संसद की स्थायी समिति ने हाल ही में ऋणदाताओं की समिति (सीओसी) के लिए पेशेवर आचार संहिता निर्मित करने का जो प्रस्ताव रखा है उस पर विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि ऐसी संहिता कारोबारी ऋणशोधन निस्तारण के मामलों में उनके निर्णयों को परिभाषित करने और सीमित करने में अहम भूमिका निभा सकती है। हाल के दिनों में कई मामलों में कर्जदाताओं ने कमजोर वाणिज्यिक क्षमता दिखाई है, ऐसे में उठने वाले कई वैध सवालों को हल करने की दिशा में यह अहम हो सकता है। विभिन्न सीओसी द्वारा कुछ मनमाने निर्णयों के संदर्भ में बात करें तो यदि ऋणशोधन नियामक श्रेष्ठ व्यवहार की एक संहिता निर्मित करता है तो यह उनके लिए बेहतर होगा और उन्हें निस्तारण पेशेवरों, डेटा की गलत प्रस्तुति और ऐसे अन्य मनमाने बदलाव करने से रोका जा सकेगा। यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि अक्सर सीओसी, निस्तारण पेशेवरों को बदल देती हैं और इसके लिए संदेह या अनुमान को कारण बताया जाता है। भारतीय ऋणशोधन पेशेवर संस्थान द्वारा किए गए एक अध्ययन में जिसका हवाला द इकनॉमिक टाइम्स ने दिया था, में भी यही अनुशंसा की गई है कि सीओसी को भी उसी तरह का अनापत्ति प्रमाण पत्र प्राप्त करना चाहिए जैसा निस्तारण पेशेवरों को बदलते समय सांविधिक अंकेक्षकों को लेना होता है। संस्थान ने नियामक के समक्ष प्रस्तुत अपनी रिपोर्ट में लिखा, 'सीओसी की भूमिका एक ऐसा विश्वास भरा दायित्व है जिसमें सभी अंशधारकों से सदिच्छा और निष्पक्ष आचरण करना होता है। ऐसे में यह आवश्यक है कि सीओसी के ऐसे सदस्यों के आचरण को लेकर समुचित सुरक्षा लागू हो।' यह बात वैसी ही है जैसा कि संसद की स्थायी समिति ने कहा है। यह यकीनन आवश्यक है क्योंकि सीओसी परिसंपत्तियों के बाजार मूल्य में कटौती के मामले में बहुत उदार रही हैं। भारतीय ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड (आईबीबीआई) के आंकड़ों के मुताबिक 2017 से राष्ट्रीय कंपनी लॉ पंचाट (एनसीएलटी) के समक्ष आए 363 बड़े निस्तारण मामलों में बैंकों को परिसंपत्ति मूल्य में औसतन 80 फीसदी की कटौती स्वीकार करनी पड़ी। यही कारण है कि स्थायी समिति को इस कटौती के लिए वैश्विक मानकों के अनुरूप स्तर तय करना पड़ा।शिवा इंडस्ट्रीज और वीडियोकॉन का मामला तो एकदम विचित्र हो गया। शिवा इंडस्ट्रीज मामले में जिस एकबारगी निस्तारण का प्रस्ताव रखा गया था वह बैंकों के 5,000 करोड़ रुपये के बकाये के 10वें हिस्से के बराबर भी नहीं था। आईडीबीआई बैंक के नेतृत्व वाले कर्जदाता चाहते थे कि महज पांच करोड़ रुपये के भुगतान के बदले कंपनी के खिलाफ निस्तारण प्रक्रिया वापस ले ली जाए और उसे वापस प्रवर्तकों को सौंप दिया जाए। बदले में सीओसी इस बात पर सहमत हो गई कि शिवा के बोर्ड के मौजूदा निदेशकों को बहाल किया जाएगा और कंपनी का पूरा नियंत्रण प्रवर्तकों को सौंप दिया जाएगा। सीओसी के रुख में निरंतरता नहीं रही है। उदाहरण के लिए वीडियोकॉन इंडस्ट्रीज के मामले में सीओसी पूर्व प्रवर्तकों के पक्ष में नहीं थी जिन्होंने धारा 12ए के तहत एक प्रस्ताव पेश किया था। परंतु अज्ञात कारणों से सीओसी को शिवा के प्रवर्तकों के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं थी। कोई भी यह दलील नहीं दे रहा है कि सीओसी को धूत परिवार को वीडियोकॉन को वापस संभालने देना चाहिए था। परंतु बात तो यह है कि देनदारी में चूक होने और कर्जदाताओं को प्रतीक्षा कराने के बाद शिवा के प्रवर्तकों का भी कंपनी को वापस लेने का कोई अधिकार नहीं था क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया में मूल्यांकन पर गहरा असर पड़ा।एनसीएलटी द्वारा वीडियोकॉन मामले में कर्जदाताओं द्वारा स्वीकार की जा रही मूल्यांकन में कटौती पर सवाल करना एकदम उचित है। निस्तारण आवेदक कंपनी को हासिल करने के लिए लगभग नकदीकरण के बराबर मूल्य चुका रहा था और सीओसी को भी इसमें कोई समस्या नहीं थी। पंजीकृत मूल्यांकनकर्ता ने वीडियोकॉन के अधीन आने वाली 13 कंपनियों की निष्पक्ष कीमत 4,069 करोड़ रुपये लगाई थी और नकदीकरण मूल्य 2,568 करोड़ रुपये तय किया था। खरीदार ने इसके लिए 2,962 करोड़ रुपये की पेशकश की थी जबकि कुल 64,838 करोड़ रुपये मूल्य के दावे स्वीकार किए गए थे। यानी यह राशि कुल बकाया दावे का 4.15 फीसदी थी जबकि सभी कर्जदाताओं के लिए कुल मूल्य कटौती 95.85 फीसदी थी। ये दो मामले धारा 12ए की समीक्षा की ओर भी ध्यान आकृष्ट करते हैं। धारा 12ए पूर्व प्रवर्तकों द्वारा एकबारगी निस्तारण पेशकश को स्वीकार करने की इजाजत देती है। यह धारा 29ए की भावना को शिथिल करती है जिसमें कहा गया है कि पूर्व प्रवर्तक अपनी ही परिसंपत्ति के लिए बोली प्रक्रिया में शामिल नहीं हो सकते। दरअसल धारा 12ए प्रवर्तकों को यह इजाजत देती है कि वे ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता अदालतों से बहुत मामूली कीमत पर अपनी कंपनियों का नियंत्रण वापस ले सकें। जिस प्रवर्तक ने अपना बकाया चुकाने से इनकार किया था उसे पुरस्कृत करना और मूल्यांकन में यूं कमी करना अनुचित है। संसदीय समिति की रिपोर्ट इस ओर भी इशारा करती है कि सीओसी को देरी से तथा अनचाही निस्तारण योजनाओं को स्वीकार करने का महत्त्वपूर्ण विवेकाधिकार प्राप्त है। इससे भारी पैमाने पर प्रक्रियागत अनिश्चितता पैदा होती है। परिणामस्वरूप वास्तविक बोलीकर्ता सही समय पर बोली लगाने से हतोत्साहित हो जाते हैं। इससे ऋण निस्तारण की कवायद कमजोर होती है और इसके परिणामस्वरूप बहुत देरी होती है जो मूल्यांकन को प्रभावित करती है।ऋणशोधन मामलों में निस्तारण की एक और समस्या तब उत्पन्न होती है जब सीओसी को ज्यादा सक्रियता दिखानी होती है। बैंकों या वित्तीय संस्थानों द्वारा निस्तारण पेशेवरों के साथ बैठक के लिए भेजे गए प्रतिनिधि अक्सर नोट लेने वाले या श्रोता बनकर रह जाते हैं। उनके पास अहम मसलों पर निर्णय या मत देने का कोई अधिकार नहीं होता। यद्यपि आईबीबीआई ने एक परिपत्र जारी करके कहा है कि सीओसी सदस्यों का प्रतिनिधित्व ऐसे व्यक्ति को करना चाहिए जो सक्षम हो और उसी जगह निर्णय लेने के लिए अधिकृत हो। लेकिन इसके बाद भी कई मामलों में हालात वहीं के वहीं हैं। इस पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। सीओसी के लिए एक आचार संहिता की आवश्यकता है। अब नियामकों की बारी है कि वे इस पर ध्यान दें।
