उच्चतम स्तर पर 82 से 90 किलो न्यूटन क्षमता की जरूरत होगी। कावेरी का कुल बजट 2,839 करोड़ रुपये रहा। भारत इंजन विकास पर चीन के समान खर्च नहीं कर सकता लेकिन उसके पास अनुकरण के लिए मॉडल है: देश का सफल मिसाइल विकास कार्यक्रम। लक्ष्य तय करके तकनीकी कार्यबल का आवंटन और नेतृत्व के साथ परियोजना संचालन के लिए जरूरी व्यय: यानी करीब 14,000-15,000 करोड़ रुपये। यदि हम स्तरीय एरो इंजन विकसित कर सके तो भारतीय सेना के लिए कई दरवाजे खुलेंगे।
