एयर इंडिया ने लांघ ली निजीकरण की 19 साल पुरानी बाधा | ज्योति मुकुल / October 08, 2021 | | | | |
टाटा समूह के हाथों में एयर इंडिया की कमान देने के नरेंद्र मोदी सरकार के फैसले के साथ ही सरकारी स्वामित्व वाली कंपनियों के निजीकरण की कवायद 19 साल के गतिरोध के बाद फिर से परवान चढ़ी है। सरकार ने वर्ष 2017 में रणनीतिक बिक्री के लिए 20 सार्वजनिक इकाइयों की सूची तैयार की थी लेकिन निवेशकों में इनकी खरीद को लेकर कोई खास उत्साह नहीं देखा गया। एयर इंडिया के पहले अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में कई सार्वजनिक कंपनी निजी हाथों में दी गई थी। उसके बाद की सरकारों के समय निजीकरण की कोशिशें विवादों का सबब बनीं।
एयर इंडिया को बेचने की कोशिश वर्ष 2017 से ही शुरू हो गई थी। नवंबर 2020 में भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल), भारतीय कंटेनर निगम (सीसीआई) और भारतीय जहाजरानी निगम (एससीआई) को भी निजीकरण योजनाओं में जोड़ दिया गया। फरवरी 2021 में अधिसूचित नई नीति में कहा गया कि सरकार चार अधिसूचित क्षेत्रों में अपने स्वामित्व को बेहद कम स्तर पर रखेगी। इन क्षेत्रों की सरकारी कंपनियों के निजीकरण एवं विलय के अलावा दूसरी सार्वजनिक कंपनियों की अनुषंगी बनाने या फिर बंद कर देने का तरीका अपनाया जाएगा। इसके साथ ही पेट्रोलियम, विमानन, रेलवे एवं जहाजरानी के रणनीतिक क्षेत्र भी सरकार के निजीकरण कार्यक्रम का हिस्सा बन गए।
मोदी सरकार ने अभी तक सार्वजनिक कंपनियों को निजी प्रवर्तकों को बेचने के बजाय अपने ही स्वामित्व वाली दूसरी कंपनियों को बेचने का कम जोखिम भरा तरीका अपनाया हुआ है। मसलन, ओएनजीसी ने जनवरी 2018 में हिंदुस्तान पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन में 51.1 फीसदी हिस्सेदारी खरीदी थी। इसी तरह पावर फाइनैंस कॉर्पोरेशन ने मार्च 2019 में रूरल इलेक्ट्रिफिकेशन कॉर्पोरेशन को खरीदा था जबकि एनटीपीसी ने मार्च 2020 में नीपको और टीएचडीसी को खरीद लिया।
वाजपेयी सरकार उस समय विवादों में घिर गई थी जब वर्ष 2001 में बाल्को और 2002 में हिंदुस्तान जिंक का विनिवेश किया। उसके बाद मनमोहन सिंह के 10 वर्षों के कार्यकाल और मोदी सरकार के भी पहले कार्यकाल में सरकार ने इन दोनों कंपनियों में अपनी बची हुई हिस्सेदारी को बनाए रखा जबकि अनुबंधों में इनका विनिवेश करने का प्रावधान शामिल था। वाजपेयी सरकार ने रणनीतिक बिक्री के माध्यम से नौ सार्वजनिक कंपनियों में बहुलांश हिस्सेदारी बेच दी थी। रणनीतिक बिक्री के तहत इन कंपनियों के बहुलांश शेयरों के साथ ही प्रबंधकीय नियंत्रण भी रणनीतिक साझेदारों को सौंप दिए गए। आईबीपी को छोड़कर बाकी सभी सार्वजनिक कंपनियों का निजीकरण कर दिया गया। आईबीपी को सार्वजनिक क्षेत्र की ही इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन ने खरीदा था। इसके अलावा सरकार ने दो छोटी कंपनियों- लगान जूट विनिर्माण कंपनी और जेसप ऐंड कंपनी लिमिटेड में भी अपनी हिस्सेदारी बेच दी थी। इसके अलावा आईटीडीसी की 19 संपत्तियां एवं भारतीय होटल निगम के तीन होटल भी निजी हाथों में दिए गए। सार्वजनिक इकाइयों के निजीकरण ने कई तरह के राजनीतिक एवं कानूनी विवादों को जन्म दिया। इस वजह से मई 2004 में सत्ता में आने के बाद संप्रग सरकार ने इस संदर्भ में सजग रवैया अपना लिया। संप्रग के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में लाभ में चल रही कंपनियों का निजीकरण करने की जगह उन्हें पूर्ण प्रबंधकीय नियंत्रण एवं वाणिज्यिक स्वायत्तता देने की नीति अपनाई गई। सरकारी हिस्सेदारी का कुछ हिस्सा आईपीओ और अनुवर्ती पेशकशों के जरिये बेचा जाना था लेकिन उस इकाई के चरित्र को बरकरार रखना और सरकारी हिस्सेदारी को 51 फीसदी बनाए रखना जरूरी था।
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