यह संभव है कि अधिकांश लोकतांत्रिक देशों में तार्किक विश्लेषण के बाद 'मादक पदार्थों के विरुद्ध जंग' शांत हो गई हो लेकिन ईरान से लेकर चीन जैसे तानाशाही शासन और सिंगापुर और मलेशिया जैसे निर्वाचित अधिनायकवादी शासन में यह जारी है। भारत इस सूची में अजनबी जैसा है। आर्यन खान तथा उस जैसे अन्य लोगों के खिलाफ मामला यह बात रेखांकित करता है। इससे पहले रिया चक्रवर्ती तथा अन्य के साथ ऐसा होता देख चुके हैं। मैं किसी को दोषी या दोषमुक्त नहीं ठहरा रहा हूं। अदालत में विचाराधीन किसी मामले में मैं ऐसा नहीं कर सकता, खासकर उन मामलों में जो पुराने पड़ चुके ऐसे कानून के तहत आते हैं जिनमें न्यायाधीशों के पास भी आरोपित को दोषी मानने के सिवा विकल्प नहीं। यह उन कानूनों में से एक है जहां 'दोषी पाये जाने तक निर्दोष' मानने का सिद्धांत उलट जाता है और मासूम पाये जाने तक आरोपित दोषी माना जाता है। यही कारण है कि जमानत मिलना तब तक लगभग असंभव होता है जब तक कि बकौल पूर्व अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी, न्यायाधीश इतना साहसी हो कि वह तथ्यों को कानून से ऊपर रखे। देश के परीक्षण न्यायालयों में कुछ ऐसे न्यायाधीश तलाश कीजिए तो मैं सर्वोच्च न्यायालय का ऐसा पीठ तैयार कर सकता हूं जो बेनामी चुनावी बॉन्ड मामले की सुनवाई कर सके। सन 1985 में बना नारकोटिक ड्रग्स ऐंड साइकोट्रॉपिक सब्सटेंस (एनडीपीएस) ऐक्ट अपने आप में अत्यंत विशिष्ट, पुरातन, अव्यावहारिक, निष्प्रभावी, विस्फोटक और ऐसा कानून है जिसका दुरुपयोग किया जा सकता है। बीते चार दशक में इसे कई बार शिथिल किए जाने के बावजूद यह नागरिकों के लिए आफत और सुर्खियां बटोरने की चाह रखने वाले पुलिसकर्मियों के लिए वरदान है। वहीं अधिवक्ताओं के लिए यह एक लॉटरी जबकि न्यायाधीशों के लिए मुसीबत है। अब तक हम जान चुके हैं कि नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो (एनसीबी) को आर्यन के पास कोई मादक पदार्थ नहीं मिला है। रिया चक्रवर्ती के पास भी नहीं मिला था। परंतु व्हाट्सऐप चैट कथित रूप से यह बताती हैं अतीत में मादक पदार्थ लिए गए थे या भविष्य में खरीदने और उपयोग की इच्छा थी। उनके साथ वाले व्यक्ति के पास मादक द्रव्य थे यानी उसने जानबूझकर अपने पास रखे थे। आप सोच सकते हैं कि आपराधिक मामले में दूसरे के बदले जवाबदेही कैसे तय हो सकती है? यह कोई सामान्य कानून नहीं है। जमानत की पूर्व शर्त और प्रमाणों की जरूरत के मामले में यह यूएपीए से भी खराब कानून है शायद उसके पुराने स्वरूप टाडा जैसा। हम यहां कैसे पहुंचे? इसके लिए शायद बीटल्स को दोष देना चाहिए, खासकर जॉन लेनन को। सन 1960 के दशक में जो हिप्पीवाद और नशाखोरी वियतनाम युद्ध के कारण पश्चिमी युवाओं की विरक्ति का जरिया बन गए थे, बीटल्स उसके प्रतिनिधि थे। सच यह है कि सन 1950 के मध्य से 1970 तक मादक पदार्थों को मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा माना जाता था। सन 1961 में पेरिस में विभिन्न देशों ने इसे लेकर बैठक की और 13 जुलाई को यह सहमति बनी कि सभी शामिल देश 25 वर्ष में यह खतरा समाप्त करने के लिए कानून बनाएंगे। इस तरह 1985 में भारत में एनडीपीएस ऐक्ट बना। उस समय तक अमेरिका में रिपब्लिकन सत्ता में आ गए थे। रिचर्ड निक्सन के लिए वियतनाम युद्ध और युद्ध विरोधी प्रदर्शन के समय मादक पदार्थों से जंग जिहाद की तरह थी। रोनाल्ड रीगन ने इसे आगे बढ़ाया। नए भारतीय प्रधानमंत्री राजीव गांधी भी तब उनकी और अमेरिका की ओर हाथ बढ़ा रहे थे। उस दौर में ही हमने ऐसा कानून देखा जो न केवल खुद को निर्दोष साबित करने का बोझ आरोपित पर डालता है बल्कि ज्यादा मात्रा में मादक द्रव्य रखने पर मौत की सजा को अनिवार्य बनाता है (ईरान और सिंगापुर में यह लागू है)। ऐसे में न्यायाधीश के पास क्या विकल्प बचता है। देश में न्याय और कानून से जुड़े लोग जानते हैं कि एक भारी भूल हो चुकी थी लेकिन इस पर सवाल कौन उठाता? हर कुछ वर्ष पर संशोधन होते रहे। पहला संशोधन 1988 में हुआ जब मादक पदार्थ के व्यक्तिगत प्रयोग की सजा घटाकर एक-दो वर्ष की गई। लेकिन एक दिक्कत आई। रीगन के दबाव में हमने इन कानूनों को गैर जमानती बना दिया, संपत्ति हरण का प्रावधान जोड़ा और अनिवार्य मृत्युदंड को शामिल किया। केवल दो साहसी सांसदों ने इसका विरोध किया कांग्रेस की जयंती पटनायक और जनता दल के कमल मोरारका। सन 1994 में पी वी नरसिंह राव की सरकार के समय एक समिति बनाई गई जिसे यह देखना था कि यह कानून यदाकदा इस्तेमाल करने वालों, झोपड़पट्टी वालों और छोटे विक्रेताओं के प्रति किस तरह कठोर है। आगे चलकर कानून को और नरम बनाया गया। एक दशक बाद बंबई उच्च न्यायालय ने मौत की सजा की अनिवार्यता समाप्त की। 2014 में संप्रग 2 की सरकार ने मौत की सजा समाप्त कर दी। परंतु धारा 37 और 54 जैसे कई प्रावधान बचे रहे जिनके आधार पर केवल व्हाट्सऐप चैट के आधार पर संदेहियों को पकड़ा जा रहा है। या फिर धारा 67 जो एक अधिकारी को किसी को भी तलब करने का अधिकार देती है। लोगों को गवाह के रूप में बुलाकर उनसे कुछ भी पूछने का अधिकार देती है। यहां तक कि वे उनसे नशा करने या बांटने को लेकर भी सवाल कर सकते हैं? यह गेस्टापो शैली की पूछताछ है। कल्पना कीजिए कि यह आपके या आपके बच्चे के साथ हो रहा है। इसी अधिकार के चलते उन्होंने दीपिका पडुकोणे, रकुल प्रीत सिंह और कई अन्य लोगों को बुलाया और हमारे टेलीविजन चैनलों को कई दिनों तक उनकी खूबसूरत तस्वीरें प्रसारित करने का मौका दिया। इसकी ताजा शिकार अनन्या पांडेय हैं। ऐसे कानूनों का दुरुपयोग ही होता है इनसे कोई लाभ नहीं। उदाहरण के लिए थिंक टैंक विधि लीगल की नेहा सिंघल और नवीद अहमद की एक रिपोर्ट में 2018 में बताया गया कि देश में एनडीपीएस अधिनियम के तहत 81,778 लोग आरोपित हुए जिनमें से 99.9 फीसदी मामले व्यक्तिगत इस्तेमाल के थे। वहीं 2019 में केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण मंत्रालय की भारत में मादक पदार्थों के दुरुपयोग से जुड़ी एक रिपोर्ट में कहा गया कि इस समय देश में भांग इस्तेमाल करने वाले तीन करोड़ लोग हैं। इन सभी लोगों को बंद करने के लिए कितनी जेल चाहिए? इसके अलावा 60 लाख लोग अफीम बनने वाले विभिन्न मादक पदार्थों के लती थे और केवल 8.5 लाख लोग अन्य कड़े नशे करते थे। उड़ता पंजाब फिल्म देखकर आपने सोचा होगा कि इसके बीस गुना लोग तो केवल वहीं कोकीन और हेरोइन लेते होंगे। कहानियों को बल देने के लिए किसी राज्य को बदनाम कर देना एकदम अलग बात है। लेकिन ऐसी लोककथाएं बुरे कानूनों को जन्म देती हैं। दिल्ली के राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के मुताबिक 2000 और 2015 के बीच 15 वर्षों में निचली अदालतों ने केवल पांच लोगों को मौत की सजा दी। इनमें से चार को अपील के बाद आजीवन कारावास में तब्दील कर दिया गया जबकि एक को बरी कर दिया गया। यह कानून ऐसे लोगों के हाथ में है जो इसका दुरुपयोग करने के आदी हैं। टेलीविजन स्क्रीन पर इसके दुरुपयोग की कहानी ही चल रही है। यहां मसला किसी के बेकसूर या कुसूरवार होने का नहीं है। यह सस्ते रोमांच का वक्त नहीं है। याद रखिए कल हम या हमारे बच्चे भी हो सकते हैं।
