गत शुक्रवार को पेटीएम ने एक ऐसा इतिहास रचा जिसे वह शायद ही याद रखना चाहे। भारतीय शेयर बाजारों की सबसे बड़ी प्रारंभिक सार्वजनिक पेशकश (आईपीओ) जिसका मूल्य 2,150 रुपये प्रति शेयर निर्धारित किया गया था, उसकी शुरुआत 9 फीसदी गिरावट के साथ हुई और उसमें आगे चलकर और गिरावट आई। सुबह करीब 11 बजे जोर पकडऩे की नाकाम कोशिश के बाद शेयर बिकवाली के भारी दबाव में आ गया और दिन का अंत लोअर सर्किट लगने के साथ हुआ क्योंकि उसकी कीमत 27.6 फीसदी गिर चुकी थी। तत्काल बाद एक विदेशी ब्रोकरेज फर्म ने 1,200 रुपये की लक्षित कीमत तय की जो पेटीएम की इश्यू कीमत से 44 फीसदी नीचे थी। उसने कहा कि यह कारोबार नकदी की खपत करने वाला है और यह मुनाफा नहीं दे सकता। इसके बावजूद पेटीएम के मुख्य वित्तीय अधिकारी ने दावा किया, 'हम आईपीओ की कीमत और अधिक रख सकते थे लेकिन हमने ऐसा नहीं करने का निर्णय लिया। हम निवेशकों के लिए मूल्य छोडऩा चाहते थे।' भारतीय आईपीओ बाजार में अब तक तेजी का दौर रहा है। वर्ष 2021 के शुरुआती नौ महीनों में भारतीय कंपनियों ने आईपीओ के माध्यम से 74,000 करोड़ रुपये की राशि जुटाई है। बीते दो दशक में यह जनवरी-अक्टूबर में आईपीओ से आई अधिकतम राशि है। संभव है इस वर्ष का अंत आईपीओ के माध्यम से एक लाख करोड़ रुपये जुटा कर हो। इसके बावजूद चार में से तीन बड़े आईपीओ घाटे में चल रही उपभोक्ता टेक कंपनियों के हैं: पेटीएम (18,300 करोड़ रुपये), जोमैटो (9,375 करोड़ रुपये) और पीबी फिनटेक या पॉलिसीबाजार (6,273 करोड़ रुपये)। इन सभी ने आईपीओ के पहले बाजार व्यय कम करने की रणनीति अपनाई ताकि घाटे को कम करके दिखाया जा सके और मुनाफा दर्शाया जा सके। बीते तीन दशक में आईपीओ को लेकर जो बावलापन रहा है उसके साक्षी रहे लोगों के ऐसे दृश्य नए नहीं हैं। मैंने अपनी पुस्तक फेस वैल्यू में ऐसे दो अवसरों का दस्तावेजीकरण किया है। पहला था सन 1993-95 का दौर जब इस बात पर लगभग सहमति बन चुकी थी कि भारत एशिया के अन्य देशों को पीछे छोड़ देगा। सन 1994 में 7.4 फीसदी की गति से विकसित होने के बाद अनुमान जताया जा रहा था कि भारतीय अर्थव्यवस्था आगे 9 फीसदी की दर से विकसित होगी। कंपनियों ने इस महत्त्वाकांक्षी वृद्धि अनुमान को देखते हुए जमकर पूंजी जुटाना शुरू कर दिया। सरकार ने भारतीय कंपनियों को विदेशों से पूंजी जुटाने की अनुमति दे दी। जल्दी ही विदेशी निवेश बैंकर उन कंपनियों को तलाशने लगे जिनके बहीखाते मजबूत हों और जिन पर विदेशों में फंड जुटाने के लिए दबाव बनाया जा सके। इस प्रक्रिया में कंपनियों को वह मान और प्रतिष्ठा मिली जो उन्हें घरेलू बाजार में नहीं मिल पा रही थी। कोर पैरेंटल्स, गार्डन सिल्क मिल्स और फ्लेक्स इंडस्ट्रीज जैसी कंपनियां जिन्हें भारत में भाव नहीं मिल रहा था वे लंदन जैसी जगहों पर पसंदीदा बन गई थीं। इस तेजी के आखिर तक घरेलू आईपीओ बाजार आसमान छूने लगा। जनवरी 1995 में 145 शेयर सबस्क्रिप्शन के लिए खुले। रिलायंस कैपिटल, एस्सार ऑयल, जिंदल विजयनगर, एमएस शूज और अन्य बड़े शेयर उस वर्ष के शुरुआती दो महीनों में बाजार में पेश किए गए। फरवरी 1995 में एक महीने में 78 कंपनियां सार्वजनिक हुईं और उस वित्त वर्ष में 1,400 आईपीओ आए। आपको सन 1994-95 का प्रहसन तब समझ आएगा जब आप देखेंगे कि सन 1998 से 2001 के बीच केवल 219 कंपनियों ने सार्वजनिक पूंजी जुटाई। सन 1993 के बाद से वित्तीय तेजी को समर्थन देने वाला कोई गंभीर सुधार नहीं हुआ। उस वक्त भी मैंने इस अखबार के अंग्रेजी संस्करण में लिखा था, 'कॉर्पोरेट क्षेत्र मौजूदा अपूर्ण व्यवस्था को लेकर आश्वस्त है: इसमें जितनी आसानी से सार्वजनिक पेशकश की जा सकती है और जवाबदेही की बहुत कमी है। इससे समझा जा सकता है कि छोटी-बड़ी कंपनियों में बाजार में प्रवेश को लेकर इतनी हड़बड़ी क्यों है। कल के विजेता इनके बीच से नहीं होंगे...बाजार मूल्य हमेशा प्रदर्शन की भरपाई नहीं करेगा।' चुनाव पास आने पर रिजर्व बैंक ने मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने के लिए ब्याज दर बढ़ानी शुरू की। सन 1995 के आखिर तक उच्च ब्याज दर के कारण उद्योग परेशान होने लगा, सन 1995 के बाद से भारतीय शेयरों में गिरावट आने लगी। बाजार में अगली बड़ी तेजी सन 1999 के आखिर से 2000 तक रही। इस दौरान पुरानी कंपनियों के शेयर पिछड़े और नई अर्थव्यवस्था के शेयर मसलन इंटरनेट, सॉफ्टवेयर और मनोरंजन कंपनियों के शेयर नई ऊंचाइयों पर पहुंचने लगे। उस वक्त आईपीओ की तेजी नहीं थी बल्कि बड़े पैमाने पर नए फंडों की पेशकश की जा रही थी। इक्विटी म्युचुअल फंडों में तकनीक आधारित फंडों से धन जुटाने की होड़ लगी थी। इन फंडों के बड़े सबस्क्रिप्शन और विप्रो तथा इन्फोसिस जैसी कंपनियों के अमेरिकी बाजार में सूचीबद्धता के साथ 2000 के दशक के शुरुआती दौर का अंत हुआ। अगली तेजी अप्रैल 2003 में आई और 2008 के आरंभ तक चली। 11 फरवरी, 2008 भारतीय शेयर बाजारों के लिए एक अन्य ऐतिहासिक दिन रहा। उस दिन रिलायंस पावर ने अपने मेगा आईपीओ के जरिये 11,563 करोड़ रुपये जुटाए और जबरदस्त ढंग से सूचीबद्ध हुई। इस आईपीओ ने 7 लाख करोड़ रुपये से अधिक की राशि जुटाई और इसका इश्यू 72 गुना सबस्क्राइब हुआ। हर किसी में इसे खरीदने की होड़ लगी थी। खुदरा निवेशकों के लिए इसकी कीमत 430 रुपये और गैर खुदरा निवेशकों के लिए 450 रुपये रखी गई थी। सूचीबद्धता पर आरपावर के शेयर बढ़कर 538 रुपये तक पहुंचे लेकिन चार मिनट के भीतर वे औंधे मुंह गिरे और 333 रुपये पर आ गए। आखिरकार वे 372.50 रुपये प्रति शेयर पर बंद हुए। इसके बाद यह शेयर कभी अपने जारी मूल्य तक नहीं पहुंचा और आज इसकी कीमत 13.50 रुपये है। पेटीएम का उदाहरण लेते हुए देखें तो बाजार में अतिरंजना के सभी तत्त्व साफ नजर आते हैं: एक लंबा तेजी भरा बाजार और अत्यधिक सफल आईपीओ जिन्होंने निवेशकों में आश्वस्ति का भाव पैदा किया, घाटे में चल रही लेकिन अहंकार से भरी कंपनी ने भारी भरकम आईपीओ बहुत अधिक दाम पर पेश किया, ऐसी ही कई अन्य कंपनियां फंड जुटाने के लिए कतार में लगी हुई हैं और बाहरी माहौल की बात करें तो मुद्रास्फीति अधिक है और दुनिया भर में कीमतों में इजाफा संभावित है। पेटीएम की असफलता अगर तेजी के दौर का अंत नहीं करती तो भी बेलगाम आईपीओ बाजार में कुछ समझदारी आएगी। (लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक हैं। )
