पके बालों और झुके कंधे वाले पढ़ेलिखे नजर आ रहे प्रोफेसर ने ब्लैकबोर्ड पर एक चित्र बनाया। इसके बाद वह पीछे मुड़े और उन्होंने कक्षा के छात्रों पर एक नजर डाली। छात्रों में से ज्यादातर और खासकर उनसे कुछ फुट की दूरी पर शुरुआती कतार में बैठा हुआ मैं उन्हें पहेली भरी नजर से देख रहे थे। अपने चेहरे पर संतुष्टि की मुस्कान लाते हुए उन्होंने कहा, 'यह संगठनात्मक ढांचे का चार्ट है, जो प्रबंधन के अध्ययन का केंद्रीय विचार है।' धीरे-धीरे मुझ पर रहस्योद्घाटन की शुरुआत हुई। मेरे अनुमान के मुताबिक वह यह कह रहे थे कि संगठन में लोग गैलरियों में उसी तरह बैठते हैं जिस तरह मैं अक्सर फुटबॉल स्टेडियम में उन्हें बैठे देखता हूं। यानी जो जितना अधिक पैसा चुकाता था वह उतनी ही ऊंची जगह पर बैठता था। मैंने स्कूल और स्नातक की पढ़ाई के दौरान वर्षों तक फुटबॉल खेला था और मैं अपने अनुभव से इस बात को समझ सकता था। प्रबंधक गैलरियों में बैठते हैं और हम जैसे लोग फुटबॉल खिलाडिय़ों की तरह होते हैं जो असल में खेल खेलते हैं। जब हम खिलाड़ी अच्छा काम करते तो ये प्रबंधक ताली बजाते हैं और हमारा उत्साह बढ़ाते जबकि हमसे गलती होने पर ये मजाक उड़ाते और हमारा उपहास करते। अब यह बात मेरी समझ में आने लगी थी। इससे तकरीबन एक सप्ताह पहले मैं हावड़ा स्टेशन पर उतरकर ट्राम और बस से उत्तर कलकत्ता पहुंचा था जहां उस समय आईआईएम कलकत्ता स्थित था। मैं वहां पहले वर्ष में दाखिला लेने पहुंचा था। तमाम मध्यवर्गीय भारतीय परिवारों के बच्चों की तरह मुझे भी कामकाजी दुनिया के बारे में हल्का फुल्का अनुमान ही था। मेरे परिवार में चिकित्सक थे, अधिवक्ता था और इंजीनियर भी थे जिन्हें मैं हर सुबह काम पर जाते देखता था। मेरे पिता चिकित्सक थे और वह पश्चिमी शैली की पैंट और कमीज पहनकर जाते थे। अन्य मध्यवर्गीय भारतीय बच्चों की तरह मुझे भी बिल्कुल पता नहीं था कि 'कारोबारी संगठनों' में काम करने वाले लोग करते क्या हैं। 'कारोबार' शब्द सुनकर मेरे मन में स्थानीय दुकानों की छवि बनती थी जहां खाने का सामान और चॉकलेट आदि बिकते थे और जिनमें 'कारोबारी' काउंटर पर बैठते, आपसे पैसे लेते और दुकान में आई नई चीज के बारे में बताते। संगठन चार्ट तथा ऐसे ही अन्य शब्द मुझे तब समझ में आने शुरू हुए जब मुझे आईटीसी के कलकत्ता कारखाने में 'इंटर्नशिप' के लिए चुना गया। मेरे दो सहपाठियों के साथ मेरा चयन इसलिए किया गया था क्योंकि हम परिचालन शोध और उत्पादन से जुड़े गहन गणितीय सवालों को हल कर सकते थे। कल्पना कीजिए कि जब मैं कारखाने पहुंचा तो मैं कितना आश्चर्यचकित हुआ। उसका किसी फुटबॉल स्टेडियम से दूर-दूर तक कोई लेनादेना नहीं था। वहां कई बड़े हॉल थे जहां कामगार मशीनों की देखरेख कर रहे थे। 'प्रबंधकों' और हम जैसे 'प्रशिक्षुओं' को दूर स्थित कांच से घिरी जगहों पर बिठा दिया गया था। जाहिर है वहां भी कोई गैलरी नहीं थी। हम सभी एक कमरे में मेज के इर्दगिर्द बैठते जबकि वरिष्ठ प्रबंधकों के पास अपने छोटे कमरे होते। अचानक मेरे सामने यह रहस्योद्घाटन हुआ कि प्रबंधन फुटबॉल स्टेडियम जैसी गैलरियों में नहीं बैठते और श्रमिकों के काम करने न करने पर वे ताली बजाने या उन्हें अपमानित करने का काम नहीं करते। वे अपनी मेज पर बैठकर काम करते हैं और साथी प्रबंधकों से चर्चा करते हैं। मुझे अहसास हुआ कि किसी भी संगठन को लेकर बनाए गए चार्ट में विभिन्न परतें कुछ और नहीं बल्कि यह दिखाने का प्रतीकात्मक तरीका भर हैं कि कौन किसकी निगरानी करता है और किस क्रम में करता है। अगले 45 दिनों में मुझे अपने 19 वर्ष के तब तक के जीवन से ज्यादा चीजें 'सीखने' को मिलीं। मैंने यह सीखा कि मेरे दिमाग में चलने वाले जटिल गणितीय उत्पादन योजना समीकरण एक बात हैं जबकि डेटा को संग्रहीत करना दूसरी बात। जटिल समीकरण को हल करना अलग बात थी जबकि अपने आसपास मौजूद लोगों को यह समझाना एकदम अलग बात थी कि मैंने जो किया है, सही किया है। प्रिय पाठकों निश्चित रूप से मैं 1969 की बात कर रहा हूं यानी आज से आधी सदी पहले की। मैं मलाबार के एक छोटे से कस्बे से कलकत्ता आया था। 19 वर्ष के युवा जो आईआईएम तथा विभिन्न कॉलेजों तथा विश्वविद्यालयों में जाते हैं वे दुनिया को लेकर मुझ जैसे आजादी के कुछ बाद वाली पीढ़ी के युवाओं की तुलना में अधिक जानकार होते हैं। लेकिन बाद के काम के वर्षों में और फिर जब मैं उद्यमी और नियोक्ता बन गया और विभिन्न उद्योगों और देशों में कामकाज के पर्यवेक्षण से मुझे यकीन हो गया कि इंटर्नशिप के कुछ सप्ताह किसी युवा की नई जानकारियों को ग्रहण करने तथा बड़ों की दुनिया में प्रभावी ढंग से काम करने में काफी मदद करते हैं। तब से आईआईएम, आईआईटी तथा हमारे शीर्ष पेशेवर विद्यालयों में से कुछ ने इंटर्नशिप को अपने पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा बना लिया है लेकिन देश के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में से अधिकांश में यह सुविधा नहीं है। मेरे सामने गत वर्ष एक अवसर आया जब मुझसे कहा गया कि मैं राष्ट्रीय शिक्षा नीति समिति 2020 की रोजगार और उद्यमिता उप समिति की अध्यक्षता करूं। मैंने अपनी पूरी ऊर्जा लगाकर समिति के अन्य सदस्यों को यह समझाया कि इंटर्नशिप को शिक्षा का अंग बनाना हमारे देश के युवाओं के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। यही कारण है कि मैं जब मैंने इस विषय में आधिकारिक अधिसूचना देखी तो मैं रोमांचित हो उठा। अधिसूचना में उच्च शिक्षा संस्थानों के लिए दिशानिर्देश तय किए गए हैं ताकि वे इंटर्नशिप वाले डिग्री कार्यक्रम शुरू कर सकें। इसमें कहा गया है, 'डिग्री कार्यक्रमों में कम से कम 20 फीसदी में इंटर्नशिप/अप्रेंटिसशिप की व्यवस्था होनी चाहिए...ऐसी इंटर्नशिप/अप्रेंटिसशिप या तो निरंतर हो या संबंधित पाठ्यक्रम की जरूरत और व्यवहार्यता के मुताबिक नियमित अंतराल पर हो।' यकीनन इस जन नीति संबंधी पहल की घोषणा के बाद असली चुनौती क्रियान्वयन के मोर्चे पर सामने आएगी। आईआईएम और आईआईटी जैसे संस्थानों तथा चिकित्सा, विधि एवं अन्य क्षेत्रों के शीर्ष शैक्षणिक संस्थानों में उच्च गुणवत्ता वाली और सवैतनिक इंटर्नशिप हासिल करना आसान है लेकिन देश भर के 40,000 महाविद्यालयों के लिए ऐसी इंटर्नशिप कैसे सुनिश्चित की जाएंगी? असली काम की शुरुआत तो यहीं होगी। (लेखक इंटरनेट उद्यमी हैं)
