यदि आप हुंडई को छोड़ दें, जो कि फोर्ड और जनरल मोटर्स से बड़ी कार विविनिर्माता (मूल्य नहीं बल्कि संख्या के मामले में) बन चुकी है तो वैश्विक बाजारों की शीर्ष चार कार विविनिर्माता कंपनियों की भारतीय निजी वाहन बाजार में हिस्सेदारी बमुश्किल 6 फीसदी रह गई है। इनमें से जनरल मोटर्स (जीएम) ने चार वर्ष पहले भारतीय बाजार से दूरी बना ली थी। अब फोर्ड ने बाजार से बाहर निकलने की घोषणा कर दी है और इससे शायद ही कोई फर्क पड़े क्योंकि उसकी बाजार हिस्सेदारी 2 फीसदी से भी कम है। दुनिया की शीर्ष वाहन विनिर्माता कंपनी फोक्सवैगन और उसकी अनुषंगी स्कोडा की हिस्सेदारी भी मिलकर बमुश्किल एक फीसदी है। चार बड़ी कंपनियों में टोयोटा सबसे सफल रही है लेकिन उसकी बाजार हिस्सेदारी भी बमुश्किल 3 फीसदी है। लेकिन याद रखें कि टोयोटा ने भी उच्च करों की शिकायत करते हुए गत वर्ष भारत में निवेश स्थगित करने की घोषणा की थी लेकिन तुरंत बाद वह इस बात से पीछे हट गई थी। चाहे जो भी हो कंपनी ने इटियॉस और कोरोला ऑल्टिस का उत्पादन बंद कर दिया है। होंडा ने भी सिविक और एकॉर्ड का उत्पादन रोक दिया है। भारत दुनिया की बड़ी वाहन विनिर्माता कंपनियों की कब्रगाह क्यों बन रहा है? एक उत्तर तो यह है कि भारतीय कार बाजार अब पहले जैसा नहीं रहा। इसकी वैश्विक रैंकिंग (मूल्य नहीं संख्या पर आधारित) चौथे से तीसरे पर जाने का अनुमान था लेकिन वह पांचवें स्थान पर फिसल गया। इस वर्ष आए सुधार के पहले लगातार दो वर्ष तक कारोबार में कमी आने के कारण जर्मनी ने उसे पीछे छोड़ दिया। यह देश के उपभोक्ता बाजार में आई गतिहीनता की कहानी का एक हिस्सा भर है।उपरोक्त प्रश्न का दूसरा उत्तर है कीमतें। भारतीय बाजार कम कीमत वाली और कम परिचालन लागत वाली कारों का बाजार है। वैश्विक कंपनियों के पास ऐसे मॉडल नहीं हैं जो इस खाके में आते हों क्योंकि दुनिया के ज्यादातर देशों में बड़ी कारों का बाजार है। केवल मारुति और हुंडई (जिनके बीच दो-तिहाई बाजार हिस्सेदारी बंटी है) के पास सफल सस्ती कारें हैं। जीएम ने भारतीय बाजार से कारोबार समेटने से पहले वे छोटी कारें जरूर लॉन्च कीं जो दक्षिण कोरिया और चीन में उसके साझेदारों के पास थीं। वे शेवरले की छवि के साथ सही नहीं बैठ रही थीं। न तो फोर्ड और न ही टोयोटा और न ही फोक्सवैगन अथवा होंडा के पास ऐसी कोई कार है जो मारुति की सबसे ज्यादा बिकने वाली कार ऑल्टो से प्रतिस्पर्धा कर सके। तीन लाख रुपये मूल्य वाली ऑल्टो सस्ती कारों के बाजार पर लंबे समय से राज कर रही है। अधिकांश वैश्विक कार कंपनियों को पता ही नहीं है कि इतनी सस्ती कार कैसे बनाई जाती है। बाजार बदल रहा है। उपभोक्ताओं की समृद्धि बढऩे के साथ ही वे 800 सीसी की बुनियादी कार से बेहतर कार की आकांक्षा करने लगे हैं। प्रमुख हैचबैक कारें अब पहले से बड़ी और विशेषताओं से लैस हैं। मसलन हुंडई की आई20, सुजूकी की स्विफ्ट और बलेनो तथा टाटा मोटर्स की दो कारें (टियागो और अल्ट्रोज) जिन्होंने कंपनी के कार निर्माण को नई विश्वसनीयता प्रदान की है। ये हैचबैक कारें 6 लाख से 10 लाख रुपये मूल्य की हैं। वैश्विक कंपनियां यहां प्रतिस्पर्धा कर सकती थीं लेकिन वे पहले ही थक चुकी थीं और हार मानने को तैयार थीं। इस बीच हुंडई समूह की कंपनी किया मोटर्स मिनी एसयूवी मॉडल के साथ भारतीय बाजार में उतरी और अब वह टाटा और महिंद्रा के साथ बाजार में तीसरी (मारुति और हुंडई के बाद) सबसे बड़ी कंपनी बनने के लिए संघर्ष कर रही है। कार बाजार की एक अन्य विशेषता यह है कि निर्यात की सफलता घरेलू बुनियाद पर तैयार करनी होगी। फोर्ड ने गुजरात में अपना दूसरा बड़ा कार संयंत्र (तमिलनाडु के बाद) लगाया क्योंकि वह मुक्तव्यापार समझौते के बाद यूरोपीय बाजार के भारतीय कारों के लिए खुलने की प्रतीक्षा कर रहा था। मुक्तव्यापार समझौता नहीं हुआ। चूंकि कंपनी के पास भारत में सिर्फ एक कामयाब मॉडल था इसलिए वह अपनी तीन चौथाई उत्पादन क्षमता का इस्तेमाल ही नहीं कर रही थी। ऐसे में उसका बाहर निकलना अनिवार्य था। भारतीय कार बाजार में कोई भी मारुति के शुरुआती स्वामित्व को चुनौती नहीं दे सका। फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान और दक्षिण कोरिया में भी ऐसा ही है। वहां भी शुरुआती स्थानीय कार विनिर्माता का दबदबा है। छोटी कार जैसे किसी एक क्षेत्र में दबदबा होने पर जरूरी नहीं कि अन्य क्षेत्रों में भी दबदबा हो। होंडा सिटी के खिलाफ मारुति सियाज की नाकामी इसका उदाहरण है। यह कारोबार आसान नहीं है और हर बाजार और हर क्षेत्र में सफलता अर्जित करनी होगी।
