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   लेख   उपभोक्ता हितों की सुरक्षा के लिए हों पुख्ता इंतजाम
लेख

उपभोक्ता हितों की सुरक्षा के लिए हों पुख्ता इंतजाम

adminके पी कृष्णन— September,04 2021 8:50 AM IST
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इस वर्ष अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने देश में वित्तीय बाजार विकसित करने और इसमें गहराई लाने के लिए कई उपायों की घोषणा की थी। इनमें एक एकीकृत प्रतिभूति बाजार संहिता का भी जिक्र हुआ था जो वित्तीय बाजारों पर विभिन्न कानूनों के प्रावधानों को एक सूत्र में पिरोती है। वित्त मंत्री ने एक निवेश चार्टर की भी घोषणा की। यह चार्टर सभी वित्तीय सेवाओं में निवेशकों के अधिकारों को एक संगठित रूप देगा। एक वर्ष पहले वित्तीय क्षेत्र के नियामकों द्वारा तैयार वित्तीय शिक्षा के लिए राष्टï्रीय रणनीति (2020-25) भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने जारी की थी। इस रणनीतिक दस्तावेज में उपभोक्ता सुरक्षा एवं शिक्षा पर गहराई से अध्ययन किया गया है। आरबीआई ने 17 अगस्त को वित्तीय समावेशन सूचकांक व्यवस्था शुरू की थी। इस सूचकांक की एक खास बात यह है कि इसमें वित्तीय समावेशन के गुणवत्ता पहलू से जुड़े एक मानदंड को खास तवज्जो दी गई है। इनमें गुणवत्ता मानकों में वित्तीय साक्षरता, उपभोक्ता सुरक्षा और सेवाओं में असमानता एवं त्रुटियों से जुड़े पहलू शामिल हैं। भारत में वित्तीय सेवाओं के लिए उपभोक्ता सुरक्षा का नियमन करने वाला कोई व्यापक विधेयक नहीं है। उपभोक्ता सुरक्षा अधिनियम, 2019 (सीओपीए) में निहित प्रावधान 1986 में आए अधिनियम के प्रावधानों की तुलना में बेहतर हैं। वित्तीय कानून के संदर्भ में सीओपीए के कानूनी प्रभाव के बारीक अध्ययन का लक्ष्य अब तक हासिल नहीं हो पाया है मगर इसका झुकाव मूल रूप से गैर-वित्तीय वस्तु एवं सेवाओं की तरफ है। इसके साथ-साथ उपभोक्ताओं के साथ होने वाले व्यवहार को लेकर भी कुछ चिंताएं हैं। एक प्रतिष्ठिïत वित्तीय समाचार पत्र ने दिसंबर 2019 में 'हाऊ इंडियन रेग्युलेटर्स हैव कॉस्ट यू मनी' नाम से चार भागों में एक आलेख प्रकाशित किया था। इन आलेखों में कहा गया था कि लचर नियमों, बेजा इस्तेमाल, धोखाधड़ी, वित्तीय योजनाओं की अनुचित बिक्री एवं वित्तीय क्षेत्र के त्रुटिपूर्ण संचालन का खमियाजा भारतीय निवेशक को भुगतना पड़ता है। इस रिपोर्ट के पहले आलेख के शीर्षक में कहा गया कि वित्तीय नियामकों के नाक के नीचे से लोगों की बचत को चपत लग गई। जमीनी स्तर से मिलने वाली ऐसी प्रक्रियाएं पूरे कामकाज की पोल खोल देती हैं। इन समस्याओं की मूल वजह क्या है? वर्तमान वित्तीय कानून में उपभोक्ताओं की सुरक्षा के लिए एक पुख्ता कानूनी ढांचा तैयार नहीं किया गया है। नियमन के लिए अलग-अलग क्षेत्र के लिए गठित नियामक अपने संबंधित उद्योगों से जुड़े पहलुओं पर ही ध्यान देते हैं। मौजूदा नियामकों की कार्य प्रणाली में कई तरह की त्रुटियां हैं और इनका प्रतिकूल असर उपभोक्ताओं के हितों पर भी पड़ता है। निजता से जुड़ी समस्याओं आदि पर ढांचा पूरी तरह नदारद है। उपभोक्ताओं के अनुकूल शिकायत निवारण व्यवस्था भी गायब है। वित्तीय नियंत्रण एवं कर्ज प्रबंधन की वर्तमान प्रणाली विकास योजनाओं के लिए कर्ज जिस तरह उपलब्ध कराती है वह भारत में औपचारिक वित्त के उपयोगकर्ताओं के हित में नहीं है। वर्ष 2010 भारत में वित्तीय आर्थिक नीति में एक निर्णायक क्षण रहा है। दो-तीन वर्ष पहले बीमा कंपनियों द्वारा यूलिप की अनुचित तरीके से बिक्री का मामला उठा था। तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणाव मुखर्जी ने इस विवाद में बाजार नियामक सेबी के बजाय बीमा नियामक आईआरडीए का पक्ष लिया। मगर मुखर्जी सतर्क थे और पूरी स्थिति पर नजर रखने के साथ ही वह चारों तरफ से आ रही प्रतिक्रियाओं को भी गंभीरता से ले रहे थे। उन्होंने माना कि भारतीय वित्त खंड में कुछ मूल खामियां हैं जिनसे बीमा कंपनियां द्वारा यूलिप की अनुचित बिक्री की नौबत आई है। केवल नियामक (आईआरडीए) खड़ा करने या सार्वजनिक क्षेत्र की भारतीय जीवन बीमा निगम (एलआईसी) की मौजूदगी से ही समस्या दूर होती नहीं दिख रही थी। इससे भारत में अक्सर दिए जाने वाले मानक सरल समाधानों पर विराम लग गया, मसलन निजी क्षेत्र पर भरोसा नहीं करने की मानसिकता (एलआईसी भी यूलिप की मिस-सेलिंग में शामिल थी) और एक नियामक की अदद जरूरत (आईआरडीए यूलिप की मिस-सेलिंग का पूरा समर्थन कर रही थी) जैसी अवधारणा के लिए जगह नहीं रह गई। जब उपभोक्ताओं से अनुचित तरीके से संसाधन लिए गए तो तब यह बात नहीं उठी कि इससे कानून का उल्लंघन हुआ था। जब ऐसी अनियमितताएं पूरी तरह सामने आ गईं तो प्रणव मुखर्जी को लगा कि उपभोक्ताओं के हितों का ध्यान रखने वाले मौजूदा कानून मूल रूप से सशक्त नहीं हैं। इसे देखते हुए उन्होंने 2010 के बजट में वित्तीय क्षेत्र विधायी सुधार आयोग (एफएसएलआरसी) की घोषणा की। एफएसएलआरसी ने 'भारतीय वित्तीय संहिता संस्करण 1.1' तैयार किया। इसमें रोकथाम एवं निदान के जरिये उपभोक्ता सुरक्षा की रणनीति है। रोकथाम के तहत वित्तीय नियामकीय ढांचे एवं नियामकों की कार्य प्रणाली से जुड़ी समस्याएं दूर करने और नियामकों को उपभोक्ता सुरक्षा को परिभाषित करने वाले स्पष्टï सिद्धांतों के क्रियान्वयन के लिए प्रेरित करने से जुड़े प्रावधान हैं। मोटे तौर पर इससे उपभोक्ता सुरक्षा के कई पहलुओं की दिक्कतें दूर हो सकती हैं। इन सब के अलावा ऐसी परिस्थितियां हमेशा ऐसी होंगी जब कुछ लेनदेन गलत हो जाने से उपभोक्ता दुखी होंगे। इसके लिए एफएसएलआरसी ने एकीकृत एवं स्वतंत्र वित्तीय शिकायत निवारण एजेंसी (एफआरए) का प्रस्ताव दिया है। यह एक ऐसा मंच होगा जहां सभी वित्तीय उपभोक्ताओं की शिकायतों का निवारण किया जाएगा। इससे शिकायत निवारण के लिए प्रचलित विभिन्न मंचों-विभिन्न क्षेत्रों के लिए लोकपाल, उपभोक्ता विवाद निवारण मंचों, दीवानी न्यायालयों आदि की जरूरत नहीं रह जाएगी और लागत भी कम हो जाएगी। एफएसएलआरसी का कार्य 2015 में समाप्त हो गया। जब हम भारतीय वित्त जगत में उपभोक्ताओं के साथ होने वाली विभिन्न प्रकार की ज्यादती पर विचार करते हैं और इन समस्याओं की जड़ के कारणों का विश्लेषण करते हैं तो हमें एहसास होता है कि एफएसएलआरसी द्वारा प्रस्तावित संस्थागत सुधारों से बेहतर लाभ मिले होते। हालांकि इसके साथ ही हमें उपभोक्ताओं की सुरक्षा में आर्थिक वृद्धि एवं निजी क्षेत्र की खूबियों की भूमिका का भी ध्यान रखना होगा। अक्सर ऐसा कहा जाता है कि सक्षम बाजार छोटे निवेशकों के हितों की सुरक्षा करता है। अक्सर समाधान कम देने वाले मगर हस्तक्षेप अधिक करने वाले नियामकों के बजाय एक गहरा एवं लेनदेन के लिहाज से सक्षम बाजार साधारण उपभोक्ताओं को कहीं अधिक सुरक्षा प्रदान करता है। उपभोक्ताओं के लिए सर्वाधिक सुरक्षा के स्रोत के रूप में हमें गतिशील, प्रगतिवादी और प्रतिस्पद्र्धी बाजार अर्थव्यवस्था की बुनियाद से नजरें नहीं हटानी चाहिए। उपभोक्ताओं की सुरक्षा के नाम पर भारत में अक्सर हम अधिक समाजवादी एवं केंद्रीकृत प्रणाली की तरफ कदम बढ़ाते हैं। यह एक तो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि दर में कमी लाती है और गरीबी उन्मूलन में असफल रहती है, वहीं उपभोक्ताओं के साथ होने वाली ज्यादती भी रोकने में नाकाम रहती है। उपभोक्ता सुरक्षा की दिशा में हमारा सबसे बड़ा कार्य उन सुस्त नियामकों एवं उद्योगों के प्रभाव से मुक्त होना है जो धीमी गति से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था में निश्चिंतता का अनुभव करते हैं। सुस्त चाल से बढ़ती अर्थव्यवस्था उपभोक्ताओं के हितों को दरकिनार करते हुए पहले से आसन जमाए लोगों एवं इकाइयों को को बेजा लाभ पहुंचाती है। (लेखक एनसीएईआर में प्राध्यापक और पूर्व अफसरशाह हैं।)

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