जलवायु परिवर्तन पर गठित अंतर-सरकारी पैनल (आईपीसीसी) की छठी रिपोर्ट वर्ष 2014 में आई इसकी पिछली रिपोर्ट की तुलना में कहीं ज्यादा स्याह है। पैनल की पांचवीं रिपोर्ट ने जलवायु परिवर्तन संबंधी पेरिस समझौते को दिशा देने का काम किया था। पेरिस समझौता कई दशकों में हुआ ऐसा पहला वास्तविक समझौता था। हालांकि उस समझौते को तब भी जरूरत के हिसाब से बुनियादी तौर पर एक कमजोर समझौता ही माना गया था। पैनल की छठी रिपोर्ट यह साफ कर देती है कि जलवायु परिवर्तन की स्थिति इंसानी क्रियाकलापों की वजह से पैदा होने को लेकर जलवायु वैज्ञानिकों के बीच सार्वभौम सहमति बन चुकी है, कुछ सुधारे न जा सकने वाली एवं बेहद तेजी से बढ़ रही जलवायु परिवर्तन प्रक्रियाएं पहले ही शुरू हो चुकी हैं और अगर धरती के तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा नहीं बढऩे देना है तो तत्काल कदम उठाने होंगे।पैनल की यह रिपोर्ट निर्विवाद रूप से हरेक भारतीय के लिए पिछले एक साल में आई सबसे अहम खबरों में से एक है। हमारा देश वैश्विक ताप-वृद्धि और उसकी वजह से पैदा होने वाले अजीबोगरीब मौसमी पैटर्न एवं घटनाओं का बहुत ज्यादा जोखिम है। हमारी जिंदगी, आजीविका और वृहत-अर्थव्यवस्था काफी हद तक मॉनसून रूपी नाजुक मौसम प्रणाली पर निर्भर हैं। आईपीसीसी की रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक तापन की वजह से मॉनसून के आवागमन में बड़े बदलाव होने की आशंका है। आने वाले समय में मॉनसून की तीव्रता कहीं ज्यादा होगी लेकिन वह देश के कुछ इलाकों में ही बारिश लेकर आएगा और उसका आगमन भी देरी से होगा। पिछले कुछ वर्षों में हमें मॉनसूनी बारिश के संदर्भ में ऐसे बदलाव देखने को भी मिल रहे हैं। अगर मॉनसून के चक्र में इस तरह के बदलाव होते हैं तो खेती के तौर-तरीके भी बदल जाएंगे। फसलों की बुआई की मौजूदा समय-सारिणी के साथ-साथ फसली विकल्प भी अप्रासंगिक हो जाएंगे। पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन की घटनाएं ज्यादा देखने को मिलेंगी और गंगा एवं ब्रह्मपुत्र नदी घाटियों के निचले इलाकों में भयंकर बाढ़ आने की स्थिति भी पैदा होगी। आईपीसीसी की रिपोर्ट में कहा गया है कि पानी के अन्य ठिकानों की तुलना में हिंद महासागर कहीं ज्यादा गर्म हो सकता है जिससे उसके तटीय इलाकों में रहने वालों की जिंदगी पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। इसके अलावा समुद्री जल का स्तर बढऩे से तटीय अपरदन की स्थिति पैदा होगी जिससे सघन आबादी वाले तटीय इलाकों के वजूद पर खतरा मंडराने लगेगा और खारापन बढऩे से रिहायशी इलाकों के इस्तेमाल के लिए ताजे पानी की उपलब्धता कम हो जाएगी और उर्वर भूमि भी खेती के लायक नहीं रह जाएगी। भारत की राजनीति भी किसी-न-किसी तरह के जलवायु शरणार्थियों की आवक से प्रभावित होने लगेगी। इनमें से कई शरणार्थी देश के भीतर के ही लोग होंगे जिससे क्षेत्रीय तनाव की स्थिति भी पैदा होने का डर होगा। दूसरी तरह के शरणार्थी देश के बाहर के लोग होंगे। इस तरह भारत के अपने राज्यों के बीच और पड़ोसी देशों के साथ भी पानी को लेकर विवाद की स्थिति पैदा होगी। इसके अलावा जलवायु परिवर्तन अपने साथ गर्मी की समस्या भी लेकर आएगा। भारत का अधिकांश हिस्सा, खासकर उत्तर के मैदानी इलाके पहले से ही गर्मी का लंबा दौर होने से रहने एवं काम के लिहाज से मुश्किल जगह हैं। आने वाले समय में गर्मियों का मौसम कहीं ज्यादा लंबा एवं तीव्र होगा। ऐसी स्थिति में 40 डिग्री सेल्सियस से ज्यादा तापमान वाले दिनों की संख्या भी नाटकीय रूप से बढ़ती जाएगी। उस समय भी तमाम लोगों को खुली जगहों पर चिलचिलाती धूप में काम करना होगा। लू बहने वाले दिनों की गिनती बढऩे से लोगों की सेहत संकट में पडऩे लगेगी।भारत के लिए आसन्न खतरों को देखते हुए यह विचार ही परेशान करने वाला है कि जलवायु परिवर्तन पर हमारा समग्र रुख एक दशक से भी ज्यादा समय से नहीं बदला है। अब भी हमारा रवैया चिढ़ एवं बेरुखी के बीच का है। बेरुखी की वजह यह है कि हमें अब भी लगता है कि हमारे सामने इससे बड़ी समस्याएं हैं। और चिढ़ का कारण हमारी वह सोच है कि यह समस्या हमारी वजह से नहीं पैदा हुई है। ऐसा मानना काफी हद तक सही भी है। लेकिन चिढ़ एवं बेरुखी के इस मेल ने अतीत में भी हमें अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारने की स्थिति तक पहुंचाया था। वर्ष 2009 के कोपनहेगन सम्मेलन में हमने जलवायु संबंधी एक वैश्विक करार को इस आधार पर रोक दिया था कि हम चीन के बजाय अमेरिका को तरजीह देते हुए नहीं दिखना चाहते थे। (वह हमारे लिए अच्छा भी साबित हुआ, है ना?) मोदी सरकार भी जलवायु परिवर्तन जैसे मसले पर बेरुखी एवं चिढ़ी नजर आती है, उसके लिए सैन्य एवं भू-सामरिक मसले कहीं ज्यादा अहम हैं। पेरिस समझौते के समय 2015 में उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए घोषित 100 अरब डॉलर का फंड कहां है? ग्लासगो में साल के आखिर में होने वाले 26वें जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के पहले 100 अरब डॉलर को लेकर अफसरों के स्तर पर तकरार जारी है जबकि इस सम्मेलन में खरबों डॉलर के निवेश की संभावना है। यह समस्या दूसरों की पैदा की हुई है लेकिन इसका समाधान दूसरे नहीं करेंगे। भारत को अपने नागरिकों का भविष्य सुरक्षित रखने के इरादे से जलवायु परिवर्तन के सवाल पर आगे बढऩे की जरूरत है। भारत को ग्लासगो सम्मेलन में एक ऐसे करार की जरूरत है जिसके दम पर प्रधानमंत्री यह दावा कर सकें कि अगले एक दशक में अरबों डॉलर की जलवायु-संबंधी निजी वित्त भारत समेत उभरती दुनिया के देशों के लिए आएगा। भारत सरकार का यह दायित्व न सिर्फ अपने लोगों बल्कि विकासशील दुनिया के उसके नेतृत्व की धारणा के लिए भी है।
