आजादी के बाद किसी और ऐसे दौर के बारे में सोच पाना भी मुश्किल है जब कैबिनेट रैंक के किसी अधिकारी ने पुलिस अधिकारियों से कहा हो कि वे नागरिक समाज के खिलाफ जंग छेड़ दें। इंदिरा गांधी के आपातकाल को ही इसका इकलौता अपवाद माना जा सकता है। आपातकाल को शामिल करके भी ऐसे किसी अन्य उदाहरण की कल्पना करना मुश्किल है जहां सेना के अनुशासन में बंधे चार सितारा जनरल ने 'आतंकवादियों' (संभवत: भीड़ द्वारा चिह्नित) को लिंच (भीड़ द्वारा मारे जाने) किए जाने का स्वागत किया हो। भरपूर गंभीरता के बीच ऐसे वक्तव्य जारी किया जाना बताता है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में देश में ऐसा बड़ा बदलाव आया है। भारत में आक्रांताओं तथा अन्य लोगों द्वारा हिंसा का लंबा इतिहास रहा है। स्वतंत्रता के संघर्ष में अपनाए गए अहिंसक तरीके ने उसे दूसरों से अलग किया और उस इतिहास को ढक लिया। इसके बाद हत्याओं के सिलसिले ने उसे दोबारा उजागर कर दिया। दलितों के खिलाफ व्यवस्थित और चरणबद्ध हिंसा की घटनाएं हमारे सामने हैं। शक्तिहीन आदिवासियों को उनके पारंपरिक रहवास से बाहर करके जो व्यापक निकासी की गई वह भी हिंसा ही है। आज यदाकदा की क्रूरताएं उस घटनाक्रम के पूरक के रूप में काम कर रही हैं जहां अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र को नुकसान पहुंचाकर लाखों लोगों के रोजगार छीन लिए गए और इसे अर्थव्यवस्था को औपचारिक बनाने का नाम देकर इसका जश्न मनाया गया। अधिकांश समाजों में शक्तिशाली वर्ग कमजोर के खिलाफ हिंसा करता है, वर्दी वाले लोग खराब कपड़े पहनने वालों के खिलाफ हिंसा करते हैं, बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा की जाती है। परिभाषा के मुताबिक हिंसा पर राज्य का एकाधिकार है और वह या तो अपराधी है या फिर सहयोगी दर्शक की भूमिका में है। नतीजा डार्विन के सिद्धांत के मुताबिक है। एक पुरानी कहावत इसे अच्छी तरह परिभाषित करती है: जिसकी लाठी, उसकी भैंस। हालांकि पति-पत्नी ब्रायन हेयर और वनेसा वुड्स ने गत वर्ष एक सिद्धांत दिया जो सबसे फिट के बचाव के समांतर एक मान्यता को स्थापित करती है। 'सबसे मित्रवत के बचाव की बात करते हुए हमारी बुनियाद और हमारी साझा मानवता के बारे में समझ पेश करते हुए वे कहते हैं कि डार्विन के बचाव के सिद्धांत को मित्रता और सहयोगात्मक आचरण के साथ देखना होगा। इन सिद्धांतों ने अन्य निकटवर्ती जीवों की तुलना में मनुष्यों को ज्यादा बेहतर और समुद्ध बनाया है। यह बात समाजों के साथ-साथ कारोबारी संस्कृति, क्रिकेट टीमों और व्यक्तिगत लोगों के लिए भी सही है। यह बात जानवरों पर भी लागू होती है: हेयर और वुड्स को पहले की एक पुस्तक 'द जीनियस ऑफ डॉग्स: हाऊ डॉग्स आर स्मार्टर दैन यू थिंक' के लिए भी जाना जाता है जिसमें उनकी दलील है कि कुत्ते का मित्रवत व्यवहार एक प्रकार की बुद्धिमता है। ये सारी बातें भारत में भी प्रासंगिक हैं जहां नफरत फैलाने वाले भाषण फल-फूल रहे हैं, जहां किसी भी समुदाय को चुनकर, किसी खास तरह का भोजन करने वाले या जो असहमत हों या कमजोर हों उनके खिलाफ सड़क पर या कानूनी हिंसा शुरू की जा सकती है। यह इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि सहकारी व्यवहार का स्वाभाविक तौर पर एक स्याह पक्ष होता है: लोग किसी समूह के साथ मिलकर अलग-थलग किए गए व्यक्ति पर हमला कर सकते हैं। परंतु ऐसी हिंसा की अक्सर एक अनुमानित कीमत होती है, खासतौर पर अगर संस्थागत या नैतिक पतन संबद्ध हो तो इससे एक व्यापक सामाजिक निष्क्रियता पैदा होती है। उदाहरण के लिए अमेरिका न तो स्वस्थ है और न ही वह एक सुरक्षित समाज है क्योंकि वहां आबादी की तुलना में सर्वाधिक तादाद में लोग जेल में बंद हैं जिनमें उनकी तादाद बहुत अधिक है जो श्वेत नहीं हैं। कई बार जो हिंसा एक दिशा में केंद्रित रखने की मंशा होती है वह अनचाही दिशाओं में फैल सकती है। मनमोहन सिंह ने माओवादी (मूलत: आदिवासी) विद्रोह को देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा बताया था। कश्मीर के अब्दुल्लाओं को आशा नहीं थी कि उन्हें उस कड़े कानून के तहत बंदी बनाया जाएगा जो उन्होंने ही बनाया था। कांग्रेस ने भी जब गैर कानूनी गतिविधियां (निरोधक) अधिनियम, बनाया था तो उसने आशा नहीं की होगी कि अवैधानिक गतिविधियों की परिभाषा के विस्तार के साथ ही उन अधिकारियों की श्रेणियां भी विस्तृत हो जाएंगी जो इस कानून के तहत कदम उठा सकेंगे। एक खुले विचारों वाला समाज अपने सभी निवासियों के प्रति जितना मित्रवत होता है और लोगों के बीच दूरियां जितनी कम होती हैं सहयोगी संगतता के परिणाम उतने ही बेहतर होते हैं। यदि अलग-थलग करने वाले आचरण, लिंचिंग आदि की ओर झुकाव रखने वाले समूहों की मौजूदगी बढ़ती है तो सबसे फिट के बजाय सबसे मित्रवत लोगों का बचाव सुनिश्चित करने के लिए संस्थागत स्तर पर अधिक मेहनत करनी होगी।
