भारतीय ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया बोर्ड (आईबीबीआई) के चेयरपर्सन एमएस साहू का कहना है कि कॉर्पोरेट ऋणशोधन समाधान प्रक्रिया के लिए आवेदन करने वाली 90 फीसदी कंपनियां अर्जी स्वीकार होने के पहले या बाद में बंद हो गईं। रुचिका चित्रवंशी के साथ बातचीत में साहू ने कहा कि आईबीसी कानून आने से पहले के मामलों के निपटारे के बाद बिक्री की स्थितियां कम बनेंगी। उनका मानना है कि आईबीसी अभी एक निर्माणाधीन सड़क जैसी स्थिति में है। संपादित अंश: आपने कहा है कि आईबीसी कानून आने के बाद से परिसमापन के मामले नगण्य हैं। लेकिन समाधान नहीं निकल पाने वाले 48 फीसदी मामलों का अंत परिसमापन के रूप में हुआ। आप इसे किस रूप में देखते हैं?परिसमापन की प्रक्रिया में जाने वाली तीन-चौथाई कंपनियां निष्क्रिय हो चुकी थीं। बचाई गई कंपनियों में से भी एक-तिहाई निष्क्रिय थीं। मूल्य के संदर्भ में देखें तो तनावग्रस्त परिसंपत्तियों के 70 फीसदी को उबार लिया गया जबकि 30 फीसदी तनावग्रस्त परिसंपत्तियों वाली कंपनियों को बंद कर दिया गया। अब कॉर्पोरेट ऋणशोधन अक्षमता समाधान प्रक्रिया (सीआईआरपी) शुरू करने के लिए आवेदन करने वाली कंपनियों पर गौर करते हैं। इनमें से 90 फीसदी से भी ज्यादा कंपनियां प्रक्रिया के बीच में ही बंद हो गईं। इस तरह परिसमापन प्रक्रिया से गुजरने वाली कंपनियों का अनुपात बहुत कम रहा। आईबीसी कानून के दायरे के बाहर हो रहे कर्ज समाधान को मैं इसमें शामिल भी नहीं कर रहा। लेकिन मेरा अनुमान है कि आईबीसी कानून आने से पहले के मामलों का निपटारा हो जाने के बाद परिसमापन के मामले बहुत कम होंगे। वैसे अव्यवहार्य कारोबार होने पर परिसमापन अपने-आप में बहुत बुरा भी नहीं है। आईबीबीआई ने पूर्व-पैकेज योजना के बारे में बैंकों को जागरूक करने के लिए कई संगोष्ठियां की हैं। इस योजना को लेकर कर्जदाताओं एवं एमएसएमई क्षेत्र की क्या प्रतिक्रिया है?आईबीबीआई हितधारकों के बीच जागरूकता पैदा करने एवं क्षमता निर्माण के लिए कई कार्यक्रम चलाता है। यह बैंकों, पेशेवरों एवं अन्य हितधारकों के लिए प्री-पैकेज योजना के बारे में कार्यक्रम चला रहा है। हालांकि बाजार को नया प्रारूप समझने, अन्य उपलब्ध विकल्पों से उसकी तुलना करने और खुद को तैयार करने में तीन से छह महीने लग जाते हैं। इसके अलावा प्री-पैक के लिए कर्जदाताओं एवं कर्जदारों के बीच औपचारिक प्रक्रिया शुरू करने के पहले बेहतर समझ होनी जरूरी है। इसमें प्रक्रिया शुरू करने के पहले 90 दिनों तक की अनौपचारिक बातचीत का प्रावधान रखा गया है। हालांकि इस पर प्रतिक्रिया की उम्मीद करना अभी जल्दबाजी होगी। उद्योग में प्री-पैक योजना को सभी कंपनियों के लिए मुहैया कराने की बड़ी मांग देखी जा रही है। क्या इस बारे में सोचा जाना चाहिए?आईबीसी को बदलती वास्तविकताओं के अनुरूप मजबूत बनाने की जरूरत है। यह संहिता जिंदगी की तरह विकसित हो रही है। शुरुआत में इसमें मानक एवं स्पष्ट प्रक्रियाओं का जिक्र था लेकिन कारोबार एवं अर्थव्यवस्था को असरदार बनाने के लिए इसमें कई बदलाव भी हुए। समय के साथ नई प्रक्रियाएं एवं नए तत्व भी इसमें जोड़े जा रहे हैं। वित्त मामलों की स्थायी समिति ने हाल ही में कंपनियों के लिए प्री-पैक योजना की सिफारिश की है। कंपनी मामलों के सचिव ने कहा है कि कर्जदाताओं को होने वाले नुकसान के लिए निदेशकों को जवाबदेह ठहराने वाली आईबीसी की धारा 66(2) का बमुश्किल ही इस्तेमाल होता है। क्या दिवालिया पेशेवरों को इस पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए?कंपनी का ट्विलाइट दौर तब शुरू होता है जब उसके निदेशक को यह अहसास हो जाता है कि सीआईआरपी प्रक्रिया में जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है। इस दौरान निदेशक का अतिरिक्त दायित्व होता है कि वह आशंकित नुकसान को न्यूनतम करने के प्रयास करे। कंपनियों के साथ प्रवर्तकों एवं प्रबंधकों को भी तनाव के शुरुआती दौर में कर्ज समाधान के लिए जाने का प्रोत्साहन मिलता है। कभी-कभी सीआईआरपी शुरू होने में देर हो जाती है। ऐसे में अगर दिवालिया पेशेवर कानून की धारा 66(2) के तहत आवेदन करे तो कंपनी के पास प्रक्रिया रोकने की गुंजाइश नहीं रह जाएगी।
