टोक्यो में आयोजित पैरालिंपिक खेलों में भारत ने पदक तालिका में अप्रत्याशित रूप से बेहतरीन प्रदर्शन किया है। अब तक के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन के चलते देश भर में उत्साह का माहौल है लेकिन इसके चलते भारतीय समाज के बारे में एक शर्मिंदा करने वाली सच्चाई अलक्षित रह गई है। वह यह कि देश में दिव्यांगों की जबरदस्त अनदेखी की जाती है। भारत सन 1988 से पैरालिंपिक में हिस्सा ले रहा है लेकिन इन खेलों या खिलाडिय़ों को मीडिया में शायद ही उल्लेखनीय जगह मिली हो। कुछ ही भारतीय इस बात से परिचित होंगे कि 2016 के रियो डी जनेरियो में आयोजित पैरालिंपिक खेलों में देश के खिलाडिय़ों ने दो स्वर्ण, एक रजत और एक कांस्य पदक हासिल किया था। इस बार टोक्यो पैरालिंपिक खेलों में विशेष क्षमता संपन्न खिलाडिय़ों ने देश के पदकों की संख्या न केवल पिछली बार से दोगुनी करके राष्ट्रीय चेतना पर दस्तक दी है। बल्कि उन्होंने हाल ही में संपन्न ओलिंपिक खेलों में प्राप्त कुल पदकों की संख्या को भी पीछे छोड़ दिया है। ऐसे में उनकी उपलब्धियों का जश्न मनाना तो बनता है। यह कहना उचित होगा कि इस सफलता के कम से कम एक हिस्से के लिए सरकार का हस्तक्षेप भी उत्तरदायी है। सन 2017 में सरकार ने 'खेलो इंडिया' योजना की शुरुआत की थी जिसमें दिव्यांगों के बीच खेलों को बढ़ावा देने के लिए विशेष प्रावधान शामिल किए गए और इस उद्देश्य के लिए तीन खेल संस्थाओं का गठन किया गया जिनमें पैरालिंपिक कमेटी ऑफ इंडिया भी शामिल है। प्रगति धीमी रही है और बुनियादी ढांचे के लिए आवंटित फंड में से केवल 60 फीसदी खर्च हुआ लेकिन कम से कम दिव्यांग खिलाडिय़ों की पहुंच और अधिक विशेष सुविधाओं और प्रशिक्षण केंद्रों तक हुई। टारगेट ओलिंपिक पोडियम या टीओपी योजना के तहत उच्च संभावना वाले पैरा-एथलीटों (कुल 27) को टोक्यो पैरालिंपिक के लिए सहायता प्रदान की गई।निजी क्षेत्र दुनिया भर में खेल कारोबार के विकास का इंजन है। उसकी ओर से यदि सक्रिय मदद मिलती तो यह सफलता और अधिक बढ़ सकती थी। यह उल्लेखनीय है कि वाहन निर्माता कंपनियों के मुख्य कार्याधिकारियों ने कहा है कि वे दो पदक विजेताओं के लिए विशेष वाहन तैयार करवाएंगे। यह सुखद है लेकिन काफी कुछ किया जाना शेष है। टोयोटा उन शुरुआती बड़ी कंपनियों में शामिल है जिन्होंने विश्व स्तर पर पैरालिंपिक साझेदार प्रायोजक के रूप में हस्ताक्षर किए हैं। भारत में अब तक केवल एक ऑनलाइन प्लेटफॉर्म ने गत वर्ष एक पैरालंपिक खिलाड़ी दीपा मलिक को अपने साथ जोड़ा है। मलिक पिछले पैरालिंपिक में पदक जीतकर ऐसा करने वाली पहली भारतीय महिला बनी थीं। इन खिलाडिय़ों की सफलता प्रेरित करने वाली है क्योंकि देश में क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों में अभिरुचि रखने वालों को पैसे, प्रायोजक और प्रशिक्षण सुविधाओं की कमी, समेत कई दिक्कतों का सामना करना पड़ता है। दिव्यांग खिलाडिय़ों को भेदभाव वाले माहौल की क्रूरता भी सहन करनी पड़ती है। सामाजिक स्तर पर असंवेदनशीलता हमारी सार्वजनिक सुविधाओं और सेवाओं मसलन होटल, रेस्तरां, मॉल, कार्यालयों, स्टेडियम और सार्वजनिक परिवहन में देखी जा सकती है। रैंप, हैंडरेल, और विशेष शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाओं का अभाव देखने को मिलता है। दिल्ली मेट्रो और निजी संचालन वाले हवाई अड्डे जरूर अपवाद हैं। ऐसा तब है जबकि करीब 2.6 करोड़ भारतीय किसी न किसी तरह की दिव्यांगता से जूझ रहे हैं। व्यवस्था उनके लिए शायद ही काम करती है। उदाहरण के लिए सन 2016 में दिव्यांग व्यक्तियों का अधिकार अधिनियम पारित किया गया था ताकि संयुक्त राष्ट्र के समझौते के मुताबिक दिव्यांगों को 4 फीसदी आरक्षण दिया जा सके। लेकिन वह भी लालफीताशाही का शिकार है। एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार देश में आधे से भी कम दिव्यांगों के पास दिव्यांगता का प्रमाण पत्र है। यह प्रमाण पत्र उन्हें सरकारी सेवाओं या रोजगार के अवसर देता है। इसके आधार पर वे भेदभाव के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकते हैं। यकीनन इन बातों पर ध्यान देने की जरूरत है।
